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महामहिम-नरेन्द्र कोहलीमैं अनेक ऐसी सभाओं में सम्मिलित हुआ हूं, जहां अपने राज्यपालत्व काल में आचार्य विष्णुकांत शास्त्री अध्यक्ष तथा वक्ता के रूप में उपस्थित थे। वहां उनका परिचय देते हुए, उनके पद के कारण उन्हें “महामहिम” कहा जाता था। किन्तु प्राय: हमारे साहित्यकार मित्रों को उन्हें “महामहिम” कहकर संबोधित करना अटपटा लगता था। मैं स्वयं उन्हें “महामहिम” कहने का अभ्यास नहीं बना सका था। तब हम कहते थे कि वे हमारे इतने आत्मीय हैं कि हम इस औपचारिक संबोधन से उन्हें स्वयं से दूर नहीं करना चाहते।आज सोचता हूं तो लगता है कि वे वस्तुत: महिमा के हिमवान थे। महिमावान थे। वे ही “महामहिम” कहलाने के अधिकारी थे। अपने पद के कारण नहीं, अपनी प्रतिभा के कारण, अपने व्यक्तित्व के कारण, अपने आचरण के कारण। पद और प्रतिभा का यह संघर्ष सदा से रहा है। साधारण व्यक्ति को भी किसी पद पर बैठा दिया जाए, तो वह कुर्सी, वर्दी, कंधों पर लगे तारों के कारण महामहिम कहलाने लगता है; और प्राय: वह स्वयं को महिमावान मानने भी लगता है। जबकि जो वस्तुत: प्रतिभाशाली होता है, असाधारण होता है, वह आजीवन साधारण बने रहने की साधना करता रहता है। इंद्रप्रस्थ में धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में शिशुपाल एक भूमिखंड का राजा होने के कारण अकड़ा बैठा था। पूछ रहा था कि कृष्ण ग्वाला होकर भी यहां किरीटधारी राजाओं के मध्य क्यों बैठा है। उसे यहां बुलाया किसने? वह सभा में प्रवेश कैसे पा गया? किसने उसे यहां बैठने दिया। और कृष्ण महामहिमावान होते हुए भी, ऋषियों के चरण धो रहे थे, उनके जूठे पत्तल उठा रहे थे। शिशुपाल अपने पद के कारण स्वयं को असाधारण मनवाने पर तुला हुआ था; और कृष्ण अपनी प्रतिभा की असाधारणता को साधारणता के आवरण में ढंके रखने की तपस्या कर रहे थे।वस्तुत: शास्त्री जी की प्रतिभा, उनके पद से बड़ी थी। हम उन्हें “महामहिम” कहकर, एक साधारण प्रशासनिक पद की महिमा में बंदी कर स्वयं से दूर करना नहीं चाहते थे; और न उनकी असाधारण प्रतिभा और महिमा को एक राजपुरुष के पद तक सीमित कर, बौना करना चाहते थे। किन्तु उनके नैकट्य के कारण, उनकी सरलता के कारण, उनकी मोहिनी के कारण, यह बात तब हमारी समझ में नहीं आई थी। थोड़ी-थोड़ी समझ में तब आई, जब कांग्रेस सरकार उन्हें अपदस्थ करके भी उनकी महिमा को क्षीण नहीं कर पाई…. और अब यह बात पूर्णत: समझ में आ रही है, जब वे किसी पद के मोहताज ही नहीं रहे।19 मार्च, 2005 ई. को दिल्ली में सिंघवी जी की माता जी की स्मृति में आयोजित व्याख्यानमाला के अंतर्गत प्रथम व्याख्यान शास्त्री जी का था। विषय था: “पुष्टिमार्ग और सूरदास”। उस व्याख्यान में उन्होंने सूरदास के पद “मैया मोहे दाऊ बहुत खिजायो” की चर्चा की। मेरे मन में बहुत दिनों से कुलबुलाता एक प्रश्न उछल कर ऊपर आ गया। क्या “वृन्दावन में रोहिणी और बलराम भी नंद के घर में, उनके परिवार के साथ ही रह रहे थे?” यह प्रश्न मेरे लिए महत्वपूर्ण था। मैं पिछले कुछ वर्षों से वसुदेव के संबंध में एक उपन्यास लिखने की योजना बना रहा हूं। उस संदर्भ में यह तथ्य स्पष्ट होना ही चाहिए कि क्या रोहिणी और बलराम भी नंद के घर में ही रहते थे। रोहिणी के संदर्भ में कहीं कोई भ्रम नहीं था कि वे वसुदेव की पत्नी हैं। उनका पुत्र बलराम भी वसुदेवपुत्र ही हैं। ऐसे में यदि वे दोनों नंद के घर में रहते थे तो कंस को यह संदेह होने में तनिक भी विलंब नहीं होना चाहिए था कि देवकी का आठवां