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– बदरे आलम खान
उप-सचिव, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का प्रारंभ से ही उद्देश्य रहा है कि समस्त विवादों का निवारण सौहार्दपूर्ण वार्तालाप के माध्यम से किया जाए। इस ध्येय को दृष्टिगत रखते हुए उसे कार्यान्वित करने के लिए आयोग सभी मत-पंथों के नेताओं तथा बुद्धिजीवियों की समय-समय पर बैठक आयोजित करता रहा है। प्रतिकूल परिस्थितियों, सौहार्द की कमी और परस्पर विश्वास के अभाव की एक लम्बी कड़ी है, जिसके ताने-बाने इतिहास की कुछ कष्टदायक एवं कड़वी घटनाओं से जा मिलते हैं। किन्तु प्रश्न यह उठता है कि हम कब तक गुजरी हुई कहानियों को दोहराते रहेंगे और दिवंगत भूतकाल की कब्रा खोदने का सिलसिला चलाते रहेंगे?
आज मानवता त्राहि-त्राहि कर रही है और मनुष्य अन्दर से टूट-फूट रहा है, तब यह अति आवश्यक है कि मनुष्य के दैविक तत्वों को उभारा जाए और बातचीत के द्वारा सारी समस्याओं को हल किया जाए। पारस्परिक विवाद को समाप्त करने का सर्वोत्तम तरीका संवाद एवं वार्तालाप है। पुराने घावों को कुरेदने की बजाय उन पर मरहम लगाया जाए और पीड़ितों के आंसू पोंछे जाएं। यही सभी पैगम्बरों, समाज सुधारकों और ऋषि-मुनियों का तरीका रहा है। विरोध जीवन का अटूट हिस्सा है किन्तु उन्हें पाश्विक प्रवृत्तियों की सन्तुष्टि के लिए और एक-दूसरे का गिरेबां पकड़ने का बहाना बनाना सर्वथा मूर्खता है। सूफी कवि मौलाना रुम ने कहा है –
जिन्दगानी आश्तीये जिद्दहास्त।
मर्ग आं कांदरमियां शां जंग खास्त।।
(अर्थात् जीवन विरोधी तत्वों का पारस्परिक सम्बंध है। मृत्यु यह है कि उनके बीच संघर्ष आरम्भ हो जाए।)
हमें इस बात को दिल में बैठा लेना चाहिए कि मेल-मिलाप और भाई-चारा, प्रेम और शान्ति, सहनशीलता एवं क्षमा स्थायी मूल्य हैं और इसके विरुद्ध हिंसा और खून-खराबा क्षणिक उन्माद के अतिरिक्त कुछ नहीं। लोग केवल कल्पनाओं के आधार पर एक दृष्टिकोण बना लेते हैं और वही दूसरों को परखने के लिए उनका मापदण्ड बन जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि सम्बंधों में कटुता एक स्थायी स्वरूप बन जाती है और कालान्तर में यह काल्पनिकता एवं विवेकहीनता इतनी तीव्र हो जाती है कि पवित्र पुस्तकें भी उसकी परिधि में आ जाती हैं। लोग अवतरित पुस्तकों की सत्यता और उसके विश्वव्यापी मानवीय संदेश पर शंका करने लगते हैं। कुरान शरीफ की लगभग 2 दर्जन आयतों में मुशरिक, काफिर वध इत्यादि का वर्णन है, जिससे गैरमुस्लिम भाइयों को संदर्भ से अनभिज्ञता के कारण बहुत कष्ट होता है। कुरान शरीफ का केवल अनुवाद पढ़ना ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए व्याख्या एवं टीका-टिप्पणी का अध्ययन करना भी आवश्यक है।
मौलाना राबे हसनी नदवी (अध्यक्ष, आल इंडिया मुस्लिम पसर्नल ला बोर्ड) ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के उद्देश्यों का समर्थन करते हुए कहा था कि बातचीत का सिलसिला जारी रहना चाहिए। मौलाना साहब के सुझाव पर कार्रवाई करते हुए आयोग ने कुछ विख्यात मदरसों के संचालकों एवं देश के अनेक शिक्षाविदों की एक बैठक बुलाई, जिसमें मदरसों के सम्बंध में समस्त सच्चाइयां प्रस्तुत की गईं और इस आरोप का खण्डन किया गया कि मदरसों में जिहाद या अन्य विवादित विषयों की शिक्षा दी जाती है। बातचीत खुलकर हुई और मदरसों के सम्बंध में गलतफहमियां दूर की गईं। इससे यह सिद्ध होता है कि यदि किसी विषय पर आमने-सामने बैठकर सच्चे दिल से बातचीत की जाए तो एक-दूसरे का दृष्टिकोण समझ में आता है और काल्पनिक और निराधार विचारों का उन्मूलन हो जाता है।
