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-सूर्यकान्त बाली
भले ही आजकल कथावाचकों की वाणी सुनने के लिए हजारों की भीड़ जमा होती हो और भले ही तीर्थ-यात्राओं और विशिष्ट पीठों-मंदिरों की यात्राओं के लिए लाखों लोग उमड़ पड़ते हों और भले ही कैलास मानसरोवर जैसी दुरूह यात्राओं में भी उम्र और सेहत का ख्याल न रखते हुए लोगों का उत्साह देखते ही बनता हो, लेकिन इनमें से किसी भी उत्साह या भीड़ की तुलना किसी भी कुम्भ के अवसर से नहीं की जा सकती जहां उमड़ने वालों की संख्या अब करोड़ों में पहुंचने लगी है और जहां पहुंचने वालों का उत्साह स्वास्थ्य और आयु की सीमाओं की कतई परवाह नहीं करता। इसके बावजूद यह एक अजीब ही हैरानी की बात है कि कुम्भ के बारे में ज्योतिष के विद्वानों का ज्ञान बेशक असीम और प्रामाणिक होता होगा, किन्तु हम जैसे आम श्रद्धालुओं और तीर्थ-यात्रियों का ज्ञान कुम्भ के प्रति सीमित और अप्रामाणिक बना हुआ है। यह हमारे भारत नामक देश में ही संभव है जहां पर जानने वालों ने न जानने वालों को यह बताने का कोई प्रयास ही नहीं किया कि कुंभ नामक महापर्व क्या है, क्यों होता है और वहां क्यों जाना चाहिए?
कुंभ क्या है? इस प्रश्न का प्रमाणिक उत्तर देना खतरे से खाली नहीं। कुंभ देश में चार स्थानों पर आयोजित होते हैं- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक। इनमें प्रत्येक स्थान पर कुंभ का महापर्व बृहस्पति की विशिष्ट नक्षत्रीय परिस्थिति के परिणामस्वरूप आयोजित होता है। जब बृहस्पति कुंभ राशि में हो तो हरिद्वार में, वृष राशि में हो तो प्रयाग में, सिंह राशि में हो तो उज्जैन में (जैसा कि इस समय चल रहा है) और वृश्चिक राशि में हो तो नासिक में कुंभ महापर्व का आयोजन होता है। परन्तु इस नक्षत्रीय परिस्थिति के आधार पर यह मालूम नहीं पड़ता कि इसे कुंभ क्यों कहा जाता है। इसके दो-दो संभावित उत्तर हो सकते थे। एक उत्तर तब वैध माना जाता जब कुंभ महापर्व केवल उन्हीं अवसरों पर आयोजित होता जब बृहस्पति कुंभ राशि में आते। यहां पर चलते-चलते यह जान लेना बहुत जरूरी है कि बृहस्पति एक राशि में लगभग एक वर्ष रहते हैं और चूंकि राशियां बारह हैं, इसलिए प्रत्येक राशि में उनका अगला आगमन 12 वर्ष बाद ही होता है। चूंकि कुंभ में बृहस्पति का आगमन बारह वर्ष में एक बार होता है, इसलिए कुंभ महापर्व का आयोजन एक तीर्थ पर बारह वर्ष बाद होने के कारण तीन-तीन वर्ष बाद चार तीर्थों में होता रहता है। और कुंभ का आयोजन हर तीन वर्ष बाद होता है, इसलिए हम यह तर्क भी नहीं दे सकते कि इस महापर्व का नाम कुंभ इसलिए पड़ा, क्योंकि उस समय बृहस्पति कुंभ राशि में होते हैं।
