डॉ मीना कुमारी जांगिड़
बचपन में मकर संक्रांति के त्योहार का उत्साह से इंतज़ार रहता था। कड़ाके की सर्दी, चारों ओर कोहरा ही कोहरा। सुबह चार बजे से ही गली- गली, नुक्कड़- नुक्कड़ उत्सव सा माहौल बनने लगता था। महिलाओं, लड़कियों में एक दूसरे से होड़ सी लगती कि गली बुहारने की। जितनी ज्यादा गुवाड़ी बुहारेंगी पुण्य की प्राप्ति उतनी अधिक होगी। उत्साह इतना अधिक होता कि गली बुहारते- बुहारते चौक, मंदिर, जलाशयों घाट, आगोर सब देखते ही देखते साफ होते जाते थे। दिन के उजाले से पूर्व गांव उज्ज्वल हो जाता था।
मकर संक्रांति के दिन गांव का हर जन अपने कंधों या सिर पर चारे के गट्ठड़ लिए नज़र आते थे। हरा चारा या बाजरी के पुले, ग्वार, चने का नीरे (चारा), गुड़, बिनौला के रूप में पशुओं के लिए विशेष पोषण का प्रबंध हो जाता था। गांव के प्रबुद्ध लोगों के जिम्मे आज कुछ चंदा इक्कठा करने की भी जिम्मेदारी होती। यह एकत्रित चंदा समय समय पर पशुओं के लिए चारे के इंतजाम और अपाहिज पशुओं के इलाज में भी काम आता ।
इस दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर चलता है। शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि अर्थात् नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात् सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। इस दिन से रातें छोटी एवं दिन बड़े होने लगते हैं तथा गरमी का मौसम शुरू हो जाता है। दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा तथा रात्रि छोटी होने से अन्धकार कम होगा। अत: मकर संक्रान्ति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है। संक्रांति का तात्पर्य संक्रमण से है, सूर्य का एक राशि से अगली राशि में जाना संक्रमण कहलाता है। वाकई में इस शुभ परिवर्तन को अपने व्यवहार में शामिल कर सही मायनों में अनेकों परिवर्तन किए जाते थे। ये परिवर्तन थे प्रकृति के हर अंश को सहेजने के लिए सरोकार करने के।
सर्दी की ठिठुरन में चारे के साथ कुछ पुरानी बोरियां खाइयां भी पशुओं को ओढ़ा दीं जाती। साथ ही चौक या मंदिर के प्रांगण में बने चबूतरे पर पक्षियों को चुगा डालना तो इस दिन का पहला कर्म माना जाता। रात की बची रोटी घर के बाहर प्रतीक्षा कर रहे कुत्तों के लिए होती। सह अस्तित्व की इस जीवन शैली को इस हरियाणवी लोकगीत से समझ सकते हैं –
धरती माता नै हर्यो कर्यो
गऊ के जाये नै हर्यो कर्यो
जीव जंत के भाग नै हर्यो कर्यो
ढाणा खेड़े नै हर्यो कर्यो
जमना माई नै हर्यो कर्यो
धना भगत को हर तै हेत
बिना बीज उपजायो खेत
बीज वच्यो सो सन्तां नै खायो
घर भर आंगन भर्यो ।
हम भारत वासियों की समस्त कामनाएं पंच महाभूत के माध्यम से समग्र सृष्टि के कुशल क्षेम की मंगल कामनाएं हैं। आज भी पारम्परिक भारतीय समाज किसी भी उत्सव, त्योहार को निजता की बजाय सार्वजनिक उत्सवप्रियता से मनाना पसंद करता है।
मकर संक्रांति पंच 'ज' के द्वारा जीवनदाई आस्था के केंद्रों से भी जुड़े रहना सिखाता था। प्रत्येक घर इस दिन अपनी श्रद्धा अनुसार दान- पुण्य करना सामाजिक कर्तव्य समझता था। इसी कर्तव्यनिष्ठा के चलते गांव, क़स्बों के भंडार भरे रहते थे। कोई भूखा रहे, यह समाज को हरगिज़ बर्दाश्त नहीं था। मकर संक्रांति के दिन गांव के छोटे बड़े सभी अपनी श्रद्धानुसार अन्न, साग सब्जी मंदिरों में बढ़-चढ़कर दान करते थे।
