कम्युनिस्ट विश्वासघात की कहानी-4
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कम्युनिस्ट विश्वासघात की कहानी-4

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Mar 4, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Mar 2005 00:00:00

अपनी माटी से छल

रामशंकर अग्निहोत्री

पाञ्चजन्य के पूर्व सम्पादक-वरिष्ठ पत्रकार श्री रामशंकर अग्निहोत्री द्वारा लिखित पुस्तक- “कम्युनिस्ट विश्वासघात की कहानी” (प्रकाशक- लोकहित प्रकाशन, लखनऊ ) में कम्युनिस्टों की नीतियों और व्यवहार के बारे में विस्तृत वर्णन किया गया था। हालांकि यह पुस्तक 40 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी परन्तु उस समय की लिखी बातें आज भी सच सिद्ध हो रही हैं। पुस्तक के संपादित अंशों की अंतिम किस्त हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं। -सं.

कांग्रेस के भीतर घुसकर कम्युनिस्टों ने गांधीजी के नेतृत्व को उखाड़ फेंकने का यत्न किया। कांग्रेस अधिवेशनों में गांधीजी की अहिंसा का विरोध करने वाला एक गुट निर्माण करने का प्रयत्न उनकी ओर से रहता था। उनकी ओर से समर्थित व्यक्ति अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी बन चुके थे। कांग्रेस में गांधीजी के नेतृत्व, उनकी प्रतिष्ठा और उनकी नीतियों को धक्का देने में उन्होंने पहला बड़ा कदम सन् 1939 में उठाया। श्री सुभाषचन्द्र बोस ने जब महात्माजी की इच्छा की अवहेलना कर कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा तो कम्युनिस्टों को गांधीजी का विरोध करने का अवसर हाथ लगा, किन्तु इसका अर्थ कम्युनिस्टों के मन में सुभाष बाबू के लिए आदर रहा हो सो बात नहीं। दो राष्ट्रीय स्तर के बड़े नेताओं के बीच उत्पन्न महान सैद्धांतिक विरोध का उपयोग कम्युनिज्म की अंतरराष्ट्रीय विचारधारा के लिए कर लेने मात्र का ही उनका विचार था। यह इस बात से स्पष्ट होता है कि त्रिपुरी कांग्रेस में जैसे ही सुभाष बाबू अध्यक्ष बने कम्युनिस्टों ने पुन: करवट बदली। अब वे कांग्रेस के अन्दर सुभाष का विरोध और गांधी का समर्थन करने लगे। कम्युनिस्टों की यह दुमुखी नीति समझ पाना उस समय बड़ा कठिन था, क्योंकि वे खुलेआम कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से दिखाई नहीं पड़ रहे थे। कांग्रेस के भीतर घुसकर ही वे मनमाने ढंग से करवटें बदलते रहते थे। उनका उद्देश्य तो कांग्रेस को तोड़-फोड़कर जनता पर कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व स्थापित करना था। इसलिए वे कांग्रेस के अन्दरूनी झगड़ों को अधिक भड़काने में ही प्रयत्नशील रहते थे।

