हिन्दुओं पर है दुनिया को
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हिन्दुओं पर है दुनिया को

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Oct 4, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Oct 2005 00:00:00

सही रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी

अशोक चौगुले

प्रदेश अध्यक्ष,

विश्व हिन्दू परिषद् (महाराष्ट्र)

हर देश की एक पहचान होती है, जिससे जनता प्रेरित होती है। यह पहचान मात्र भौतिक रूप में भू-सीमाओं के रूप में नहीं वरन् सांस्कृतिक विशेषताओं के रूप में होती है। यही सांस्कृतिक विशेषता लोगों को उनके संप्रदाय, जाति, नस्ल और भाषा से इतर एक बंधन में बांधते हैं। महात्मा गांधी ने इसी संदर्भ में कहा था, “अंग्रेजों ने हमें सिखाया कि उनके आने से पहले हम एक राष्ट्र नहीं थे और हमें एक राष्ट्र बनने में अनेक शताब्दियों का समय लगेगा। यह बात पूरी तरह निराधार है। अंग्रेजों के भारत में आने से पहले भी हम एक राष्ट्र थे। हमारे विचार एक थे। हमारी जीवन पद्धति एक थी। हम एक राष्ट्र थे, इसीलिए वे यहां एक साम्राज्य स्थापित कर सके। उन्होंने हमें बाद में विभाजित किया। मैं यह नहीं कहता कि एक राष्ट्र होने के कारण हमारे बीच मतभेद नहीं थे, पर हमारे महापुरुषों ने समूचे भारत का पैदल अथवा बैलगाड़ी पर भ्रमण किया। उन्होंने एक-दूसरे की भाषाएं सीखीं और उनमें किसी भी प्रकार का अलगाव नहीं था। दक्षिण (रामेश्वरम्) में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथ और उत्तर में हरिद्धार जैसे तीर्थों को स्थापित करने वाले दूरदर्शी पूर्वजों के बारे में आपका क्या विचार है? आप यह तो मानेंगे ही कि वे कोई मूर्ख नहीं थे। उन्हें पता था कि भगवान की पूजा घर की चारदीवारी के भीतर भी रहकर की जा सकती है। उन्होंने ही हमें बताया था कि, “मन चंगा तो कठौती में गंगा।” पर उन्होंने देखा कि प्रकृति ने भारत को एक अविभाजित भूमि के रूप में बनाया है। इस कारण से उन्होंने भारत के एक राष्ट्र होने की वकालत की। उन्होंने अपने तर्क के अनुरूप भारत के विभिन्न भागों में तीर्थों की स्थापना की और जन सामान्य के मन में राष्ट्रीयता के बीज का प्रस्टुफन कुछ ऐसे ढंग से किया, जिससे संसार के दूसरे भागों के लोग अनजान थे।” (हिंद स्वराज, पाठ नौ, खण्ड 56)

एकता के इसी भाव के कारण ही सुदूर दक्षिण से तुलनात्मक रूप से अनजान आदि शंकराचार्य समूचे देश का भ्रमण कर सके और सभी को गुरु के रूप में मान्य हुए। और इसी मान्यता के कारण वे प्रतीकात्मक रूप से देश के चार कोनों में चार धामों की स्थापना कर पाए। दुनिया में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। विशाल भू-भाग वाले देशों को छोड़िए, किसी छोटे-से देश में भी ऐसा महापुरुष नहीं हुआ जिसने आदि शंकराचार्य की तरह एक विशाल भू-भाग में सहज स्वीकार्यता प्राप्त की हो। ऐसी स्वीकृति अनायास ही नहीं मिलती। आदि शंकराचार्य ने जब अपनी पहली परिक्रमा समाप्त की, उस समय उनकी आयु मात्र सोलह वर्ष की थी और जब उन्होंने अपने कार्य को पूर्ण किया तो वे बत्तीस वर्ष के थे।

