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-तृप्ति विजय तिवारी
कलि: शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन्।।
चरैवेति। चरैवेति।।
ऐतरेय ब्राह्मण के इस श्लोक का अर्थ है- जो सो रहा है वह कलि है, निद्रा से उठ बैठने वाला द्वापर है, उठकर खड़ा हो जाने वाला त्रेता है लेकिन जो चल पड़ता है, वह कृतयुग, सतयुग और स्वर्णयुग बन जाता है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो। सिंहस्थ जैसे विराट महापर्व समय की पगडंडी पर हमें सदियों से निरंतर यही संदेश देते आए हैं कि चलते रहो। चलना और चलते रहना ही जीवन का लक्षण है। भारतीय ऋषि परम्परा में संकेतों और प्रतीकों के अध्ययन से जीवन के अनेक उपयोगी निष्कर्ष स्पष्ट किए गए हैं। सिंहस्थ उज्जैन में हो या कुम्भ प्रयाग में, भारत के भूगोल में ऐसे अनगिनत संकेत और प्रतीक बिखरे हुए हैं, जो हमें सीधे-सीधे जीवन से जोड़ते हैं और समाज में एक ऐसी चेतना जगाते हैं, जिससे ऊर्जा पाकर हम आंतरिक और बाह्र विकास के मार्ग पर अग्रसर हो जाते हैं, कूच कर जाते हैं।
यह कितने आश्चर्य और विस्मय का विषय है कि हजारों वर्ष पहले भविष्यदृष्टा विभूतियों ने सिंहस्थ जैसे महापर्वों का सूत्रपात किया। उन्होंने रहस्यमय अंतरिक्ष के नक्षत्रों की स्थियां और असीम विस्तार वाली पृथ्वी पर स्थान विशेष की भौगोलिक और आध्यात्मिक महत्ता का पता कैसे किया होगा? और ये अनुसंधान उस समय हुए जब वर्तमान विज्ञान का जन्म तक नहीं हुआ था। जब इतिहास के झरोखे से इन परम्पराओं के आरम्भ के प्रश्नों का उत्तर खोजने जाते हैं तो केवल अनुमान हाथ लगते हैं। इतिहास केवल संभावनाओं के आधार पर कुछ अनुमान सामने रख थककर बैठा मालूम पड़ता है।
विक्रमादित्य और कालिदास की नगरी उज्जयिनी में क्षिप्रा के तट पर एक बार पुन: सिंहस्थ की बेला है। एक माह के इस विराट जन-समागम के दौरान ही विश्व के सबसे विराट लोकतंत्र भारत में चुनाव रूपी महापर्व भी है। सिंहस्थ जैसे आयोजन अगर जीवन में आगे बढ़ने और चलते रहने का पाठ पढ़ाते हैं तो कहीं यह सीख भी देते हैं कि पल भर ठहरकर हम अवोकन कर लें, अपनी दिशाएं स्पष्ट कर लें और पीछे जो भूलें हुई हैं, उन्हें ठीक करते हुए आगे बढ़ चलें। सिंहस्थ विचार मंथन का अवसर है। यह केवल धार्मिक आस्था या विश्वास का उत्सव नहीं है। यह एक ऐसी घड़ी है, जो बारह वर्ष के अंतराल से आती है और एक नए युग के द्वार पर हमें छोड़ जाती है। यही वह घड़ी है जो सोने वालों को जगाने, जागे हुओं को उठ खड़े होने और जो उठ गए हैं, उन्हें चल पड़ने की सीख देती है।
इस बार सिंहस्थ की बेला ऐसे समय आई है जब स्वतंत्र भारत में पहली बार कुछ सकारात्मक चिंतन का वातावरण बना है। सैकड़ों वर्षों की दासता और 56 साल की स्वतंत्रता में पहली बार भारत उदय और सुखद अहसास का उद्घोष हुआ है। यह केवल राजनीतिक नारेबाजी नहीं है। आज जब विश्व के तमाम प्रबंधन विशेषज्ञ अपने सफलता के सूत्रों में सकारात्मक चिंतन की बात कर रहे हैं और “जीत आपकी” के निष्कर्ष दे रहे हैं तो यही सिद्धांत