सरदार तरलोचन सिंह (संसद सदस्य एवं अध्यक्ष, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग) के नाम अपने पत्र में श्री अशोक सिंहल (अध्यक्ष, विश्व हिन्दू परिषद) ने आयोग के द्वारा की जा रही गतिविधियों की प्रशंसा करते हुए अपनी शंकाओं को भी प्रकट किया। उन्होंने लिखा है, “बिना किसी भेदभाव के मजहबी या पांथिक शिक्षा देना अति आवश्यक है, क्योंकि इसका प्रभाव आदमी के संस्कार पर पड़ता है। किन्तु कुरान और बाइबिल में कुछ ऐसी शिक्षाएं भी हैं जिनसे समाज में समन्वय स्थापित करने में बाधा आती है, अत: इस विषय पर भी विचार किया जाना आवश्यक है।” श्री अशोक सिंहल के पत्र के जवाब में आयोग के अध्यक्ष सरदार तरलोचन सिंह ने लिखा कि “आयोग के द्वारा आयोजित हिन्दू-मुस्लिम समाज के प्रतिनिधियों की बैठक में इस मुद्दे को श्री इन्द्रेश कुमार और श्री देवेन्द्र स्वरूप (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) ने उठाया था, जिसका स्पष्टीकरण मुस्लिम विद्वानों ने कर दिया था और आवश्यकता पड़ने पर वे पुन: इस पर प्रकाश डालने के लिए तैयार हैं। अवतरित पुस्तकों में संशोधन करने का किसी को अधिकार नहीं है। हां, उनकी व्याख्या अवश्य की जा सकती है।” सरदार तरलोचन सिंह के इस स्पष्टीकरण के पश्चात श्री अशोक सिंहल का दृष्टिकोण बदला और उन्होंने 24 अक्तूबर, 2005 के पत्र में लिखा, “मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई कि इस्लामिक विद्वान पवित्र कुरान शरीफ की कुछ आयतों की पुनव्र्याख्या करने हेतु तैयार हो गए हैं। पवित्र कुरान शरीफ के बदलाव करने की आवश्यकता नहीं है। वह तो परमपिता परमात्मा की मोहम्मद साहिब के माध्यम से प्राप्त ईश्वरीय वाणी है, परन्तु सम्पूर्ण विश्व की शान्ति एवं व्यवस्था बनाने हेतु आज के काल में उन आयतों की पुनव्र्याख्या अति आवश्यक प्रतीत होती है।” श्री अशोक सिंहल के शब्द इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि यदि ह्मदय की ग्रन्थि को सही तरीके से खोलने का प्रयास किया जाए तो वांछित परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। शायर इकबाल ने कहा है –
“नहीं है नाउम्मीद इकबाल अपनी किश्ते वीरां से
जरा नम हो तो ये मिट्टी बड़ी जरखेज है साकी”
(इकबाल अपनी उजड़ी हुई खेती से निराश नहीं है बस, इस उपजाऊ भूमि में तनिक नमी की आवश्यकता है।)