कुंभ महापर्व के आयोजन के लिए बृहस्पति का किसी राशि विशेष में होना ही पर्याप्त नहीं है, उस समय सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति तीनों मिलकर एक विशेष नक्षत्रीय परिस्थिति में स्थापित होने चाहिए। ऐसे में यदि प्रत्येक महाकुंभ के समय सूर्य का कुंभ राशि में होना तय होता तो भी हमें इस आधार पर कुंभ नाम देना सकारण मालूम पड़ता, क्योंकि सूर्य सौरमंडल के अधिपति हैं। परंतु ऐसा भी नहीं है। हर महाकुंभ के समय सूर्य कुंभ राशि में हो ऐसा नहीं है, बल्कि वे चारों महाकुंभ पर्वों में किसी भी समय कुंभ राशि में नहीं होते। उदाहरण के लिए वर्तमान में चल रहे उज्जैन के कुंभ महापर्व में जबकि बृहस्पति सिंह राशि में (यानी सिंहस्थ) है तो सूर्य मेष राशि में विचरण करते नजर आएंगे। इसी प्रकार हरिद्वार महाकुंभ के समय भी सूर्य मेष राशि में होते हैं, जबकि प्रयाग महाकुंभ के समय मकर राशि में और नासिक महाकुंभ के समय वे सिंह राशि में होते हैं।
यानी कुंभ महापर्व का नाम कुंभ क्यों है? यह हमें स्पष्ट नहीं होता। इसी प्रकार यह भी स्पष्ट नहीं होता कि केवल बृहस्पति के किसी राशि विशेष में आने के समय ही कुंभ महापर्व क्यों होता है? कुल मिलाकर ग्रहों की संख्या नौ (नवग्रह) है- सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु। इनमें से कुंभ महापर्व का सम्बंध बृहस्पति के साथ ही क्यों जुड़ा? इसका कोई समझ में आने वाला उत्तर जनता को दिया जाना अभी शेष है। एक जिज्ञासा यह हो सकती है कि अगर इन नौ ग्रहों में से किसी एक ग्रह के साथ इतने बड़े महापर्व का सम्बंध जोड़ना ही था तो वह ग्रह सूर्य ही हो सकता था, क्योंकि सूर्य सौरमंडल के अध्यक्ष हैं, जबकि बृहस्पति मात्र उसके एक सदस्य। इस जिज्ञासा की कुछ शांति इस बात से हो सकती है कि यद्यपि बृहस्पति सौरमंडल के अध्यक्ष नहीं हैं, सूर्य ही अध्यक्ष हैं और बृहस्पति शेष आठ ग्रहों की तरह सौरमंडल के एक सदस्य मात्र हैं, फिर भी चूंकि बृहस्पति सूर्य समेत सभी देवताओं के गुरु (देवगुरु) माने गए हैं, इसलिए इतने बड़े पर्व को देवगुरु से जोड़ना तर्कपूर्ण नजर आता है। सिर्फ देवगुरु ही नहीं, बृहस्पति आकार की दृष्टि से भी विशालतम ग्रह माने जाते हैं। इसीलिए उनको बृहस्पति (वृहत््अपति) कहा गया है। इसके अतिरिक्त बृहस्पति के पक्ष में एक तर्क यह भी है कि जहां सूर्य सबसे अधिक प्रकाशमान ग्रह माने गए हैं जिनकी सात रश्मियां मानी गई हैं और उनको सप्तरश्मि कहा गया है, वहां बृहस्पति की रश्मियां आठ हैं और उनको अष्टरश्मि या फिर सूर्य के सप्ताश्व के समक्ष अष्टाश्व कहा गया है। इस तर्क के आधार पर भी बृहस्पति के साथ देश के सबसे बड़े पर्व का सम्बंध जोड़ना तर्कपूर्ण और सकारण माना जा सकता है। परन्तु यह भी स्पष्ट है कि हमारे द्वारा दिए गए ये आधार बृहस्पति के साथ महापर्व कुम्भ को जोड़ने को एक सीमा तक ही वैध साबित कर सकते हैं और देश के महान ज्योतिर्विदों का यह दायित्व है कि वे जनसामान्य की इस जिज्ञासा को शांत करें कि आखिर क्यों नवग्रहों में से केवल एक ग्रह बृहस्पति के साथ ही इतने बड़े महापर्व का सम्बंध जोड़ा गया।