पुत्र यदि कहीं छुपा हो सकता है, तो वह नंद के घर में ही हो सकता है। ऐसे में वसुदेव, अपने आठवें पुत्र को नंद के घर पहुंचाने की भूल नहीं कर सकते थे। यदि रोहिणी नंद के घर में थीं, और वसुदेव कृष्ण को पहुंचाने वहां आए, तो रोहिणी से उनकी भेंट भी हो सकती थी। वे बलराम को देखने की इच्छा भी प्रकट कर सकते थे। उन परिस्थितियों में कृष्ण का उनके साथ संबंध तनिक भी गोपनीय नहीं रहता। रोहिणी और बलराम भी अवश्य जानते कि कृष्ण यशोदा के पुत्र नहीं हैं। तब “तोहे जसुमती कब जायो” विनोद न होकर तथ्य होता। कृष्ण अथवा बलराम के मुख से ऐसी बातें सुनकर यशोदा और नंद भय से पीले पड़ जाते।….. ऐसे ही अनेक तर्क मुझे यह सोचने को बाध्य करते थे कि रोहिणी नंद के घर में नहीं रहती थी।व्याख्यान के पश्चात् जब शास्त्री जी से प्रश्न पूछने की सुविधा हुई तो मैंने पूछ ही लिया, “कृष्ण यशोदा से बलराम की शिकायत करते हैं, उन्हें दाऊ कहते हैं, तो क्या बलराम और रोहिणी भी नंद के घर में ही रहते थे?” उन्होंने मेरी ओर देखा, क्षण भर कुछ सोचा और बोले, “भागवत में देखकर बताऊंगा।” मैं इस आश्वासन से संतुष्ट नहीं हुआ। इस प्रश्न को पूछने के कारण और कथानक संबंधी समस्याओं और प्रश्नों की चर्चा करता रहा। उन्होंने कुछ सुना, कुछ नहीं सुना और बोले, “भागवत देखकर बताऊंगा।”पिछली बार कोलकाता में उनके पचहत्तरवें वर्ष में प्रवेश के अवसर पर आयोजित समारोह में मैं गीता के विषय में भी कुछ प्रश्न छोड़ आया था। उन प्रश्नों के उत्तर पाने की प्रतीक्षा में भी था। संयोग से पिछले दिनों बीकानेर के श्रीलालेश्वर महादेव मंदिर के महंत आदरणीय सोमगिरि जी महाराज और उनके शिष्य सुबोधगिरि महाराज के आग्रह पर मैंने शास्त्री जी से बीकानेर में गीता संबंधी व्याख्यान करने का निवेदन किया था। तभी वे अस्वस्थ हो गए थे। किन्तु कुछ ठीक होने पर उन्होंने कहा था कि वे बीकानेर अवश्य जाएंगे। यह गीता माता का काम है। यह होना ही चाहिए। जब निधन हुआ तब भी वे “गीता में अध्यात्म” संबंधी व्याख्यान के लिए ही पटना जा रहे थे।….. ये सारे संदर्भ मेरे मन में जुड़ जाते हैं और मुझे स्मरण हो आता है कि जब वे हिमाचल में राज्यपाल थे और मैं सपरिवार उनके पास गया था, तब भी गीता संबंधी उनके प्रवचनों के पुस्तकाकार प्रकाशन के पहले उसके संपादन के संदर्भ में चर्चा हुई, तो उन्होंने कहा था, “मेरे पास समय बहुत कम रह गया है।”उस समय मैंने वही सब कहा था, जो ऐसे अवसर पर लोग कहते हैं कि अभी ऐसी कुछ नहीं है। भगवान आपको लंबी आयु देंगे।…. किन्तु उनके निधन का समाचार आते ही मेरे मन में उनकी वह उक्ति कौंद गई।…. वे ठीक ही कह रहे थे। सारे प्रश्नोत्तर धरे रह गए, सारी पांडुलिपियां पड़ी रह गईं, सारे व्याख्यान प्रतीक्षारत ही रहे- और वे चले गए। मैं ही समझ नहीं पाया था कि उनके पास काम बहुत अधिक था और समय बहुत थोड़ा बचा रह गया था। यक्ष के प्रश्न “आश्चर्य क्या है?” के उत्तर में युधिष्ठिर ने जो कुछ कहा था, वह शास्त्री जी पर लागू नहीं होता। उनको कहीं भ्रम नहीं था कि उनका जीवन अनंत है। वे जानते थे कि उनके पास समय बहुत थोड़ा बचा रह गया है।जब पहली बार दिल्ली में वे हमारे घर आए थे। दो ढाई घंटे रुके थे। भोजन किया था। बहुत सारे विषयों पर ढेर सारी बातें हुई थीं। चलते हुए उन्होंने मेरी पत्नी से पूछा था, “मधु! क्या तुम्हें लगा कि तुम एक राजनीतिज्ञ से मिली?” मधुरिमा कैसे कहती कि वे एक राजनीतिज्ञ से मिली थी। क्योंकि हमने तो राजनीति संबंधी एक वाक्य भी नहीं कहा था, न सुना था। किन्तु मैं बाद में सोचता रहा कि ऐसा व्यक्ति आज की राजनीति में टिका हुआ कैसे है? एक बार पूछ भी बैठा था। वे सदा के समान हंसे थे; और उन्होंने कहा था, “जहां राम जी ने बैठा दिया, वहीं बैठे हैं। जो वे करवा रहे हैं, वही कर रहे हैं।”