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-घनश्याम देवड़ा
कन्याकुमारी से कश्मीर तक और कच्छ से कामरूप तक फैली इस भारत भूमि को हम भारत माता भी कहते हैं। यह देश साक्षात भगवती की दिव्य देह है। यही सत्य प्रतिपादित करने के लिए कुम्भ मेले आयोजित किए जाते हैं। हरिद्वार में गंगा के किनारे हर की पैड़ी पर, प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर, नासिक में गोदावरी नदी के तट पर और उज्जयिनी में क्षिप्रा नदी पर बारह वर्ष के अन्तराल पर ये मेले लगते हैं। उत्तर भारत में यही चार कुम्भ प्रसिद्ध हैं परन्तु एक सबसे पुराना और ऐतिहासिक कुम्भ धुर दक्षिण तमिनाडु का कुम्भकोणम् में भी प्रत्येक बारहवें वर्ष पर लगता है। तंजौर जिला तमिलनाडु का खलिहान कहलाता है। इसी जिले में मन्दिरों की नगरी के नाम से प्रसिद्ध कुम्भकोणम् नगर कावेरी नदी के तट पर बसा है। लेकिन कावेरी नदी में जल कम रहता है, इसलिए कुम्भ स्नान महाभावम् सरोवर में होता है। यह विशाल सरोवर लगभग 6.5 एकड़ भूमि पर फैला हुआ है। नायक राजाओं के काल सन् 1550 में इसका पुनर्निर्माण कराया गया था। तालाब के चारों ओर पक्के घाट बने हुए हैं। पिछली बार 1992 में जो कुम्भ लगा था, वह परम्परा के अनुसार 425वां कुम्भ था। इस प्रकार कुम्भ की परंपरा 425न् 12 उ 5,100 वर्ष पुरानी है।
ग्रहों के परिभ्रमण और कुम्भ पर्व
कुंभ पर्वों का सम्बन्ध तीन ग्रहों से है। सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति। सूर्य 365 दिन, 5 घण्टे और 48 मिनट में राशि चक्र की परिक्रमा करता है। इसे सौर वर्ष कहते हैं। चन्द्रमा 27 दिन 7 घण्टे और 43 मिनट में यह परिभ्रमण पूरा करता है। इसे चान्द्रमास कहते हैं। बृहस्पति इस राशि चक्र की परिक्रमा 11 वर्ष, 10 मास, 14 दिन और 20 घण्टे में करता है। इसे गुरु का वर्ष या गौरव वर्ष कहते हैं। यही गौरव वर्ष कुम्भ पर्वों का आधार है और इसी कारण ये कुम्भ पर्व 12 वर्षों के अन्तराल पर होते हैं। स्कन्द पुराण में कहा गया है:-
पृथिव्यां कुम्भ पर्वस्य, चतुर्धा भेद उच्यते।
चतु:स्थले निपतनात्, सुधा कुम्भस्य भूतले।।
विष्णु द्वारे प्रयागे च अवन्त्यां, गोदावरी तटे।
सूर्येन्दु गुरु संयोगात् तद्राशौ तत्वत्सरे।।
समुद्र मन्थन के बाद जब अमृतकुम्भ निकला तो उसको छीनने के लिए असुर दौड़े। इन्द्र का पुत्र जयन्त उस अमृत कलश को ले भागा। असुरों ने उसका पीछा किया। 12 दिन (12 मानव वर्षों) तक यह दौड़-धूप चली। इस बीच चार जगह इस कलश को आकाश मार्ग से उतरकर जयन्त ने भूमि पर रखा। जहां-जहां अमृत कलश जिस मुहुर्त में रखा गया, उन्हीं मुहूर्तों के आने पर उन स्थानों पर कुम्भ पर्व लगते हैं। ये चार योग और चार स्थान इस प्रकार हैं-
हरिद्वार में हर की पैड़ी पर
हरिद्वार, हरद्वार, गंगाद्वार, कुशावर्त नामों से प्रसिद्ध इस पावन तीर्थ नगरी में देवनदी गंगा के तट पर जहां राजा श्वेत ने तप किया था, वही ब्राह्मकुण्ड या हर की पैड़ी कहलाता है। सूर्य के मेष राशि और बृहस्पति के कुम्भ राशि में होने पर यहां पूर्ण कुम्भ योग होता है। मुख्य स्नान मेष संक्रान्ति वैशाखी का होता है। अन्य स्नान रामनवमी और चैत्र पूर्णिमा को होते हैं। पूर्ण कुम्भ के 6 वर्ष बाद अद्र्ध कुम्भ भी होता है। जिस वर्ष उज्जैन में महाकुम्भ होता है, उसी वर्ष हरिद्वार में अद्र्ध कुम्भ भी होता है।
प्रयाग में त्रिवेणी संगम पर
तीर्थराज प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर प्रतिवर्ष माघ मेला लगता है। सूर्य के मकर राशि में और बृहस्पति के वृष राशि में होने पर यहां पूर्ण कुम्भ होता है। मुख्य स्नान मकर संक्रान्ति और माघ अमावस्या को होता है। अन्य स्नान वसन्त पंचमी और माघ पूर्णिमा को होते हैं। पूर्ण कुम्भ के छ: वर्ष बाद यहां अद्र्ध कुम्भ भी लगता है।
नासिक में गोदावरी तट पर
गोदावरी को दक्षिण की गंगा कहा गया है। विंध्य पर्वतमाला के दक्षिण में पश्चिम घाट की पर्वतश्रेणी त्र्यम्बक पर्वत से इसका उद्गम होता है। भगवान् श्रीरामचन्द्र ने सीता और लक्ष्मण सहित यहीं निवास किया था। नासिक और पंचवटी एक ही नगर हैं। बीच में गोदावरी नदी बहती है। यहां सिंह के बृहस्पति और सूर्य में प्रवेश करने पर कुम्भ पर्व होता है। जिस वर्ष उज्जैन में कुम्भ होता है, उससे एक वर्ष पूर्व यहां कुम्भ पर्व होता है। यहां मुख्य स्नान भाद्रपदी अमावस्या, सिंह संक्रान्ति और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को होते हैं। कभी-कभी बृहस्पति के भ्रमण के कारण यहां कुम्भ उज्जैन के बाद भी पड़ता है। वस्तुत: यहां के कुम्भ को ही मूल रूप से सिंहस्थ कहा जाता है। बृहस्पति के सिंह राशि में प्रवेश से कन्या राशि के प्रवेश तक यह सिंहस्थ चलता है।
उज्जयिनी में क्षिप्रा के तट पर
संवत् प्रवर्तक सम्राट विक्रमादित्य की इतिहासप्रसिद्ध राजधानी उज्जयिनी अवन्तिका में सिंह राशि में बृहस्पति और मेष राशि में सूर्य के संयोग पर पूर्ण कुम्भ होता है। सिंह राशि में बृहस्पति के कारण यहां भी कुम्भ को सिंहस्थ कहते हैं।
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