श्रीगुरु गोबिन्द सिंह जी ने श्री दशमग्रंथ में कहा है, ‘जबै बाण लागयो तबै रोस जागयो’ अर्थात् जब बाण लगता है तभी रोष पैदा होता है। रोष में आया समाज किस तरह क्रान्ति लाता है, उसका अनुमान शायद ही पंजाब की कांग्रेस सरकार लगा पाए। 9 जनवरी को गुरु गोबिन्द सिंह जी की जयंती है। इससे चार दिन पहले पंजाब सरकार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सुरक्षा में कोताही बरत कर लोकतंत्र को आहत करने का पाप किया है। इससे पैदा हुआ जनाक्रोश कितना खतरनाक होगा, इसका कांग्रेस को अनुमान नहीं है।
पांच जनवरी को पंजाब के सीमांत जिले फिरोजपुर में नरेंद्र मोदी की जिंदगी को खतरे में डालने के कारण उनकी प्रस्तावित रैली को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने रद्द कर दिया। उन्हें कार्यक्रम में भाग लिऐ बिना दिल्ली लौटना पड़ा। फिरोजपुर के हुसैनीवाला में राष्ट्रीय शहीद स्मारक से करीब 22 किमी दूर गांव प्यारेआना फ्लाईओवर पर प्रधानमंत्री का काफिला करीब 15-20 मिनट तक रुका रहा। हल्की बारिश के बीच सड़क को कथित प्रदर्शनकारियों ने बंद कर रखा था। इस कारण प्रधानमंत्री बठिंडा और वहां से हवाई जहाज से दिल्ली वापस चले गए। बठिंडा हवाई अड्डे पर उन्होंने राज्य सरकार पर कटाक्ष करते हुए अधिकारियों से कहा,‘‘अपने मुख्यमंत्री को धन्यवाद कहना कि मैं जिंदा बठिंडा हवाई अड्डे तक लौट आया।’’
अब तक जो तथ्य निकल कर आए हैं, वे बता रहे हैं कि राजनीतिक विद्वेष के चलते कांग्रेस सरकार ने मोदी की जान को खतरे में डाल दिया। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री की रैली में विभिन्न शहरों से पहुंचने वाले भाजपा कार्यकर्ताओं को भी विभिन्न जगहों पर रोका गया और उनके साथ मारपीट की गई। पूरे प्रकरण में पंजाब पुलिस व प्रशासन मूकदर्शक बना रहा। कुछ वीडियो के अनुसार प्रधानमंत्री के काफिले के मार्ग में धरना देने वालों को हटाने की बजाय पंजाब पुलिस के जवान उनके साथ चाय पीते नजर आ रहे हैं। आम जनता और भाजपा नेताओं की तरफ से बनाए गए कई वीडियो मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के उस दावे को झूठा साबित कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री मोदी की सुरक्षा में चूक नहीं हुई। इस घटना के बाद पंजाब के लोगों में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी और पुलिस—प्रशासन को लेकर भारी रोष पाया जा रहा है। लोग पूछ रहे हैं कि सरकार जब प्रधानमंत्री की रक्षा नहीं कर सकती तो आम लोग उससे क्या अपेक्षा कर सकते हैं! इस घटना ने राज्य में भाजपा के प्रति लोगों में सहानुभूति पैदा कर दी है।
राजनीतिक विद्वेष के चलते कांग्रेस सरकार ने मोदी की जान को खतरे में डाल दिया। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री की रैली में अनेक शहरों से पहुंचने वाले भाजपा कार्यकर्ताओं को भी विभिन्न जगहों पर रोका गया और उनके साथ मारपीट की गई। पूरे प्रकरण में पंजाब पुलिस व प्रशासन मूकदर्शक बना रहा। इस घटना के बाद पंजाब के लोगों में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी और पुलिस—प्रशासन को लेकर भारी रोष देखा जा रहा है।
लगभग डेढ़-दो माह पहले जब दिल्ली की सीमा पर किसान आंदोलन जोरों पर था तब लोग कहते थे कि शायद इस बार भाजपा पंजाब में अपनी उपस्थिति भी दर्ज नहीं करवा सकेगी। कुछ समय पहले तक भाजपा का जहां कहीं भी छोटा-बड़ा कार्यक्रम होता था तो प्रदर्शनकारी विरोध करने पहुंच जाते और बड़े-बड़े भाजपा नेता यहां तक कि प्रदेश अध्यक्ष अश्विनी शर्मा भी किसानों के हमले का शिकार हुए। परन्तु अब कृषि सुधार कानून वापस लिए जाने के बाद राज्य की परिस्थितियों ने यकायक पलटा खाया है। पंजाब भाजपा सधे कदमों से तेज चाल चलती दिखाई देने लगी है और कल तक राजनीतिक दौड़ से बाहर समझी जाने वाली भाजपा आज लोगों के बीच जगह बनाने लगी है। इसी बीच प्रधानमंत्री के साथ हुई घटना ने तो बहुत कुछ बदल दिया है।