अनेक लोग हमारे देश की एकता को स्वीकारते हैं पर वे हिंदू शब्द के प्रयोग से चिढ़ते हैं। जैसे कई लोग भगवा रंग से चिढ़ते हैं जबकि सन् 1930 के आरंभ में झंडा समिति ने र्निविरोध इस बात का निर्णय लिया था कि झंडा भगवे रंग का होना चाहिए क्योंकि यही रंग हमें दूसरे देशों से अलग करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री कुप्पहल्ली सीतारमैय्या सुदर्शन ने कुछ समय पहले इस बात का उत्तर इन शब्दों में दिया था, “राष्ट्रीय जीवन का यह अनवरत प्रवाह, जो कि पहले भारत कहलाता था, आधुनिक समय में हिन्दू के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जैसे गंगा का पवित्र जल भगीरथी, जाहन्वी और हुगली के विभिन्न नामों से विभिन्न स्थानों पर बहता हुआ अनेक जल सरिताओं और धाराओं से समृद्ध होता है, उसी प्रकार हिन्दू राष्ट्र उस एकता और समान राष्ट्रीय जीवन धारा का प्रतीक है जो अपनी विकास यात्रा में विभिन्न नामों को धारण करते हुए और विभिन्न धाराओं तथा प्रभावों को अपने में समेटते और उससे समृद्ध होता रहा। ऐसे में उसे हिन्दू के स्थान पर भारतीय कहकर पुकारने से उसका मूल तत्व अथवा भाव नहीं बदल जाता है। इसलिए इस मान्यता में बदल करके एक अधिक उदार सिद्धांत प्रस्तुत करने का दावा करने वाले लोग किसी भारी भ्रम में हैं। इतना ही नहीं, आज भारी दुष्प्रचार का सामना करने में असमर्थ होने के कारण हिन्दू शब्द को त्यागना पुरानी कपटपूर्ण ब्रिाटिश नीति के सामने घुटने टेकना होगा, जिसने हिन्दुत्व को सांप्रदायिकता के रूप में प्रस्तुत करके उसके मूल भाव को ही भ्रष्ट कर दिया। यह विवेकानंद, महायोगी अरविंद और लोकमान्य तिलक का भारी अपमान होगा, जिन्होंने स्पष्ट और दीप्त भाव से इस राष्ट्र का हिन्दू राष्ट्र के रूप में गुणगान किया है। यह महात्मा गांधी को सांप्रदायिकों की पांत में बिठाना होगा, जिन्होंने चुनौतीपूर्ण ढंग से कहा था, “हिन्दुत्व सत्य की अनवरत खोज है और आज अगर यह मृतप्राय, निष्क्रिय, उन्नति के प्रति उदासीन है तो इसलिए, क्योंकि हम थक गए हैं और जैसे ही यह थकान समाप्त होगी, हिंदुत्व ऐसी तेजस्विता से समूचे विश्व पर छा जाएगा जो पहले कभी किसी ने देखी नहीं होगी।

स्वयं को पंथनिरपेक्ष कहने वाले लोगों के हिंदुत्व के दर्शन को मलिन करने के गंभीर प्रयासों के बावजूद आधुनिक संसार की आवश्यकताओं के लिए इस दर्शन की प्रासंगिकता की कहीं अधिक स्वीकार्यता है। इस दर्शन के मूल सिद्धांतों को समझने के लिए किसी को भी हिन्दुत्व को समझना होगा। और इस हिन्दुत्व के संरक्षण का कर्तव्य केवल हिन्दुओं के कंधों पर हैं।

हिन्दू यह गर्व से कह सकते हैं कि जहां भी वे अल्पसंख्यक हैं, उन्होंने किसी भी हालत में मेजबानों को स्वयं के विषय में चिंता में डालने का कोई काम नहीं किया है। वे कभी किसी विशेष सुविधाओं की मांग नहीं करते फिर भी वे मेजबान देश की उन्नति में अपने हिस्से में से अधिकाधिक योगदान देते हैं। हिंदुओं का लोकतंत्र से संबंध उतना ही प्राकृतिक है, जितना मछली का जल से। हमारे यहां राजाओं और सम्राटों के समय में भी पंचायत प्रणाली थी। जिन देशों में लोकतंत्र संस्थागत रूप में कायम रहा है, वहां हिन्दू जनसंख्या अधिक रही है। पिछले सौ वर्ष से आजाद दक्षिण अमरीकी महाद्वीप के देशों में लोकतंत्र आज जाकर एक परंपरा बन पाया है। विकसित देशों में ईसाई चर्चों के बावजूद लोकतंत्र कायम है। यह एक विडंबना है कि भारत में बौद्धिक वर्ग की पथ भ्रष्टता के कारण उन्होंने हिन्दू दर्शन को शेष विश्व से परिचित करवाने के लिए बहुत कम प्रयास किए हैं। दुनिया के हिंदुओं को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने इन बौद्धिकों को अपनी संस्कृति के संरक्षण के उद्देश्य से हटाने की अनुमति नहीं दी है। और अब हम हिन्दू पुनर्जागरण की लहर देख रहे हैं और अब इस कार्यक्रम को साधु तथा संन्यासी ही नहीं बल्कि सामान्य जन आगे बढ़ा रहे हैं।

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