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पुस्तक परिचय पुस्तक का नाम- : अलौकिक नित्य प्रेमरसलेखक- : डा. उर्मिला सिंहइडा. सीताशरण सिंह/ढदृदद्यऊप्रकाशक- : ललित प्रकाशनठाकुर श्री गोरेलालजी की कुंजप्रेम गली, वृंदावन-281121पृष्ठ- : 88मूल्य- : रु. 60.00युद्धकाल में रूप रस माधुरीकई बार धर्म की अपनी दृष्टि से व्याख्या करने वालों के कोप के भय से कुछ कहते-कहते मन ठिठक जाता है। लेकिन जब एक ओर धर्म पर आघात हो रहे हों, सामान्य व्यक्ति को झक-झोर कर राष्ट्रोदय के लिए धर्मोदय की बात के बजाय प्रेमश्रृंगार और रूपमाधुरी के वर्णन अटपटे लगते हैं। भले ही उनमें अत्युच्च आध्यात्मिकता की खोज का हेतु ही क्यों न ढूंढा जाए। अब इन पंक्तियों को पढ़ें तो ये शांत और सौम्य समय में रसमाधुरी संयुक्त क्षणों की साक्षी तो हो सकती हैं, दुर्धर्ष संघर्ष की सहगामिनी नहीं-“”नित्य विहार की चाबी स्वामी हरिदास के हाथों में है। प्रिया-प्रियतम के परस्पर प्रेम एवं रूपमाधुरी के मिश्रण से रस की उत्पत्ति होती है। प्रिया-प्रियतम के रूप मानो मेघ एवं दामिनी मिलकर एक रस हो गए हैं। रूप-लावण्य का पान करते-करते प्रेम मूर्छित हो जाता है। प्रिया-प्रियतम का मिलन, आलिंगन एवं समागम नित्य होते हुए भी नित्य नए हैं। उन्हें आपस में मिलने की छटपटाहट लगी रहती है।प्यारी जू जब-जब देखो तेरौ मुखतब-तब, नयौ-नयौ लागति।ऐसौ भ्रम होत मैं कबहूं देखी न री।श्री केलिमाल की प्रिया जी मानिनी हैं। उनके हर मिलन में आकुलता ऐसी बनी रहती है कि उन्होंने एक-दूसरे को पहले कभी नहीं देखा। यह आपस में मिलन की अकुलाहट प्रीतिरस को गाढ़ा बना देती है।””परन्तु प्रत्येक काव्यसंकलन का मूल्यांकन सामयिक, वैचारिक चुनौतियों के संदर्भ में ही करना संभवतः हमेशा उचित भी न हो जहां तक भाषा, लावण्य और रूप रस माधुरी को अभिव्यक्त करती हुई, शैली एवं प्राञ्जलता की बात है, तो यह पुस्तक निश्चय ही आध्यात्मिक एवं विरही मन को सांत्वना एवं आनंद देने वाली ही सिद्ध होगी।समीक्षकNEWS
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