और सूत्र किसी समाज या राष्ट्र पर भी लागू होते हैं कि वह अपनी प्रगति, अपनी विजय और अपने उदय के लिए सकारात्मक चिंतन करे। आप आत्मविश्वासी हों, दृढ़ निश्चयी हों, पूरे मनोयोग से अपने कर्म में जुटें, अपने लक्ष्य स्पष्ट रखें और अपनी विजय के प्रति विश्वस्त हों, प्रसन्न रहें। इन प्रेरणाओं से कौन असहमत होगा? अब कोई कारण नहीं है कि भारत के सौ करोड़ लोग निराशा के भाव में जीने को विवश हों और कोई कारण नजर नहीं आता कि भारत उदय न हो! यह तो ऋषियों का आशीर्वाद है, जो हजारों वर्ष पूर्व उन्होंने अपनी आध्यात्मिक विरासत के रूप में हमें सौंपा।
अगर महेन्द्र और संघमित्रा, तथागत की करुणा और प्रेम लेकर श्रीलंका जाते हैं तो क्या वे उदय की ही बात नहीं करते? जब स्वामी विवेकानंद सात समंदर पार जाकर भारत की आध्यात्मिक ऊर्जा फैलाते हैं तो क्या वह वैभव के शिखर पर पहुंचने की उत्कंठा का असर नहीं है और गुलामी के काले, अंधेरे दिनों में विवेकानंद जैसी विभूतियों का अवतरित होना क्या यह नहीं बताता कि भारत में उदय होने की प्राणशक्ति उपस्थित है? सिंहस्थ उदय का उत्सव है, जो यह स्मरण कराने आता है कि उठो, जागो और चल पड़ो, तुम्हारी विजय सुनिश्चित है।
उज्जैन पुराण-प्रसिद्ध नगर है। स्कंद पुराण और विष्णु पुराण में इस प्राचीन नगरी और सिंहस्थ के वर्णन अनेक स्थानों पर मिलते हैं। विष्णु पुराण सिंहस्थ स्नान के लिए कुछ अनिवार्यताओं का उल्लेख करता है- वैशाख मास हो, शुक्ल पक्ष हो, पूर्णिमा की तिथि हो, मेष राशि में सूर्य हो, सिंह राशि में बृहस्पति हो, तुला राशि में चंद्र हो, स्वाति नक्षत्र हो, व्यातिपात योग हो, सोमवार हो और स्थान उज्जयिनी हो। पुराणों से भी पहले उज्जैन भगवान श्रीकृष्ण की अध्ययन स्थली रही है। यानी भारतीय संस्कृति के महानायक योगीराज कृष्ण ने यही सांदीपनि आश्रम में शिक्षा ग्रहण की। 84 शिवलिंगों, 64 योगिनियों, 8 भैरवों और 6 विनायकों का विस्तृत विवरण भी पुराण हमें देते हैं। इससे इस शहर की पवित्रता का महत्व रेखांकित होता है। भारतीय इतिहास के एक और नायक मगध नरेश सम्राट अशोक ने भी प्रशासन की बारीकियां यहीं सीखीं उस समय जब वे अपने पिता सम्राट बिंदुसार के समय यहां के राज्यपाल रहे थे। फिर विक्रमादित्य और कालिदास ने उज्जयिनी के इतिहास में कई स्वर्णपृष्ठ जोड़े। उज्जैन जैसे स्थान भारत की उस प्रचंड शक्ति के प्रतीक हैं, जिसने गुलामी के लंबे दौर के बावजूद यहां की परम्पराओं को जीवित रखा है। विश्व के वर्तमान मानचित्र पर आज के अनेक विकसित और विकासशील राष्ट्रों का जब नामोनिशान भी नहीं था और आज के अनेक मत-पंथों और उनके सूत्रधारों को पैदा होने में भी जब कई सदियां शेष थीं, तब भी भारत का जगमगाता हुआ अस्तित्व था। उज्जैन जैसे नगर और सिंहस्थ जैसे पर्व साक्षात् प्रमाण हैं।