विश्लेषक कहते हैं कि पंजाब भाजपा पड़ोसी राज्य हरियाणा के मार्ग पर चलती दिख रही है। फरवरी, 2021 में हुए कुछ नगरों के निकाय चुनावों में पंजाब भाजपा के लिए सबसे बड़ी समस्या किसान आंदोलन नहीं, बल्कि ऐसे उम्मीदवारों की तलाश थी जो कम से कम कागजों में तो जीतने की क्षमता रखते हों। लेकिन भाजपा ने अपने दम पर 1003 उम्मीदवार मैदान में उतारे जिनमें नगर निगमों में 20 और नगर परिषदों और पंचायतों में 29 सीटों पर जीत हासिल की। कहने को तो स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, परन्तु यह वह समय था जब पंजाब में किसान आंदोलन के नाम पर भाजपा को चुनाव प्रचार तक नहीं करने दिया जाता था। दूसरी ओर अब पंजाब भाजपा अपने पूर्व के वरिष्ठ सहयोगी अकाली दल की छाया से भी बाहर निकल चुकी है। चूंकि अकाली दल के साथ गठबंधन में भाजपा को केवल हिंदू—बहुल या शहरी क्षेत्रों से ही चुनाव लड़ने का अवसर मिलता था और ग्रामीण तथा सिख—बहुल क्षेत्रों पर अकाली दल अपना उम्मीदवार उतारता था, इसीलिए सिख नेताओं का भाजपा में सदैव अभाव—सा रहा। 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले नवजोत सिंह सिद्धू का भाजपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो जाना सिख चेहरे के रूप में पार्टी के लिए बड़ा झटका था। सिद्धू के बाद उसके पास कोई प्रचलित सिख नेता नहीं रह गया था।
इस स्थति से निपटने के लिए लगता है कि भाजपा हरियाणा के मार्ग पर चलती दिखाई दे रही है। उल्लेखनीय है कि 2014 का हरियाणा विधानसभा चुनाव भाजपा को लगभग इन्हीं परिस्थितियों में अपने बलबूते पर लड़ना पड़ा था। चुनाव के ठीक पहले कुलदीप बिश्नोई के नेतृत्व वाली हरियाणा जनहित कांग्रेस उससे अलग हो गई थी। पूर्व में भाजपा का गठबंधन कभी चौधरी बंसीलाल की हरियाणा विकास पार्टी से होता था, तो कभी ओमप्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल के साथ। भाजपा के पास सभी 90 क्षेत्रों में दमदार उम्मीदवारों की किल्लत थी, खासकर ग्रामीण और जाट बहुल क्षेत्रों में। भाजपा ने दूसरे दलों के नाराज नेताओं के लिए अपना द्वार खोल दिया। हरियाणा में अकेले चुनाव लडे की मजबूरी उसके लिए वरदान बन गयी और सत्ता की सीढ़ियां चढ़ गई।
पंजाब में अवसर
लोगों को लग रहा है कि आगामी पंजाब विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए शायद एक सुनहरा अवसर बनकर सामने आएगा। अकाली दल से गठबंधन के कारण 2017 में भाजपा ने 117 सदस्यों वाली विधानसभा में सिर्फ 23 सीटों पर चुनाव लड़ा था। लेकिन इस बार अकाली दल से उसका गठबंधन टूट गया है। यह भाजपा के लिए एक नया अवसर साबित हो सकता है। भाजपा के पास खोने को मात्र 3 सीटें हैं, पर पाने को बहुत कुछ, शायद सत्ता भी, जिसकी ओर वह बढ़ती दिख रही है। आज पंजाब भाजपा का कारवां निरन्तर बढ़ता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस के दो विधायक, कई पूर्व विधायक, पूर्व सांसद, अकाली दल व अन्य दलों के कई वरिष्ठ नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं। उम्मीद है कि चुनाव आते-आते उसके पास विभिन्न दलों से नाराज सिख और दूसरी जातियों के नेताओं की कतार लग जाएगी। पंजाब में भाजपा के कार्यकर्तार्ओं की कोई कमी नहीं है। ऊपर से नरेन्द्र मोदी जैसा लोकप्रिय चेहरा उसके पास है।
पंजाब में भाजपा, कैप्टन अमरिन्दर सिंह और अकाली नेता सुखदेव ढींढसा की पार्टी मिलकर चुनाव लड़ेगी। इस तरह से तीन दल एक साथ मिलकर पंजाब के चुनावी समर में उतरने वाले हैं। कैप्टन अमरिन्दर सिंह व सुखदेव सिंह ढींढसा न केवल अनुभवी नेता, बल्कि राज्य के प्रसिद्ध सिख नेता हैं। इनकी ग्रामीण इलाकों में अच्छी पैठ है, जिसका लाभ भाजपा गठजोड़ को मिलेगा। पंजाब में बदलते हुए राजनीतिक हालातों के चलते चुनावी मुकाबला बहुकोणीय होता दिख रहा है। यहां आम आदमी पार्टी यानी आआपा में फूट व टूटन जारी है तो कांग्रेस भ्रमित, अकाली दल बादल के पास सशक्त नेतृत्व का अभाव दिख रहा है, तो किसानों ने खुद चुनाव लड़ने की घोषणा करके कई दलों की नींद हराम कर दी है।