अभी हमने कहा कि जब-जब बृहस्पति कुम्भ, वृष, सिंह और वृश्चिक राशि में भ्रमण कर रहे होते हैं तब-तब महाकुम्भ पर्व का आयोजन क्रमश: हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में होता है। परन्तु यहां भी जनसामान्य के मस्तिष्क को एक प्रश्न आंदोलित करता रहता है और वह प्रश्न यह है कि जब राशियां बारह हैं और बृहस्पति प्रत्येक राशि में एक-एक वर्ष भ्रमण करते हैं तो क्या कारण है कि महापर्व कुंभ का आयोजन केवल तभी होता है जब बृहस्पति कुम्भ, वृष और वृश्चिक राशि में ही भ्रमण कर रहे होते हैं? हम ज्योतिर्विदों के इस तर्क से शत-प्रतिशत सहमत हैं कि ये चारों राशियां एक दूसरे से चौथे स्थान पर हैं। अर्थात् कुम्भ से चौथे स्थान पर वृष, वृष से चौथे स्थान पर सिंह, सिंह से चौथे स्थान पर वृश्चिक और वृश्चिक से चौथे स्थान पर कुम्भ- इस प्रकार ये राशियां एक-दूसरे के संदर्भ में स्थापित हैं। परन्तु इस जानकारी के बावजूद यह जिज्ञासा शांत नहीं होती कि इन चार राशियों के अतिरिक्त शेष आठ राशियों को अर्थात् मेष, मिथुन, कर्क, कन्या, तुला, धनु, मकर और मीन राशियों को कुम्भ महापर्व के योग्य क्यों नहीं माना गया? जबकि देवगुरु बृहस्पति इस सभी राशियों में भी एक-एक साल भ्रमण करते हैं।
महापर्व कुम्भ के संदर्भ में हम सभी जानते हैं कि इनका आयोजन क्रमश: हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक-इन चार तीर्थों में किया जाता है, इसमें सन्देह नहीं कि ये चारों देश के बड़े तीर्थ हैं और इनमें से प्रयाग को तीर्थराज ही कहा गया है। इसलिए इन चार स्थानों पर कुम्भ महापर्व का आयोजन उचित है। किन्तु यह भी उतना ही ठीक है कि भारत में केवल ये चार तीर्थ ही नहीं हैं, अन्य अनेक तीर्थ और महातीर्थ इस देश के पूरे भूगोल में अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठित हैं। केवल भारत ही क्यों, सम्पूर्ण उस क्षेत्र में जिसे भारतवर्ष कहा जाता है और जिसमें नेपाल, भूटान, बंगलादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान और अफगानिस्तान भी शामिल हैं, इस सम्पूर्ण विराट भौगोलिक क्षेत्र में अनेक तीर्थ और अनेक महातीर्थ हैं, फिर क्यों देश के सबसे बड़े पर्व यानी कुम्भ महापर्व का आयोजन, जिसमें जल में डुबकी लगाने वालों की संख्या करोड़ों में पहुंच जाती हैं, केवल इन्हीं चार तीर्थ स्थानों पर सीमित कर दिया गया है? इसी के साथ-साथ जनसामान्य की जिज्ञासा कई बार इस प्रश्न के रूप में भी प्रकट होती है कि क्यों केवल सिंहस्थ बृहस्पति ही उज्जैन में, कुंभस्थ बृहस्पति हरिद्वार में, वृषस्थ बृहस्पति प्रयागराज में और वृश्चिकस्थ बृहस्पति नासिक में कुम्भ महापर्व का प्रतीक बना दिए गए हैं? क्यों नहीं सिंहस्थ का आयोजन उज्जैन के अलावा अन्य तीन