पुस्तक “कम्युनिस्ट विश्वासघात की

कहानी” का आवरण

नई करवटें

सन् 1940 के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने कई करवटें बदली हैं। द्वितीय महायुद्ध के समय जब तक रूस लड़ाई में नहीं उतरा था तब तक कम्युनिस्ट भारत में युद्ध को जन विरोधी और साम्राज्यवादी युद्ध की संज्ञा देते रहे। किन्तु जैसे ही रूस और ब्रिटेन में समझौता हो गया तो इसी महायुद्ध को कम्युनिस्टों ने जनयुद्ध कहना शुरू कर दिया। भारत में सैनिक भर्ती के अंग्रेजों के कार्य को कम्युनिस्टों ने उठा लिया। महात्मा गांधी और कांग्रेस के ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी कार्यों की निन्दा करने लगे। खुले तौर पर कम्युनिस्ट भारत में ब्रिटिश राज्यसत्ता के एजेंट बनकर कार्य करते रहे। गांधी जी द्वारा छेड़े गए “अंग्रेजो भारत छोड़ो” आन्दोलन को विफल करने में अंग्रेजों की सहायता करते रहे। कम्युनिस्ट इस समय अंग्रेजों की खुफिया पुलिस बन गए। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए जब जापान में आजाद हिन्द सेना की स्थापना की तो यही कम्युनिस्ट नेताजी को जापानी कठपुतली, “तोजो का कुत्ता” और देशद्रोही करार देते रहे। इसके बाद भारत विभाजन की रूप रेखा तैयार करने में कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग का साथ दिया। नोआखली के भीषण दंगों में मुस्लिम लीग के “डायरेक्ट एक्शन” कार्यों में कम्युनिस्टों ने हाथ बंटाया। महात्मा गांधी की हत्या की अत्यन्त दु:खद घटना के समय कम्युनिस्टों ने सम्पूर्ण देश में विक्षोभ पैदा करने और भारत में गृहयुद्ध की स्थिति निर्माण करने की कोशिश की। इस घटना का लाभ उठाकर स्थान-स्थान पर निरपराध नागरिकों पर हमले एवं तोड़-फोड़ करने, संपत्ति नष्ट करने का योजनापूर्ण कार्य किया। भारत की प्रभुसत्ता को चुनौती देकर निजाम-हैदराबाद जब विद्रोह पर उतारू हुआ तो कम्युनिस्टों ने निजाम के रजाकारों की पीठ थपथपाथी। भाग्य से उस समय भारत के गृहमंत्री लौहपुरुष सरदार पटेल विद्यमान थे। तेलंगाना में अस्त्र-शस्त्र एकत्रित कर कम्युनिस्टों ने विद्रोह किया जिसे सरदार पटेल की कठोर कार्यवाही ने विफल कर दिया। कश्मीर की स्वतंत्रता का सपना देखने वाले शेख अब्दुल्ला को कम्युनिस्टों का समर्थन मिला। प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की नीतियों को कम्युनिस्ट देशों का पिछलग्गू बनाने का प्रयत्न किया गया। पं. जवाहरलाल नेहरू की उदारता और जागतिक परिस्थिति का फायदा उठाकर कम्युनिस्ट कांग्रेस के भीतर कांग्रेसी बन घुस गए। भारत की हजारों वर्गमील भूमि पर चीन के कब्जे को उन्होंने विवादग्रस्त विषय माना। प्रधानमंत्री पं. नेहरू के कार्यकाल में कांग्रेस के सत्ता और संगठन दोनों पक्षों को भीतर से खोखला करने का प्रयत्न वे करते रहे। नेहरू जी की मृत्यु के बाद जब श्री लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो कम्युनिस्टों ने इस राष्ट्रवादी नेता के आह्वान को नजरअन्दाज किया। चूंकि पाकिस्तान रूस की ओर झुक रहा था। इसलिए सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध में भी कम्युनिस्टों ने शांति के मसीहा बनकर तटस्थ रहना स्वीकार किया। श्री लालबहादुर शास्त्री की ताशकन्द में हुई रहस्यपूर्ण मृत्यु के बाद श्रीमती इन्दिरा गांधी के नेतृत्व को सामने लाने और इन्दिरा जी के समर्थन का नाम लेकर कांग्रेस को तोड़ने में कम्युनिस्टों ने जो भूमिका अदा की है वह जागरूक नागरिकों से छिपी नहीं है। इसके साथ ही न्यायपालिका की गरिमा को खण्डित करने, संविधान की मर्यादा को कलंकित करने, राजनीतिक हत्याओं और आतंक-दमन का चक्र कम्युनिस्ट प्रभावित क्षेत्र बंगाल, केरल आदि में चलाने, प्रजातांत्रिक निष्ठाओं को कमजोर करने आदि की ऐसी बातें हैं, जो सर्वविदित ही हैं। प्रजातंत्र को समाप्त कर भारत में निरंकुश कम्युनिस्ट तानाशाही के सपने वे देख रहे हैं। इस स्थिति से यदि बचना है तो सम्पूर्ण देश में प्रजातांत्रिक और देशभक्त शक्तियों को व्यापक जन-जागरण और महान एकता का कार्य सम्पन्न करना होगा। कम्युनिस्टों की कथनी और करनी का अन्तर तथा उनकी दोमुंही घातक नीति से देश को समय रहते बचाना होगा।

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