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कौन-सा पैसा, कैसा रहस्य, कौन अप्पू?
शंकराचार्य जी के विरुद्ध अभियोग में दम नहीं
“अप्पू” कौन है, कहां है? और जब -या अगर- वह मिल भी गया तो शंकररमन की हत्या में शंकराचार्य जी की कथित भूमिका पर उससे किन रहस्यों के उजागर होने की उम्मीद है?
“अप्पू” उस व्यक्ति का नाम है जिसका असली नाम है कृष्णस्वामी और जो चेन्नै से बाहर अपनी गतिविधियां चलाता है। भारतीय पुलिसिया जबान में वह “नामी-गिरामी” है।
उसके ऊपर संभवत: एक नहीं, अनेक मामले हैं। लेकिन आज के संदर्भ में उससे जुड़ा एक मामला है और वह यह है कि शंकररमन की हत्या में उसकी कोई भूमिका जरूर है। क्योंकि प्रस्तुत किए जा रहे तमाम तरह के संकेतों के अनुसार वास्तविक हत्या के पीछे उसी की योजना थी।
12 नवम्बर की आधी रात शंकराचार्य जी की गिरफ्तारी का जो नाटक शुरू हुआ था उसमें “अप्पू” शायद एक नया आयाम जोड़ता है। अप्पू कुछ द्रमुक नेताओं से जुड़ा हुआ माना जाता रहा है। मेरी जानकारी के अनुसार ऐसे कुछ फोटो भी हैं जिनमें वह द्रमुक के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के बगल में खड़ा दिख रहा है। अगर मैं इस तरह की जांच-पड़ताल के तौर-तरीकों के बारे में थोड़ा- बहुत भी जानता हूं तो ये फोटो तब तक जारी नहीं किए जाएंगे जब तक कि यह पूरी तरह तय नहीं हो जाता कि ऐसी परेशानी पैदा करने वाली फोटो और नहीं मिलेंगी।
आज अप्पू कहां है? मुझे बिल्कुल पता नहीं है। हो सकता है कि वह कहीं छुपा हुआ हो। या फिर वह हिरासत में ही हो और किसी सुभीते समय और स्थान पर पेश कर दिया जाए। मेरी पहले वाली बात सही निकली- और मैं फिर कहता हूं कि यह महज एक अंदेशा ही है- तो अप्पू एक ऐसी जगह से मिलेगा कि उससे तमिलनाडु के कई बड़े राजनीतिज्ञ शर्मिन्दा हो जाएंगे।
मेरे पास इस बात का कोई सुराग नहीं है कि अप्पू का वास्तव में शंकररमन की हत्या से कुछ लेना-देना है या नहीं। लेकिन जिस तरीके से आकलन प्रस्तुत किए जा रहे हैं उससे लगता है कि दाल में कुछ काला जरूर है। स्पष्ट है कि द्रमुक भी ऐसा ही मानती है, शायद इसीलिए करुणानिधि ने अचानक पलटी मार दी। शंकराचार्य को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को बधाई देने से शुरुआत करने के बाद द्रमुक नेता ने “राजनीतिक षड्यंत्र” की बाबत बोलना शुरू कर दिया है। और अगर यह जाहिर हो गया कि हत्यारों के गुट के नेता का उनकी पार्टी से कोई जुड़ाव था तब वे किस दलदल में होंगे, अंदाजा लगाएं! लेकिन अप्पू भले कुछ बोलना शुरू कर दे तो भी इस मामले में कोई दम नहीं है। किसी ने भी यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर शंकररमन की हत्या का इंतजाम करके शंकराचार्य के कौन से हित सध जाते। हम राजनीतिक उठापटक को भूल कर सामने आए तथ्यों पर नजर डालते हैं।
अभियोजन पक्ष का अभियोग यही लगता है कि शंकररमन पैसे की गड़बड़ी उजागर करके शंकराचार्य की “कलई खोलना” चाहता था। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का एक ऐसा फैसला है कि मठ एक सार्वजनिक न्यास नहीं होता है। (शायद यह निर्णय एक राजस्व अभियोग में आया था। विस्तार मुझे देखना होगा, पर सार यही था।) मोटे तौर पर, इसका अर्थ यही है कि शंकरचार्य जी कांची कामकोटि पीठ को प्राप्त होने वाले धन का जैसा चाहे उपयोग कर सकते हैं। (ठीक उसी तरह, जैसे कोई भी मिशनरीज आफ चैरिटी को मिलने वाले पैसे के खर्च की जानकारी नहीं मांग सकता।) इसका कुल जमा अर्थ यही निकलता है कि शंकररमन कभी भी शंकराचार्य जी के लिए खतरा नहीं था। शंकररमन किसी की कलई खोलने जा रहा था, इसका एकमात्र “सबूत” कुछ गुमनाम पत्रों में छुपा है। क्या इस बात का कोई सबूत है कि वे पत्र उसी ने लिखे थे? और कोई भी उस व्यक्ति के कहे का भरोसा क्यों करेगा जिसने 7 साल पहले कांची कामकोटि पीठ को छोड़ दिया था? निश्चित तौर पर, अगर कुछ सनसनीखेज रहस्य उजागर होने होते तो उस समय होते जब उसने पीठ को छोड़ा था। (या जब निकाला गया था।)
मैं स्वीकार करूंगा कि जब मुझे पता चला कि शंकररमन वरदराज पेरुमल मंदिर के प्रबंधक पद पर था, तो मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ था। पहली बात, एक आदमी के लिए, जिसने झगड़े के बाद पद छोड़ा हो, दूसरा पद इतनी आसानी से पाना मुश्किल होता है। दूसरे, एक प्रसिद्ध वैष्णव मंदिर में ऐसे पद पर एक शैव का होना दुर्लभ ही होता है। (परम्पराओं पर चलने वाले कांची मठ में ऐसी चीजें अब भी मायने रखती हैं।) बहरहाल, आप जितना इस बारे में सोचते हैं, उतने ही सवाल पैदा हो जाते हैं- लेकिन जवाब नहीं मिलते। आज के हालात में कोई भी वकील शंकराचार्य जी के विरुद्ध इस मामले को आसानी से जीत सकता है। उदाहरण के लिए, इस तर्क में क्या दम है कि उन्हें गिरफ्तार करना ही पड़ा, क्योंकि उन्हें नेपाल ले जाने के लिए एक हेलीकाप्टर तैयार खड़ा था। क्या ऐसा कोई भी नागरिक सेवा का हेलीकाप्टर है जो इतनी दूर तक जा सकता है?
शंकराचार्य जी अगर तुरंत सुनवाई की मांग करते हैं तो यह उनका अधिकार है। वे अपने वकीलों से जमानत की अपील न करने को कह सकते हैं। सच यह है कि कोई भी सुनवाई अंतत: उनके ससम्मान बरी होने के साथ ही खत्म होगी। इससे मैं अपने अंतिम बिन्दु पर पहुंचता हूं। निश्चित रूप से तमिलनाडु शासन जानता है कि शंकराचार्य के विरुद्ध अभियोग बहुत कमजोर है। तब आखिर गिरफ्तार करते समय उनके दिमाग में चल क्या रहा था?
(24.11.04)
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