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सेवा और समर्पण का उदाहरणप्रस्तुति : प्रदीप कुमारडा.एम.लक्ष्मी कुमारी का जीवन देश और समाज के प्रति समर्पण का अनुपम उदाहरण है। एक उच्चकोटि की और सफल वैज्ञानिक बनने के बाद उन्होंने खुद को पूरी तरह देश सेवा के लिए समर्पित कर दिया।केरल के त्रिशूर नगर में प्रसिद्ध मलयालम साहित्यकार पुतेजहातु रमण मेनन के यहां 1 मार्च, 1936 को जन्मीं लक्ष्मी कुमारी किशोर-वय में ही स्वामी विवेकानंद का चित्र देखकर उनके प्रति आकर्षित हुईं। वे कहती हैं, “जब मैं तेरह साल की थी तब मेरे पिताजी, जो पुराने कोच्चि राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्त हुए थे, स्वामी विवेकानंद का एक बड़ा-सा चित्र खरीदकर लाए और उसे हमारी बैठक में लगाया। मुझे याद है कि मैं स्वामी जी के व्यक्तित्व से भीतर तक प्रभावित हुई थी। मुझे लगा मानो भीतर से एक आवाज आई कि मुझे उनके पदचिन्हों पर चलना चाहिए। यह विचार, जो उस समय धुंधला था, मेरे बड़े होने के साथ पुष्ट होता गया।”लक्ष्मी कुमारी ने स्वामी जी के पदचिन्हों का अनुसरण करने की अपनी बचपन की इच्छा को पूरा करने के लिए विवाहित जीवन व्यतीत करने की बजाय एक निश्चित लक्ष्य का चुनाव किया। उन्होंने वैज्ञानिक बनना तय किया, क्योंकि उसमें उन्हें अपना ध्यान सत्य की खोज पर केन्द्रित करने का अवसर मिला। यही तो स्वामी जी का आदर्श था। त्रावणकोर विश्वविद्यालय से वनस्पति विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि, मद्रास विश्वविद्यालय से वनस्पति विज्ञान में पी.एच.डी. और पूर्व सोवियत संघ के कीव स्थित यूक्रेन की विज्ञान अकादमी के माइक्रोबायोलाजी संस्थान से उन्होंने स्नातकोत्तर अनुसंधान उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने तिरुपति स्थित पद्मावती महिला महाविद्यालय में 1966 से 68 तक वनस्पति शास्त्र के व्याख्याता के रूप में कार्य किया।नई दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में सूक्ष्म जैव विज्ञानी के रूप में कार्य करते हुए वे स्वामी जी के आदर्शों के अनुरूप 1981 में एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनीं। समाज की सेवा के लिए अपना शेष जीवन समर्पित करने के उद्देश्य से वे विवेकानंद केन्द्र से जुड़ गईं। कालांतर में उन्हें केन्द्र का संयुक्त महासचिव और बाद में कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया। सन् 1984 में विवेकानंद केन्द्र के संस्थापक अध्यक्ष श्री एकनाथ रानडे के देहांत के बाद वे निर्विरोध विवेकानंद केन्द्र की अखिल भारतीय अध्यक्ष बनीं। सन् 1995 में उन्होंने आध्यात्मिक साधना में अधिक समय व्यतीत करने के उद्देश्य से अध्यक्ष पद त्याग दिया।विवेकानंद केन्द्र के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने देश का सघन दौरा किया और स्वामी विवेकानंद के आदर्शों और एकनाथ जी के दिखाए मार्ग को यथार्थ के धरातल पर साकार किया। सन् 1992 में जब केन्द्र ने साल भर चलने वाली विवेकानंद भारतीय परिक्रमा आयोजित की तब उन्होंने उस परिक्रमा में 353 दिन तक लगातार देश का भ्रमण किया।उन्होंने वाशिंगटन, शिकागो और कोलकाता में हुए सभी तीन प्रमुख विश्व धर्म संसदों और सन् 1995 में दक्षिण अफ्रीका के डरबन में हुए विश्व हिन्दू सम्मेलन में विवेकानन्द केन्द्र का प्रतिनिधित्व किया। सन् 1999 में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के केपटाऊन शहर में विश्व धर्म संसद को सम्बोधित किया।विवेकानंद केन्द्र ने विवेकानंद केन्द्र वैदिक विजन फाउंडेशन नामक एक नए ट्रस्ट की स्थापना कर डा. लक्ष्मी कुमारी को इसका आजीवन अध्यक्ष मनोनीत किया। फिलहाल वे संस्कृत, वैदिक साहित्य के प्रकाशन और वैदिक अध्ययन को प्रोत्साहन देने के कार्य में संलग्न हैं।