विक्रमादित्य के बाद महाप्रतापी राजा भोज ने भी उज्जैन के वैभव को बढ़ाया। परमारवंश के इस विद्वान राजा ने अपनी राजधानी धार की भांति उज्जैन में भी संस्कृत विद्यापीठ का निर्माण कराया था। इसे सरस्वती-कंठाभरण कहा जाता था। क्षिप्रा नदी के पूर्वी तट पर भोज की इस रचना के अवशेष अब भी देखे जा सकते हैं। लेकिन इस पर समय के निष्ठुर प्रहारों के भीषण चिन्ह भी हैं, क्योंकि भोज की इस विद्यापीठ को मालवा के पहले मुस्लिम सुल्तान दिलावर खां गौरी ने ध्वस्त कर दिया था। शिप्रा के शांत तट पर आज यह इमारत बिना नींव की मस्जिद के रूप में खड़ी है। इसके पहले 1235 में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने उज्जैन के महाकाल मंदिर की प्रतिष्ठा को खंडित कर दिया था। लेकिन समय के अनुकूल और प्रतिकूल प्रवाहों में समाधान देने वाली बात यही है कि उज्जैन में महाकाल की पूजा-अर्चना दिन-रात अब भी होती है, भारत के मानचित्र पर उज्जैन की प्रतिष्ठा अब भी है और महाकाल की ओर आंख तिरछी करने वाले इतिहास की कब्रागाह में दफन हैं। इस दृष्टि से देखें तो सिंहस्थ हमें संगठित होने का सबक भी सिखाता है, क्योंकि असंगठित और बिखराव के दुष्परिणाम हमनें हजार साल तक भोगे हैं।
आज देश में एक और परिवर्तन हो रहा दिखाई दे रहा है। वह यह कि अन्य मान्यताओं वाले समुदायों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ा जा रहा है। सिंहस्थ की शुभ घड़ी में हिन्दू समाज के ये प्रयास इस बात की तरफ संकेत करते हैं कि हमारी संस्कृति “बीती ताहि बिसारिए” में विश्वास रखती है ताकि आगे की सुध ली जा सके। हम वर्तमान में विश्वास रखते हैं ताकि भविष्य की मजबूत बुनियाद खड़ी कर सकें, अलगाव में हमारी आस्था नहीं है। हम केवल अपने हित की नहीं सोचते, दूसरों के कल्याण की कामना भी करते हैं। यही उचित अवसर है जब हम अपनी सनातन संस्कृति की अमृतधारा से टूटकर अलग हुए समुदायों को निकट लाएं और हमारे ये प्रयास तब तक जारी रहें जब तक कि हम उन्हें उसी अमृतधारा से नहीं जोड़ लेते। राष्ट्रहित में यह सरकार ही नहीं, समूचे देश की प्राथमिकता होनी चाहिए कि आपसी संबंधों के बीच छाई भ्रम की धुंध छटे और प्रकाश की नई किरणें फूटें। निश्चित ही यह कार्य चुनौतीपूर्ण है, लेकिन हमें यह चुनौती न केवल स्वीकार करनी होगी बल्कि सफलतापूर्वक इसके पार भी जाना होगा। सिंहस्थ साक्षी होगा, हमारे उन पुनीत प्रयासों का। यह नई सदी का पहला सिंहस्थ है। 32 वर्ष के अंतराल के बाद पुन: सिंहस्थ के योग आएंगे। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि भारत की सनातन संस्कृति से पृथक हुए समुदायों को भी कभी सिंहस्थ में सहभागी बनाया जा सके? क्या यह संभव नहीं है कि क्षिप्रा के एक घाट पर हिन्दू डुबकी लगाएं और दूसरे घाट पर मुस्लिम? अगर राष्ट्र सर्वोपरि है तो संस्कृति की धारा में हमें एक साथ चलना होगा और वही सच्चे अर्थों में एकता होगी। पंथनिरपेक्षता का भी तभी कोई अर्थ होगा। जब तक मजहबी मान्यताएं राष्ट्र की मूल सांस्कृतिक धारा के साथ जुड़ना नहीं सिखातीं तब तक यह चुनौती शेष है। इसलिए सिंहस्थ जैसे समागम एक प्रकार से बार-बार आते आमंत्रण हैं, जो समस्त समुदायों को बिना किसी भेदभाव के एक जगह एकत्र होने का अवसर देते हैं।