तीर्थों में अथवा कुंभस्थ का आयोजन हरिद्वार के अलावा अन्य स्थानों पर किया जाता। हमारा यह परम विश्वास है कि देश में इस तरह की परम्पराएं बिना किसी विशिष्ट तर्क और कारण के स्थापित नहीं की गई थीं। उदाहरणार्थ जब शंकराचार्य ने रामेश्वरम्, पुरी, द्वारिका और हिमाचल में चार धामों की स्थापना की तो उनके महादार्शनिक मस्तिष्क में भी एक राष्ट्रभक्त भारतवासी का ह्मदय हिलोरें ले रहा था जिसमें यह आकांक्षा बलवती थी कि देश की राजनीतिक एकता इस देश के धार्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व की नींव पर ही कायम हो सकती है। ऐसे में यह मानना संभव ही नहीं कि केवल इन्हीं चार तीर्थ स्थानों पर कुम्भ महापर्वों के आयोजन को सीमित कर दिया जाना बिना किसी विशिष्ट कारण के और अपने आप ही हो गया होगा। परन्तु यह भी उतना ही ठीक है जो करोड़ों आबाल, वृद्ध नर-नारी कुम्भ महापर्व में स्नान करने के लिए जाते हैं, उनको यदि यह भी मालूम हो कि केवल उसी स्थान पर क्यों जा रहे हैं, तो निश्चित ही उनकी श्रद्धा की परिधि असीम और गहरी हो जाएगी।
इसी प्रकार का एक संदेह अद्र्धकुम्भ के बारे में है। जहां कुम्भ महापर्व पर स्नान करने वालों की संख्या करोड़ों तक पहुंच जाती हैं, वहीं अद्र्धकुम्भ में यह संख्या लाखों तक पहुंच जाना बहुत ही सामान्य होता जा रहा है। प्रश्न है कि अद्र्धकुम्भ क्या है? अर्ध यानी आधा। अर्थात् जब महाकुम्भ पर्व के आयोजन का आधा समय बीत गया हो और आगामी आयोजन का बाकी आधा समय रह गया हो तो उस अवस्था में अद्र्धकुम्भ होता है। कुम्भ महापर्व बारह वर्ष बाद होता है। चूंकि यह चार तीर्थ स्थानों पर होता है और प्रत्येक की बारी बारह साल बाद आती है, इसलिए हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में होने वाले कुम्भ तीन-तीन साल बाद होते रहते हैं। इसलिए इन सभी तीर्थ स्थानों पर अद्र्धकुम्भ भी होते रहने चाहिए। परंतु जनसामान्य के लिए यह एक रहस्य बना हुआ है कि अद्र्धकुम्भ का आयोजन केवल हरिद्वार और प्रयाग में ही क्यों होता है? उज्जैन और नासिक में क्यों नहीं होता? आजकल उज्जैन में सिंहस्थ कुम्भ चल रहा है, जबकि हरिद्वार में अद्र्धकुम्भ का आयोजन जारी है। इसका अर्थ यह हुआ कि हरिद्वार में छह साल पहले कुम्भ महापर्व हुआ था और अगला कुंभ महापर्व छह साल बाद होगा। जैसा कि हरिद्वार में अद्र्धकुम्भ हो रहा है, और जैसा अद्र्धकुम्भ प्रयाग में भी होता है, वैसा अद्र्धकुम्भ स्वाभाविक रूप से नासिक और उज्जैन में भी होना चाहिए। फिर क्यों नहीं होता? इस प्रश्न का उत्तर अगर जन सामान्य के ह्मदय में स्पष्ट हो तो क्या अद्र्धकुम्भ और महाकुम्भ में उसकी भागीदारी और अधिक सार्थक नहीं हो जाएगी? अगर निश्चित ही हो जाएगी तो क्या देश के विद्वानों का यह राष्ट्रीय दायित्व नहीं है कि वे इस दिशा में शीघ्र ही और बढ़-चढ़कर सामने आएं?