अभी सांदीपनी गुरुकुलम नामक मूल्य-आधारित शिक्षा का नया प्रयोग शुरू किया गया है, जिसके तहत कोडुंगालुर में तीन छात्राओं को संस्कृत में सघन प्रशिक्षण दिया गया है। यहां वे परंपरागत गुरुकुल के अनुसार संस्कृत की शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। साथ ही उन्हें राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय योजना के पाठक्रम के विषय भी पढ़ाए जा रहे हैं। कोडुंगालुर में सांदीपनी शिशु शिविर नामक शिशु विद्यालय भी चल रहा है, जहां शिशु स्तर से ही बच्चों को संस्कृत की शिक्षा दी जा रही है।डा. लक्ष्मी कुमारी ने विवेकानंद केन्द्र पत्रिका और युवा भारती (1982-85) का संपादन भी किया है। साथ ही उन्होंने मलयालम और अंग्रेजी की अन्य सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पत्रिकाओं में भी योगदान दिया है। उनके कुछ लेखों को संग्रहित करके पुस्तकों के रूप में छापा गया है, जिसमें सांप और सीढ़ी (भगवद्गीता पर आधारित), “सीता मस्ट लीव” (महिलाओं को समर्पित) और वन्देमातरम् (देश भक्तिपूर्ण विचार) प्रमुख हैं।विवेकानंद केन्द्र वैदिक विजन फाउंडेशन को उभरते भारत में स्वामी विवेकानंद के कार्य को जारी रखने और विश्व भर को भविष्य में बदलते प्रतिमानों के अनुरूप सामंजस्य से रहने के लिए प्रेरित करने हेतु स्थापित किया गया था। फाउंडेशन कथित आधुनिक शिक्षा और लालन-पालन में कमियों और आत्म-विस्मृति को दूर करने के लिए समान विचारों के संगठनों के कार्यों के साथ सहयोग करता है। साथ ही फाउंडेशन स्वामी विवेकानन्द की उस कल्पना को भी मूर्त रूप देने में जुटा है, जिसमें स्वामी जी ने विश्व में आध्यात्मिकता के प्रचार-प्रसार में भारत की भूमिका को अग्रणी एवं प्रमुख बताया था। यह फाउंडेशन अनेक कार्यक्रमों के माध्यम से पश्चिमी सोच से अंग्रेज हो चुके व्यक्तियों और समूहों को आकर्षित करने का प्रयास कर रहा है। फाउंडेशन अपने विविध प्रकल्पों द्वारा हिन्दू संस्कृति और वैदिक अध्ययन, योग-ध्यान प्रशिक्षण के साथ सत्संग, अध्ययन कक्षाओं, संगोष्ठियों और प्रकाशनों द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान के प्रसार में संलग्न है।डा. लक्ष्मी कुमारी युवाओं में भौतिकतावाद के बढ़ते दखल से भी चिंतित हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी द्वारा समाज की समस्याओं की अनदेखी कर धन कमाने, आराम तलब जिंदगी जीने और नौकरी-पेशा को अत्यधिक महत्व देने की प्रवृत्ति को वे देश के भविष्य के लिए बड़ा खतरा मानती हैं। वे कहती हैं, “अगर माता-पिता बचपन से ही त्याग, तपस्या, संयम जैसे मूल्य बच्चों में डालें, इन मूल्यों को बच्चे अपने अभिभावकों के जीवन में प्रत्यक्ष देखें, तो निश्चित रूप से नई पीढ़ी भौतिकतावादी उद्देश्यों में ढलने के बजाय सच्चाई के रास्ते का अनुकरण करेगी। अपने जीवन का सबसे अविस्मरणीय अनुभव बताते हुए डा. लक्ष्मी कुमारी कहती हैं, “पिताजी द्वारा एक उच्च उद्देश्य के लिए अविवाहित रहकर अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत करने के विचार को पूरी स्वीकृति देना मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण था। पिताजी की इस गहरी समझ ने ही मेरे भविष्य का रास्ता खोला और इसी वजह से मैं अपने बाद के जीवन में सफलता हासिल कर पाई।” वर्तमान पीढ़ी की स्थिति पर वे कहती हैं, “हमारे बच्चे घरों में अभिभावकों और शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षकों द्वारा उचित मार्गदर्शन के अभाव में अंधेरे में घिर रहे हैं। ऐसे में उनके लिए सबसे आसान रास्ता पश्चिमी ढांचे को अंगीकार करना है, जो उन्हें अपने चहुंओर उपलब्ध नजर आता है। परिणामस्वरूप हमें अपने चारों ओर भ्रमित युवा पीढ़ी देखने को मिलती है। पर मुझे विश्वास है कि अगर हम वैश्विक रूप से स्वीकृत अपनी संस्कृति की वैज्ञानिकता के विषय में उन्हें बताएं तो उनमें से ज्यादातर एक भारतीय होने में वैसे ही गर्व का अनुभव करेंगे जैसे युवा स्वामी विवेकानंद ने स्वयं किया था।”प्रस्तुति : प्रदीप कुमारNEWS
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