भारत में नदियों का अपना ही महात्म्य है। सिंधु, गंगा, यमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, ताप्ती, वेगवती और क्षिप्रा अनेक लोकपर्वों और स्थानीय रीति-रिवाजों की अनादिकाल से साक्षी रही हैं। बड़ी-बड़ी नगरीय सभ्यताओं का आरम्भ और विकास इन्हीं नदियों ने तटों पर होता आया है। इन्हीं नदियों ने सभ्यताओं को जीवन दिया है। शायद इसीलिए जीवनदायिनी पवित्र नदियों को मातृतुल्य कहा गया, मां की संज्ञा से विभूषित किया गया। प्रकृति के प्रति इतना अगाध आदर संभवत: विश्व में और कहीं नहीं देखने में आता है, जहां नदियों और पहाड़ों के साथ वृक्षों और वनस्पतियों की पूजा के विधान तय किए गए हों। लेकिन जनसंख्या के असीमित विस्तार में नष्ट होती प्रकृति, सूखती और दूषित होती नदियों की पुकार भी हमें सिंहस्थ के बहाने सुननी चाहिए। केवल स्नान का पुण्य कमाना ही पर्याप्त नहीं है। प्रकृति को उसका सौंदर्य लौटाने और उसकी नैसर्गिकता की रक्षा का दायित्व भी हमारा है। अगर हम यह नहीं कर पाते हैं तो सिंहस्थ जैसे पर्व एक लकीर से अधिक कुछ नहीं हैं, जिसके पीछे हम फकीर बने हुए हैं। इसलिए सिंहस्थ के उपलक्ष्य में ही सही, उज्जैन की क्षिप्रा के शुद्धिकरण का संकल्प भी लेना चाहिए ताकि वर्तमान परिप्रेश्य में पर्व की प्रासंगकिता सिद्ध हो सके।
चारों दिशाओं से लाखों श्रद्धालु सिंहस्थ के अवसर पर उज्जैन आएंगे। इनमें हमारी सनातन संस्कृति के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के साधु-संतों की टोलियां भी शामिल होंगी। विदेशी पर्यटक भारत में इतना विशाल जन समागम देखकर अचरज से भर जाते हैं। उन्हें विश्वास नहीं होता कि किसी के बुलाए बगैर जाने कहां-कहां से लाखों लोग मौसम और असुविधाओं का ख्याल किए बगैर प्रसन्न मन से चले आते हैं। उनका अचरज स्वाभाविक भी है। भला हर चीज को बुद्धि के तराजू पर तौलने वाले लोग ह्मदय की संवेदनाओं, आस्था और विश्वास को कैसे पढ़ पाएंगे? लेकिन अब बात बदल रही है। अब इन श्रद्धालुओं में सिर मुंडवाए अंग्रेज भी राम-राम जपते और धूनी रमाते नजर आते हैं। योग और ध्यान तनाव से भरे पश्चिम को बड़ी तेजी से भारतीय संस्कृति की मोहक झलक दिखा रहे हैं, गीता का रहस्य भी पश्चिम के अध्यात्म प्रेमी समझ रहे हैं। लेकिन इसके पहले आवश्यक यह भी है हम अपनी युवा पीढ़ी को भी इस अमृत की अनुभूति कराएं जो पश्चिम की विकृतियों के अंधानुकरण में लगी है। सिंहस्थ जैसे समागम का महत्व इस दृष्टि से भी रेखांकित होना चाहिए। यह सिंहस्थ समस्त समाज, राष्ट्र और मानव जाति के लिए शुभ का निमित्त बने, यही कामना है। हम अपने आस-पास के खतरों के प्रति सजग रहें, चुनौतियों का सामना करने में सबल हों, सोए हुओं को जगाएं, जागे हुओं को खड़ा करें और जो उठकर खड़े हो सके हैं, उन्हें अपनी शुभयात्रा का साथी बनाएं। स्वयं भी गतिमान हों और दूसरों को भी गति दें, क्योंकि यही जीवन का लक्षण है, यही ऋषियों का संदेश है और सिंहस्थ का सार भी यही है- चरैवेति, चरैवेति।
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