इन तमाम प्रश्नों और जिज्ञासाओं के समाधान जनसामान्य के ह्मदय में अभी तक स्थापित नहीं किए जा सके हैं। इनके समाधान नहीं हैं, ऐसा मानने को हम सहसा तैयार नहीं हो सकते, क्योंकि हमारे देश की कोई भी सामाजिक, दार्शनिक और धार्मिक परम्परा बिना किसी तर्क अथवा कारण के ऐसे ही नहीं विकसित हो गई। दीपावली, रक्षाबंधन, करवाचौथ जैसे सामाजिक पर्व हों अथवा वसंत पंचमी, शरद पूर्णिमा अथवा होली जैसे ऋतु पर्व हों या फिर श्राद्ध जैसे कर्मकाण्ड हों, इनमें से प्रत्येक के पीछे ठोस आधार हैं, ठोस कारण हैं और ठोस तर्क हैं। इसलिए सिंहस्थ महाकुम्भ के समय उज्जैन में स्नान करते हुए जो प्रश्न और जिज्ञासाएं हमारे मन में उठती हैं, उन सभी का निश्चित समाधान इस देश के पास है। कमी सिर्फ इतनी है कि जिनको ये समाधान पता हैं, उन्होंने वे समाधान और उत्तर जनसामान्य तक भली-भांति पहुंचाने का काम अभी नहीं किया है। उन समाधानों और तर्कों के न पहुंचने की स्थिति में लोग अमृत मंथन के समय की पौराणिक गाथाओं के आधार पर ही इन सभी प्रश्नों के समाधान ढूंढकर अपने आप को संतुष्ट कर लेते हैं और पूरी श्रद्धा से त्रिवेणी, गंगा, क्षिप्रा तथा गोदावरी में स्नान करके अपने आपको धन्य मान लेते हैं। पौराणिक गाथा के अनुसार समुद्र मंथन के दौर में जब समुद्र में से अमृतकुंभ निकलकर बाहर आया तो असुर अमृतकुम्भ को झपटने के लिए दौड़ पड़े। कहीं अमृत असुरों के हाथ न लग जाए और वे अजर-अमर होकर इस पृथ्वी को अपने घनघोर अत्याचारों से आतंकित न कर दें, इसी आशंका को निर्मूल करने के लिए देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत अमृत कुम्भ को लेकर वहां से अलकापुरी की ओर भागे। जयंत के इस लक्ष्य की प्राप्ति में सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति ने विशेष सहायता प्रदान की। इसी का परिणाम था कि अमृत कुंभ असुरों के हाथ नहीं लगा और वह देवलोक पहुंचा दिया गया। समुद्र से देवलोक तक की यात्रा के दौरान उस कुम्भ में से छलककर अमृत की कुछ बूंदें जिन स्थानों पर गिरीं उन स्थानों के नाम हैं- नासिक, उज्जैन, प्रयाग और हरद्वार। चूंकि यहां अमृत की बूंदें गिरीं, इसलिए ये चार महातीर्थ मान लिए गए। चूंकि सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति ने अमृत को देवलोक पहुंचाने में विशिष्ट सहायता प्रदान की, इसलिए इन तीनों ग्रहों की विशिष्ट आकाशीय परिस्थिति में कुम्भ महापर्व का आयोजन होता है। चूंकि अमृत जिस पात्र में था, वह कुम्भ, अर्थात् घड़ा था, इसलिए इस पर्व का नाम कुम्भ हो गया। चूंकि इस सम्पूर्ण प्रसंग में देवगुरु बृहस्पति अपने गुरु होने के आडम्बर से मुक्त होकर एक बड़े लक्ष्य में जयंत की सहायता को तत्पर हो गए, इसलिए बृहस्पति के साथ इस कुंभ महापर्व का सम्बंध विशेष रूप से जुड़ गया। इस प्रकार कुंभ नामकरण, बृहस्पति के साथ इसका विशेष सम्बंध, चार तीर्थों का अतिविशिष्ट महत्व और सूर्य” चन्द्र और बृहस्पति की विशेष नक्षत्रीय परिस्थिति- इन चार प्रश्नों के समाधान इस पौराणिक गाथा में प्राप्त हो जाते हैं।