किन्तु मैंने जब भी उनकी राजनीति के विषय में सोचा, इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि वह राजनीति थी ही नहीं, वह तो राष्ट्रनीति थी, राष्ट्रसेवा थी। अपने लिए, अपने स्वार्थ के लिए, अपने परिवार के लिए, अपने अधिकार के लिए उन्होंने कुछ किया होता तो उसे राजनीति मान भी लेते, उन्होंने जो कुछ भी किया, राष्ट्र के लिए किया। जो व्यक्ति विधायक भी रहा, सांसद भी रहा, दो-दो प्रदेशों का राज्यपाल भी रहा और उसने अपने लिए एक फ्लैट भी नहीं खरीदा- उसने क्या राजनीति की। जुगल जी बता रहे थे कि जिस समय वे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल का पद छोड़कर वापस कोलकाता आ गए, उस समय उन्हें सार्वजनकि परिवहन व्यवस्था का उपयोग करते देखकर उनसे कहा था, “आपको जाना ही था बता देते, हम पार्टी कार्यालय से आपके लिए गाड़ी भिजवा देते।” उनका उत्तर था, “जब पार्टी का काम नहीं करता, तो पार्टी की गाड़ी कैसे ले सकता हूं।”हम जब शिमला के राजभवन से विदा हो रहे थे, तब शास्त्री जी ने आकर हमारी टैक्सी के चालक से पूछा था, “सरदार जी! आप ठीक से तो रहे? आपको कोई कष्ट तो नहीं हुआ?”ड्राइवर की आंखों में अश्रु आ गए। उसने आज तक ऐसा कोई राज्यपाल तो नहीं देखा होगा, जो भाड़े की टैक्सी के ड्राइवर के सुख-आराम की भी चिंता करे।…. और मैं समझ रहा था कि यह शास्त्री जी की भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था ही थी जिसे वे इस समय चरितार्थ कर रहे थे- अतिथि देवो भव। भाड़े की टैक्सी का ड्राइवर था, तो क्या हुआ। उनके आश्रय में आकर टिका था। उनका अतिथि था। उसका ध्यान करना उनका धर्म था।स्वामी विवेकानन्द तिरुवनन्तपुरम में प्रो. सुंदरम के घर पहुंचे। उनके साथ ट्रावंकोर प्रशासन का एक चपरासी भी था, जो सरकारी आदेश पर उनको पहुंचाने आया था। वे लोग पैदल आए थे और काफी समय से भूखे थे। स्वामी ने प्रो. सुंदरम से कहा कि वे चपरासी को भोजन करवा दें। प्रो. सुंदरम चाहते थे कि पहले स्वामी भोजन कर लें। किन्तु स्वामी हठ पर अड़े थे कि पहले चपरासी को भोजन करवा दिया जाए, क्योंकि वह स्वामी पर आश्रित था। स्वतंत्र नहीं था, उनकी सेवा में था। उसको भोजन करवाए बिना वे स्वयं कैसे भोजन कर सकते थे।…. अंतत: चपरासी को ही पहले भोजन करवाया गया। मुझे स्वामी विवेकानंद और शास्त्री जी के आचरण में कुछ साम्य दिखाई देता है। एक राजपुरुष के रूप में शास्त्री जी अद्वितीय प्रतीत होते हैं। उनका व्यवहार देख किसी के भी मन में तुलसी की पंक्तियां गूंजने लगती थीं, “भरत न होहिं, राजमद, विधि हरि हर पद पाई।”न वे अपनी प्रशंसा सुनते थे, न अपने किए का श्रेय लेने को तैयार थे। तत्काल दूसरे का मुख बंद कर देते थे, “राम जी की कृपा।” “राम जी की इच्छा।”उनका जीवन पूर्णता की साधना थी। एक पूर्ण पुरुष का साधना। ईशावास्योपनिषद् ने कहा है, अपने जीवन की पूर्णता पर तो विचार करें ही कि हमने क्या किया; किन्तु मुझे लगता है कि हम शास्त्री जी के पूर्ण जीवन पर भी विचार करें कि उन्होंने क्या-क्या किया, तो हमें बहुत प्रकाश मिलेगा, “महाजनो येन गत: स पंथा:।”(कोलकाता में हुई श्रद्धाञ्जलि सभा में व्यक्त विचारों के सम्पादित अंश। -सं.)NEWS
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