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दिशादर्शन

by
Jan 8, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jan 2004 00:00:00

तरुण विजय

कुंभकोणम और डबवाली

भीगी पलकें, तीखे सबक

फिर वही बातें हो रही हैं। स्कूल में सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी, अफसरों ने पहले जांचा-परखा नहीं। अध्यापक डरपोक और ह्मदयहीन भगोड़े निकले, जो बच्चों को आग में जलता छोड़कर भाग गए, वगैरह-वगैरह। ऐसी हर घटना के बाद पत्रकारों का धर्म और विवेक जाग्रत हो उठता है और उसके तुरंत बाद फिर वही शहर भर तक सिमटी राजनीति और उसके अंधे कुंओं में होने वाली मादक दावतों की खबरें और फोटुएं बदस्तूर छपने लगती हैं।

कुंभकोणम जैसी ही ह्मदय विदारक घटना दिसंबर, 1995 में डबवाली (हरियाणा) में हुई थी। इन दोनों घटनाओं में दु:ख और वेदना एक जैसी। प्रशासन की लापरवाही भी वही। पर कुंभकोणम में अध्यापकों की निर्दयी भावशून्यता के सामने डबवाली के कुछ नायक हमें चरित्र की शक्ति के बारे में सोचने पर विवश करते हैं। मूल अंतर चरित्र का है। कुंभकोणम में जो शिक्षक हर दिन छात्रों के साथ दिन का ज्यादातर समय बिताते थे, उनका बच्चों के साथ भावनात्मक लगाव न हुआ हो, ऐसा संभव ही नहीं। लेकिन जैसे ही आग लगी वे सबके सब उन नन्हे-नन्हे बच्चों को आग में जलने के लिए छोड़कर भाग गए। उनमें से एक ने भी उन बच्चों को बचाने की कोशिश नहीं की या बच्चों को सावधान कर बाहर की ओर दौड़ने के लिए नहीं कहा। वे खुद इस तरह बाहर भाग गए मानो उस विद्यालय या बच्चों से उनका कभी कोई संबंध ही नहीं था। कैसे होंगे ये शिक्षक, उनके संस्कार, उनके जीवन मूल्य या कुल मिलाकर उनका चरित्र? वे जानते हैं उन्होंने गलत किया और इस अपराधबोध से वे इतना डर गए हैं कि अपने घर पर ताला लगाकर कहीं भाग गए। घटना के बाद बच्चों के माता-पिता के पास शोक संवेदना व्यक्त करने की बात तो दूर, आग के कारणों की जांच के लिए भी वे उपलब्ध नहीं हुए। ऐसे शिक्षक किस प्रकार के चरित्रवान छात्रों का निर्माण करेंगे, यह सोचा जा सकता है।

दूसरी ओर जब हम डबवाली की याद करते हैं तो उस भयंकर दुर्घटना में जान पर खेलकर बच्चों को बचाने का उदाहरण भी सामने आता है। जब आग की लपटों में बच्चे भस्म हुए जा रहे थे तो वहीं अशोक कुमार वढेरा नाम का युवक भी था। उसने आव देखा न ताव, लपटों में घिरे बच्चों को एक-एक कर बाहर निकालने लगा। वह चार-पांच बच्चों को ही बाहर निकाल पाया था कि आग की लपटों ने उसे पूरी तरह घेर लिया और वह जिंदा वापस न लौटा, शहीद हो गया। उसे बच्चों को बचाते देख उसकी बहन बबीता (18 वर्ष) तथा भतीजी पारुल (13 वर्ष) भी बच्चों को निकालने में मदद देने लगी थीं और वे दोनों भी अग्नि की भेंट चढ़ गर्इं। अशोक कुमार वढेरा डबवाली में रा0स्व0संघ के सह नगर कार्यवाह थे। वह जिए भी स्वयंसेवक की तरह और स्वयंसेवक की तरह ही जान दे गए। दूसरी ओर कुंभकोणम के अध्यापक हैं, जो भाग गए।

चरित्र की शक्ति का स्रोत अक्षरज्ञान में नहीं बल्कि आत्मबल में होता है, देशभक्ति की तपन और निर्भयता में होता है। कौन दे रहा है आज ये संस्कार?

भारत आज चरित्र के संकट से गुजर रहा है। बल्कि आज इस विषय पर चर्चा करने का अर्थ ही पत्रकारिता के अरबपति घरानों से घृणा और तिरस्कार मोल लेना है। नंगी तस्वीरें और सांस्कृतिक अपघात का हर पहलू आज पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री का र्इंधन बना दिया गया है। किसे चिंता है नियम-कानून-कायदों के क्रियान्वयन या व्यवस्था में सुधार की। पैसे वालों के सेवक पैसे वाले अफसर, पैसे वालों के स्कूल। उनमें पढ़ते पैसे वालों के बच्चे, उनमें पढ़ाने वाले पैसे वाले अध्यापक। ये पैसे वाले जो चुनाव के समय वोट डालने से परहेज करते हैं। अपराधियों और भ्रष्टाचारियों को सलाम बजाते हैं। जिनके लिए महत्वपूर्ण होता है करोड़पतियों की “पार्टी लाइफ” या विरासत और वसीयत। वे आम आदमी द्वारा भरे जाने वाले पानी के बिलों, उनकी बस्तियों में होने वाली बिजली की कटौती, उनके इलाकों से गुजरने वाली टूटी-फूटी सड़कों या उनके बच्चों के लिए खुले साधारण, गंदे, घासफूस की छतों वाले और लापरवाह अध्यापकों से भरे लगभग मुफ्त चलने वाले स्कूलों की चिंता क्यों करेंगे? ये वही स्कूल होते हैं जिनमें भर्ती होने वाले बच्चों के नाम उनके माता-पिता राहुल, सोनिया या राजीव के नाम पर इसलिए रखते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है शायद इसी बहाने उनकी भी किस्मत खुले। पर उनके यहां तब तक कोई नेता नहीं पहुंचता जब तक कोई हादसा न हो। वैसे भी इस देश में हादसों और नेताओं में बड़ा गहरा रिश्ता है। ऐसे नेता न हों तो हादसे न हों। और जब तक हादसे नहीं होते तब तक ये नेता हादसों में मरने वालों के घर नहीं पहुंचते।

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