इसके अतिरिक्त पुराणों में एक गाथा और भी है। कश्यप ऋषि की (जिन्होंने कश्मीर को कश्यपपुर नाम से बसाया था) दो पत्नियां थीं- कद्रू और विनता। दोनों में एक बार विवाद हो गया कि सूर्य के घोड़ों के बालों का रंग काला है या सफेद। कद्रू ने कहा कि यह रंग काला है, जबकि विनता अड़ गई कि नहीं, सफेद है। शर्त लगाई कि जिसका पक्ष गलत होगा उसे दूसरी की दासी बनना पड़ेगा। जब यह शर्त कद्रू के पुत्रों को, जो सांप थे और काफी बड़ी संख्या में थे, मालूम पड़ी तो वे सभी सूर्य के घोड़ों से जाकर लिपट गए और इस तरह उन्होंने अपनी मां को शर्त में जितवा दिया और विनता को कद्रू की दासी बनना पड़ा। विनता की एक ही सन्तान थी, जिसक नाम था वैनतेय, जिसे हम गरुड़ के नाम से जानते हैं। जब वैनतेय गरुड़ को मालूम पड़ा कि उनकी मां को धोखे से हराया गया और दासी बनाया गया तो उन्होंने अपनी मां को दासी के तिरस्कार से बाहर निकालने का प्रण ठान लिया। उनके प्रण की पूर्ति के लिए यह शर्त लगाई गई कि वे समुद्र में से अमृतकंुभ लाकर देवलोक पहुंचाएंगे। गरुड़ ने वैसा करना स्वीकार किया और वे अमृतकंुभ उठाकर दक्षिण से उत्तर की ओर अलकापुरी जाने को तैयार हुए। रास्ते में थकान के मारे उन्होंने कुछ स्थानों पर विश्राम किया और अमृत कुंभ को पृथ्वी पर रखा। नासिक, उज्जैन, प्रयाग और हरिद्वार ये वे चार स्थान हैं, जहां गरुड़ ने थोड़ा सुस्ताने के लिए कुंभ रखा। इस गाथा के अनुसार तभी से ये चार तीर्थ स्थान कुंभ महापर्व के केन्द्रों के रूप में स्थापित हो गए। स्पष्ट है कि कुंभ जैसे महापर्व का प्रारंभ ये कहानियां सुनकर नहीं हुआ होगा। वैसे भी कहानियों के आधार पर घटनाएं घटित नहीं हुआ करतीं, अपितु घटित हो चुकी घटनाओं को ही सदा सर्वदा के लिए स्मृति में उतार देने के लिए गाथाओं की रचना की जाती है। पुराणों की रचना महाभारत के बाद मानी जाती है और उनमें भी गाथाओं का समावेश काफी बाद तक किया जाता रहा। महाभारत काल से पूर्व ही इस देश में कुम्भ महापर्व प्रचलित हो चुका था। निश्चित ही तब भारतवासियों के पास उन प्रश्नों और जिज्ञासाओं के समाधान थे, जिन प्रश्नों और जिज्ञासाओं के समाधान हमने देश के विद्वानों से प्राप्त करने की इच्छा ऊपर व्यक्त की है। परन्तु कहीं कालयात्रा के अनन्त प्रवाह में जनसामान्य के मस्तिष्क में तर्कों और कारणों को विस्थापित न कर दिया जाए, हो सकता है कि इसी आशंका को निर्मूल करने के लिए पुराणकारों ने कुंभ महापर्व का सम्बंध कुछ गाथाओं से जोड़ दिया, क्योंकि गाथाएं राष्ट्रीय स्मृतियों में जाकर अपना स्थान बना लेती हैं और वह स्थान ऐसा है जो काल के क्रूर थपेड़े खाकर भी प्राय: अक्षुण्ण बना रहता है। शायद यही कारण है कि आज हम ऊपर उद्धृत कुछ प्रश्नों और जिज्ञासाओं के समाधान फिर से ढूंढने के प्रयास में हैं, परन्तु उनसे जुड़ी गाथाएं हमारी स्मृतियों में आज भी सुरक्षित हैं। यानी पुराणकारों ने जो सोचकर गाथाओं की परम्परा प्रवाहित की, वे अपने लक्ष्य में आशातीत रूप से सफल हुए हैं। परन्तु यदि देश के उद्भट कालविज्ञानी और अंतरिक्ष-विज्ञानी इन पौराणिक गाथाओं के साथ ठोस कारणों और समाधानों के आधार पर भी उपर्युक्त जिज्ञासाओं को शांत कर देंगे तो निश्चित ही वे अपने राष्ट्रीय दायित्व को उसी गंभीरता से पूरा कर रहे होंगे, जिस राष्ट्रीय दायित्व की पूर्ति आज से हजारों वर्ष पूर्व पुराणकारों ने गाथाओं की रचना के माध्यम से सफलतापूर्वक की थी।
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