श्री इन्द्रेश कुमार (अ.भा. सह सम्पर्क प्रमुख, रा.स्व.संघ) ने शोध करके कुछ आश्चर्यजनक ऐतिहासिक बातें आयोग को उपलब्ध कराई हैं, जो राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होंगी। जैसे बाबर और राणा सांगा की लड़ाई में हसन खान मेवाती ने राणा की ओर से अपने अनेक सैनिकों के साथ युद्ध में महत्वपूर्ण हिस्सा लिया था। मोतीबाई और जूही, झांसी की रानी की दो मुस्लिम सहेलियों ने अन्तिम सांस तक उनका साथ निभाया था। प्रधान तोपची कुंवर गुलाम गौंस खान झांसी की रक्षा में लड़ते हुए शहीद हो गए। शेरशाह सूरी से पराजित होकर हुमायूं दर-दर भटक रहा था तो अमरकोट के हिन्दू राजा ने उसे शरण दी। वहीं अकबर का जन्म हुआ। सेनापति हकीम खान सूर हल्दी घाटी के युद्ध में राणा प्रताप की ओर से बहुत बहादुरी से लड़े। कश्मीर के राजा जैनुल आबदीन ने अपने राज्य से पलायन कर गए हिन्दुओं को वापस बुलाया और उपनिषदों के कुछ भाग का फारसी में अनुवाद कराया। इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय (दक्षिण भारत के शासक) ने सरस्वती वन्दना के गीत लिखे थे। महाभारत और भागवत पुराण का बंगाली में अनुवाद सुल्तान नाजिर शाह और सुल्तान हुसैन शाह ने कराया। शाहजहां के बड़े बेटे दारा शिकोह ने श्रीमद्भागवत गीता का फारसी में अनुवाद कराया और गीता के संदेश को सम्पूर्ण विश्व में फैलाया। गोस्वामी तुलसीदास को रामचरितमानस लिखने की प्रेरणा अब्दुल रहीम खानखाना से मिली, जो स्वयं कृष्ण भक्त थे। तुलसीदास रात को मस्जिद में सोते थे। “जय हिन्द” का नारा सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज के कप्तान आबिद हसन ने 1942 में दिया था, जो आज तक देशभक्तों का मूलमंत्र है। छत्रपति शिवाजी की सेना और नौसेना के बेड़े में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे और शिवाजी सभी को एक समान मानते थे। उनके बेड़े के एडमिरल दौलत खान तथा उनके निजी सचिव भी मुसलमान थे। शिवाजी को आगरा के किले से कंधे की टेकरी (कांवड़) में फरार कराने वाला व्यक्ति मदारी मेहतर था, जो कि मुसलमान था। 1857 में भारत की आजादी के प्रथम युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई की सुरक्षा की जिम्मेदारी उनके पठान सेनापतियों, गुलाम गौंस खान और खुदादाद खान की थी। इन दोनों ने झांसी के किले के बचाव में अपने प्राण न्योछावर किए और इनके अन्तिम शब्द थे- “अपनी रानी के लिए हम अपनी जान दे देंगे और इन फिरंगियों को अपनी तलवार से काट देंगे।”
गुरु गोविन्द सिंह के सबसे गहरे दोस्त सूफी बाबा बदरुद्दीन थे, जिन्होंने अपने बेटों और 700 शिष्यों की बलि गुरु गोविन्द सिंह की रक्षा के लिए औरंगजेब के साथ युद्ध में चढ़ा दी थी। नवाब 13 दिन होली का त्योहार मनाते थे। नवाब वाजिद अली शाह के राजदरबार में श्रीकृष्ण के सम्मान में रासलीला मनाई जाती थी। अवध में कत्थक की परम्परा राधा व कृष्ण के प्रेम पर आधारित थी, जिसकी शुरुआत नवाब वाजिद अली ने की थी। प्रख्यात नाटक “इन्द्र सभा” नवाब के दरबार के मुसलमान लेखक ने सृजित किया था। भारत में सूफी 800 वर्षों से वसन्त पंचमी पर “सरस्वती वन्दना” को प्रेम से गाते हैं। महान कवि अमीर खुसरो ने सौ से ज्यादा गीत राधा और कृष्ण को समर्पित किए थे और वे अपने आपको राधा-कृष्ण की प्रेमिका की तरह देखते थे। रसखान श्री कृष्ण के अनेक भक्तों में से एक थे, जैसे भिकान, मलिक मोहम्मद जायसी। रसखान ने वृन्दावन में सब कुछ त्याग कर बसने का फैसला तब किया जब उनको एक हिन्दू बालक ने, जिसे वह श्रीकृष्ण का रूप मानते थे, “रसखान” का नाम दिया। रसखान ने अति सुन्दर रासलीला की रचना की। श्रीकृष्ण के हजारों भजन सूफियों ने लिखे हैं, जैसे भिकान, अमीर खुसरो, रहीम, हजरत सरमाद, दादू, बाबा फरीद और यही अंश गुरु ग्रन्थ साहिब में भी जुड़े हैं। गुरु नानक के आजीवन साथी मियां मरदाना थे, जो “रबाब” के संगीतकार थे। इन्डोनेशियाई मुसलमानों में हिन्दू संस्कृति की पूरी पैठ है और वह हिन्दू त्योहारों को धूमधाम से मनाते हैं।