सूरज की लालिमा के साथ घरों में पकवानों की खुशबू आने लगती थी। कुछ व्यंजन तो दादी नानी हफ्ते पहले से ही बनाने शुरू कर देती थी। ये व्यंजन स्वादानुसार नहीं बल्कि मौसम के अनुसार बनाए जाते थे। मकर संक्रांति के दिन तिल और गुड़ का वैज्ञानिक महत्व भी है। मकर संक्रांति के समय उत्तर भारत में सर्दियों का मौसम रहता है और तिल-गुड़ की तासीर गर्म होती है। कहावत भी है ' तिल तड़के, जाड़ा सटके ' अर्थात तिल को इस मौसम में जितना खाया जाए, सर्दी उतनी ही दूर रहती है। तिल और गुड़ का यह मेल सेहत के लिए बड़ा ही गुणकारी होता है। सर्दियों में गुड़ और तिल के लड्डू खाने से शरीर गर्म रहता है। साथ ही यह शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने का काम करता है।
तिल को बेहद ही स्वास्थ्यवर्धक खाद्य वस्तु माना गया है। इसमें कॉपर, मैग्नीशियम, आयरन, फास्फोरस, जिंक, प्रोटीन, कैल्शियम, बी काम्प्लेक्स और कार्बोहाइट्रेड आदि महत्वपूर्ण तत्व पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त तिल में एंटीऑक्सीडेंट्स भी होते हैं जो कई बीमारियों के इलाज में मदद करते हैं। यह पाचन क्रिया को भी सही रखता है और शरीर को निरोगी बनाता है। गुड़ मैग्नीशियम का एक बेहीतरीन स्रोत है। ठंड में शरीर को इस तत्व की बहुत आश्य कता होती है। यही कारण है कि मकर संक्रांति के अवसर पर तिल व गुड़ के व्यंजन प्रमुखता से खाए और खिलाएं जाते हैं। इस दिन घर के सदस्यों के साथ गांव के अन्य सदस्यों के लिए भी पोषण का भरपूर इतजाम किया जाता रहा है। मल मास उतारने के फलस्वरूप आज मोठ दाल के बड़े भी बनने है हर गली और नुक्कड़ पे। आते जाते सभी को बड़ी ही मनुहार से गरमा गरम बड़े खिलाए जाते हैं और साथ में तिल गुड़ का कोई व्यंजन भी ।
अन्न दान के साथ – साथ वस्त्र दान की बेहद समृद्ध परम्परा रही है।
यही वैज्ञानिकता खिचड़ी के साथ भी जुड़ी हुई है, जब भी संक्रमण काल होता है तो तब गरिष्ठ पदार्थों का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। तब सुपाच्य एवं स्वास्थ्यवर्धक खिचड़ी का अविष्कार हुआ। जब मकर संक्रांति के काल में ठंड अधिक होती है तो जठराग्नि मंद पड़ जाती है, जिससे गरिष्ठ भोजन आसानी से पचाया नहीं जा सकता है। ऐसे समय में खिचड़ी सुपाच्य होने के साथ पूर्ण रुप से शरीर को ऊर्जा भी प्रदान करती है।
पूरे भारत में आज भी इस परंपरा को सहेज रखा है। राजस्थान और हरियाणा के परिवारों में आज भी जिस परिवार में नई दुल्हन आई हो, उसकी पहली संक्रांति हो उसे ससुर जगाई कहते हैं। यह नवेली दुल्हन को सामाजिक सरोकारों और घर और समाज के प्रति कर्तव्य बोध से रूबरू कराने की परम्पराएं थीं।
सूर्य जैसे ही अपने तेज पर होता सब अपनी-अपनी छतों पर रेवड़ी, मूंगफली, बड़े खाते हुए पतंगबाजी करते। मानो आसमां को बदलते मौसम के साथ रंग बिरंगा सजा रहे हो। धरती और आसमां तक हर नई उमंग उत्साह का यह पर्व बड़ा ही अनोखा होता है तभी तो यह त्यौहार देश की प्रमुख विशेषता 'विविधता में एकता' को दर्शाता है।
हमारे देश में छ: ॠतुओं के अनुसार ही फसल चक्र और त्योहारों का विधान है, इन सबका समाज और जीव जगत पर प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। पश्चिमी देशों में इतनी ॠतुएं नहीं होती। इसलिए पश्चिम का ध्येय सिर्फ़ भौतिकता से ही निहित है। इसलिए पथ्य कुपथ्य का भी ज्ञान नहीं है। प्रकृति के अनुसार स्वास्थ्यवर्धक जीवन जीने का विज्ञान सिर्फ़ भारत के पास ही है, किसी अन्य के पास नहीं। आज जब चारों ओर पर्यावरणीय संकट का शोर है , ऐसे में हमें अपनी समृद्ध परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने के लिए मज़बूती से खड़े रहने की आवश्यकता है।
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