कलह भी, फायदे का लालच भी
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कलह भी, फायदे का लालच भी

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Oct 10, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Oct 2004 00:00:00

अमरनाथ दत्तावाम की बैसाखीलोकसभा में सरकार को समर्थन दे रहे वामदलों की सदस्य संख्यादल कुल सदस्य माकपा 43 भाकपा 10 फारवर्ड ब्लाक 3 आर.एस.पी. 3 कुल 59 कैसी विडम्बना है, माकपा ने कांग्रेसनीत केन्द्र सरकार को समर्थन के साथ ही उस पर लगाम लगाए रखने के लिए माक्र्स और लेनिन का नहीं, जवाहरलाल नेहरू का सहारा लेना तय किया है। कांग्रेस और माक्र्सवादियों में इन दिनों एक नहीं अनेक मुद्दों पर खींचतान चल रही है। दूरसंचार, नागरिक उड्डयन और बीमा क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, योजना आयोग में विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक (ए.डी.बी.) के प्रतिनिधियों की दखल आदि कुछ ज्वलंत मुद्दे इन दिनों केन्द्र सरकार के विरुद्ध वामपंथियों को आरोप लगाने के मौके दे रहे हैं। हालत यहां तक खराब हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा हाल ही में भोज बैठक के बाद भी वामदलों के तीखे बयान शांत नहीं हुए। परन्तु दूसरी ओर उनका कहना है कि वे कांग्रेसनीत केन्द्र सरकार को 5 वर्ष का कार्यकाल पूरा करते देखना चाहते हैं।कांग्रेस पर लगाम लगाए रखने की अपनी नीति के तहत माकपाई अब जवाहरलाल नेहरू द्वारा बनाई गई नीतियों का बारीकी से अध्ययन कर रहे हैं। जबकि ये वही कम्युनिस्ट हैं जिन्होंने पं.नेहरू के प्रधानमंत्रित्वकाल में उनके विरुद्ध लगातार आंदोलन चलाए रखा था।सरकार और सहयोगी दलों के बीच बेहतरतालमेल के लिए जुलाई, 2004 में बनी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) कीसमन्वय समितिश्रीमती सोनिया गांधी -अध्यक्षडा. मनमोहन सिंह (कांग्रेस)प्रणव मुखर्जी (कांग्रेस)पी. चिदम्बरम (कांग्रेस)अहमद पटेल (कांग्रेस)हरकिशन सिंह सुरजीत (माकपा)सीताराम येचुरी (माकपा)ए.बी. बद्र्धन (भाकपा)डी. राजा (भाकपा)देवब्रात विश्वास (फारवर्ड ब्लाक)अबनि राय (आर.एस.पी.)अब मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और उनकी पार्टी के सचिव अनिल विश्वास आदि माक्र्स और लेनिन नहीं, नेहरूवादी नीतियों की खाक छानने में अपना समय खपा रहे हैं। और तलाश रहे हैं कुछ ऐसे मुद्दे जिनके बहाने वे कांग्रेस पर निशाना साध सकें। खासकर आर्थिक मोर्चे पर सरकार द्वारा अपनाए जा रहे कदमों को लेकर माकपाई बहुत तीखे तेवर दिखा दे रहे हैं। अनिल विश्वास कहते हैं, “मैं ढांचागत क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता संबंधी जवाहरलाल नेहरू के भाषणों और लेखों का अध्ययन कर रहा हूं।” विश्वास और दूसरे माकपा नेता पं. नेहरू से दो तरह से लाभ उठा सकते हैं। पहला, उनके लिखे लेखों से यह बताने में मदद मिल सकेगी कि आज की कांग्रेस आत्मनिर्भरता के नेहरूवादी आदर्श से किस तरह कन्नी काट रही है। और दूसरे, यह कोशिश वाम और कांग्रेस के बीच लोकहितकारी नीतियों पर मेल-मिलाप का आधार भी उपलब्ध करा सकेगी।माक्र्सवादियों ने कांग्रेस पर दबाव बनाए रखने के साथ ही सरकार से समर्थन वापस न लेने की नीति अपनाई हुई है। ज्योति बसु का कहना है, “केन्द्र में कांग्रेसनीत सरकार से समर्थन वापस लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इसके बजाय हम उन पर न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर चलने का दबाव बनाए रखेंगे।” अत: माकपा नेताओं के हाल के तीखे बयान जहां तक केन्द्र में कांग्रेसनीत सरकार को समर्थन जारी रखने की वामपंथी नीति का सवाल है, हालांकि वामपंथी अब भी कांग्रेस को बुर्जुवा दल मानते हैं और जातिगत आधार वाले राजद सरीखे दलों के वैचारिक विरोधी हैं, परन्तु उनका प्रमुख स्वार्थ बंगाल, केरल और त्रिपुरा में वामदलों की सरकारों की सुरक्षा और सलामती है।5

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