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सम्पादकीय

by
Jan 10, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Jan 2006 00:00:00

अनुद्योगेन तैलानि तिलेभ्यो नाप्तुमर्हति।

बिना उद्योग किए कोई तिल से भी तेल प्राप्त नहीं कर सकता।

-नारायण पंडित (हितोपदेश, प्रस्ताविका, 30)

आखिर धर्म की शरण में

लगभग 50 साल तक कम्युनिस्ट पार्टी और विचारों की सेवा करने वाले प. बंगाल के परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने अब हिन्दुत्व का दामन थामा है। चक्रवर्ती के ताजा बयानों को मानें तो “60 के दशक में छात्र जीवन में कम्युनिस्ट विचारधारा के संपर्क में आने के पूर्व वे एक संस्कृतनिष्ठ और धर्म के प्रति आस्थावान हिन्दू ही थे। फिर कामरेड बने। प. बंगाल की राजनीति में काफी यश और प्रसिद्धि प्राप्त की। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में उनकी गिनती होती रही है। लेकिन पिछले दिनों अचानक उनका सुप्रसिद्ध तारापीठ मंदिर पहुंचकर पूजा अर्चना करना, मां काली को भोग आदि अर्पित करना माकपा नेताओं को सुहाया नहीं है। कामरेड सुभाष के मार्गदर्शक कहे जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु तक ने उनके इस कदम की आलोचना की है। उन्होंने कहा, सुभाष बौरा गया है। राज्य के अन्य कामरेड भी यह देखकर सकते में हैं कि कामरेड सुभाष किस सहजता से टीवी कैमरों के सामने मंदिरों में जा रहे हैं और पूजा-अर्चना कर रहे हैं, साक्षात्कारों में हिन्दू धर्म-दर्शन की तारीफ कर रहे हैं। उन्होंने यह घोषणा भी की है कि वे पहले हिन्दू हैं, बाद में कुछ और। तारापीठ के बारे में मान्यता है कि वहां जो देवी की पूजा कर लेता है वह आस्तिक बन जाता है। वहां के पंडित ही ऐसा बताते हैं। तो क्या ये मानें कि सुभाष बाबू जान बूझकर पहले तारापीठ गए थे? उनके एक साथी ने इस पर चुटकी भी ली कि कम्युनिस्ट नेता के तौर पर किए गए उनके सारे “पाप” पूजन-अर्चना के बाद क्षम्य हो चुके हैं। उन्होंने अन्य कामरेडों को भी खुला निमंत्रण दिया है कि वे भी हिन्दू परम्परा, सांस्कृतिक निष्ठाओं से जितनी जल्दी हो, जुड़ जाएं। देखा जाए तो इस घटना ने माकपा के वैचारिक खोखलेपन को एक बार फिर उजागर किया है। छात्र राजनीति में उतरने से पूर्व सुभाष चक्रवर्ती संस्कृत के श्लोक पढ़ते थे। फिलहाल वे गीता का अध्ययन भी कर रहे हैं। इसे गीता तत्व चिंतन का प्रभाव ही कहेंगे कि उन्होंने माकपा के शीर्ष नेतृत्व को चुनौती भी दे दी है कि हिम्मत है तो वह उन्हें पार्टी और सरकार से बाहर कर दें।

माक्र्सवादी अपने दायरे में फैलाव के लिए जीतोड़ कोशिश में जुटे हैं। अब तक जिन क्षेत्रों में उन्होंने कदम नहीं रखा था, उनमें भी धीरे-धीरे पैठ जमाने की कोशिश में हैं। लेकिन माकपा को यह अनुभूति नहीं हो रही है कि सुभाष बाबू ने जिस डगर पर कदम आगे बढ़ाए हैं, उस पर चलकर माकपा का भी उद्धार हो सकता है। बंगाल सहित पूरे देश में नवरात्र उत्सव शुरु हो चुके हैं। ऐसे में एक माक्र्सवादी नेता का देवी मंदिर जाकर शीश झुकाना बहुत से संकेत देता है। लेकिन क्या माकपा इसे पहचाननें में सक्षम है?

स्वदेशी की विजय-हमारा अमूल

गुजरात सरकार प्रगति और विकास के क्षेत्र में कमाल कर रही है। अब तक एशिया में दुग्ध उत्पादक के रूप में जो सबसे बड़ा प्रतीक था वह दुनिया का सबसे बड़ा प्रतीक होने जा रहा है। कृष्ण कन्हैया का क्षेत्र दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में क्यों न बड़ा हो। अनुमान है कि अब अमूल छाप के तरल दूध का बाजार प्रतिदिन 36-38 लाख लीटर से बढ़कर 45-46 लाख लीटर प्रतिदिन हो जायेगा। अमूल छाप के तरल दूध का वार्षिक विक्रय अब एक हजार करोड़ रु. तक पहुंचने की आशा है। गुजरात सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ दुनिया की विशालतम दुग्ध उत्पादक संस्थाओं, जैसे – अरला, डायरीक्रेस्ट और रोबर्ट वाइजनेम को पीछे छोड़ने की तैयारी में है। सूत्रों के अनुसार पिछले सप्ताह गुजरात के विभिन्न दुग्ध उत्पादक संघों, जैसे- सूरत के सुमूल वडोदरा के बड़ौदा डेयरी, महिसाणा के दूध सागर और राजकोट के गोपाल ने यह तय किया कि वे सब मिलकर अमूल छाप दुग्ध विक्रय व्यवस्था के तहत अपना दूध बेचेंगे ताकि छोटे दूध उत्पादक संघों की प्रतिस्पर्धा से सामना किया जा सके। एक ऐसे समय में जब वैश्वीकरण के दबाव में स्वदेशी उत्पादक केन्द्र गलाकाट प्रतिस्पर्धा से जूझ रहे हैं और हमने पार्ले, लिम्का, कैम्पा कोला जैसी छापों को प्रतिस्पर्धा से पहले ही हथियार डालते देखा है वहीं खाद्य क्षेत्रों में अमूल, हल्दीराम, बीकानेरी भुजिया, एम.टी.आर. आदि ने स्वदेशी के सम्मान को बचाया ही नहीं, बढ़ाया भी है।

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