उपरोक्त बातों के अतिरिक्त न जाने और कितनी ऐतिहासिक सच्चाइयां हैं जिन पर शोध करने की आवश्यकता है ताकि उन्हें आम जनता के सामने प्रस्तुत करके आपसी सौहार्द स्थापित किया जा सके। हमारे गैरमुस्लिम भाइयों की कुरान और हदीस के बारे में जानकारी केवल शाब्दिक अनुवाद की हद तक ही है, जो न केवल अपर्याप्त है अपितु गलतफहमियों को जन्म देने वाली भी है। जैसे कुरान शरीफ में लिखा है, “अलम तरा कैफा फअला रब्बुका बे अस्हाबिल फील” (क्या तुमने नहीं देखा कि तुम्हारे रब ने हाथियों वालों के साथ क्या किया?) अब इस आयत का अनुवाद पढ़कर किसी को क्या मालूम होगा कि ये हाथी वाले कौन थे और इन पर कौन-सा अजाब (दैविक प्रकोप) नाजिल हुआ था। कुरान शरीफ की भाषा सांकेतिक अन्योक्तिपरक एवं गूढ़ है, जिसका बोध प्रत्यक्ष रूप से नहीं हो सकता है। इसके लिए विस्तृत व्याख्या अति आवश्यक है। मुस्लिम मजहबी नेताओं तथा बुद्धिजीवियों का यह कर्तव्य है कि वे एक योजनाबद्ध तरीके से कुरान शरीफ की आयतों और हदीसों (मोहम्मद साहब की वाणी) को उचित संदर्भ में गैर-मुस्लिमों के सामने प्रस्तुत करें ताकि उनको समझने, ग्रहण करने तथा अपना दृष्टिकोण बनाने में सहायक बने। भारत की अन्य गैर-मुस्लिम जनता के सामने यदि मुस्लिम उलेमा (मजहबी विद्वान) कुरान एवं हदीस और इस्लाम की सही तस्वीर प्रस्तुत करें तो निस्संदेह वह सहज रूप से समझ आने वाली होगी और उसका स्वागत किया जाएगा। मुस्लिम विद्वानों एवं नेतृत्वकर्ताओं को अपनी इस कमी को स्वीकार करना चाहिए कि उन्होंने इस्लाम का सही पक्ष दुनिया के सामने प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं किया। गैरमुस्लिम भाइयों में कुरान और इस्लाम को जानने और समझने की प्रवृत्ति एवं जिज्ञासा पाई जाती है, किन्तु उनके स्रोत सीमित हैं। मुसलमानों के विषय में राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर वैमनस्य पाया जाता है और उन्हें शक की नजर से देखा जाता है। कभी मुसलमानों के शिष्टाचार, सहिष्णुता, मजहब निष्ठा एवं सौहार्दपूर्ण व्यवहार से प्रभावित होकर लोग इस्लाम की ओर आकृष्ट होते थे किन्तु आज मुसलमान सारी दुनिया के लिए कष्ट का कारण बन गया है तथा मीडिया की रपटों के अनुसार आज मुसलमान आतंकवादियों का पथप्रदर्शक एवं हिंसा का द्योतक बन गया है। मुसलमान यह कहकर दामन नहीं छुड़ा सकते कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि कुछ अवांछनीय तत्वों का शैतानी षडंत्र है। तस्वीर का सही रुख पेश करने की जिम्मेदारी उलेमा और अन्य मुस्लिम नेताओं की भी है। मुसलमानों को मोहम्मद साहब के आचरण, व्यवहार एवं शिक्षा को सच्चे दिल से ग्रहण करते हुए अन्य मत-पंथों के अनुयायियों को प्यार की सौगात बांटनी चाहिए, ताकि उन्हें भी बदले में प्यार का तोहफा मिले।
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