कांग्रेस से नाराज हिन्दू
हिन्दू मतदाताओं की कांग्रेस से नाराजगी अब उसके गले की हड्डी बनती दिख रही है। पंजाब में कुछ महीने पहले हुए कांग्रेस सरकार के नेतृत्व परिवर्तन के दौरान पार्टी के नेताओं के मुख से एक शर्मनाक बात सुनने को मिली कि पंजाब का मुख्यमंत्री हिन्दू न हो। असल में राज्य में कैप्टन अमरिन्दर सिंह का विकल्प ढूंढा जा रहा था और वरिष्ठता की सूची में कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष सुनील कुमार जाखड़ का नाम आगे चल रहा था और कुछ लोग पार्टी के सांसद मनीष तिवारी का नाम ले रहे थे। इसी बीच पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने सुझाव दिया कि मुख्यमंत्री किसी अन्य को बनाया जाए न कि किसी हिन्दू को। अन्तत: हुआ भी ऐसा ही। पार्टी हाईकमान ने वरिष्ठ हिन्दू नेताओं की अनदेखी कर चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी।
इस घटना के बाद पंजाब के हिन्दुओं में अजब की बेचैनी पैदा हो गई है कि अगर संविधान पंथ के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं करता तो उन्हें किस आधार पर उच्च संवैधानिक जिम्मेदारी से बेदखल किया जा रहा है? इसे हिन्दुओं ने अपना अपमान माना है। इस अपमान ने पंजाब के हिन्दुओं को लामबन्द करने का काम किया है, यह सत्ताधारी दल को महंगा पड़ सकता है। पंजाब में हिन्दू मतदाता दूसरा सबसे बड़ा वर्ग है। राजनीतिक दलों द्वारा चाहे इस वर्ग को कमतर करके देखा जाता रहा है परन्तु निष्पक्ष तौर पर अनुमान लगाया जाए तो हिन्दू मतदाताओं की संख्या 45 प्रतिशत के आसपास बैठती है और ये मतदाता लगभग हर विधानसभा क्षेत्र को प्रभावित करते हैं और 60 से 70 सीटों पर निर्णायक हैं। यही कारण है कि पंजाब का हर नेता मन्दिर-मन्दिर चक्कर काटता दिखने लगा है। कांग्रेस में सिद्धू की धमाचोकड़ी, अपनी ही सरकार पर किए जाने वाले हमलों ने कार्यकर्ताओं के हौंसले चुनाव से पहले ही पस्त कर रखे हैं।
किसानों ने उड़ाई हितैषियों की नींद
केन्द्र के कृषि सुधारों के खिलाफ संघर्ष करने वाले किसानों का असली राजनीतिक रंग सामने आ रहा है। इस संघर्ष में शामिल 37 किसान संगठनों में से 25 संगठनों ने संयुक्त समाज मोर्चा गठित कर पंजाब के विधानसभा चुनावों के लिए खम्भ ठोक दिया है और किसान नेता बलबीर सिंह राजोवाल को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया है। चाहे शेष संगठनों ने इसका विरोध किया है, परन्तु किसान आन्दोलन के नाम पर हो रही राजनीति देश के सामने आ गई है। इस राजनीति में सबसे अधिक झटका उन दलों को लगा है, जो किसानों की राजनीति करने का प्रयास कर रहे थे। ज्ञात रहे कि पंजाब के राजनीतिक रण में अब तक कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठजोड़ आमने-सामने की लड़ाई का लुत्फ लेते रहे हैं। मतदाताओं ने पिछले चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी के रूप में लड़ाई का तीसरा कोण भी देखा था। इस बार शिअद और भाजपा के रिश्ते में आई दरार और कैप्टन अमरिन्दर सिंह के अपनी पार्टी बनाकर भाजपा के साथ जाने के बाद लड़ाई समकोणीय हो गई थी, लेकिन 25 किसान संगठनों ने गत दिनों संयुक्त समाज मोर्चा बनाकर पांचवां कोण बनने की कोशिश की है।
किसानों के मैदान में उतरने से उनके हितैषी कहे जाने वाले अकाली दल बादल, कांग्रेस व आम आदमी पार्टी की राजनीतिक उम्मीदों को झटका लगा है। शिरोमिण अकाली दल-बसपा गठजोड़, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस तीनों को ही ग्रामीण सीटों पर नुकसान होगा। भाजपा का तो पहले से ही ग्रामीण वर्ग में कोई आधार नहीं है, इसलिए उसका ज्यादा नुकसान नहीं होगा। उसका मुख्य वोट बैंक शहरों में ही माना जाता है। अकाली दल बादल के साथ रहते हुए भी वह अपने हिस्से की 23 शहरी सीटों पर चुनाव लड़ती आई है। स्पष्ट है कि किसानों के मैदान में उतरने से भाजपा को कोई नुकसान नहीं होने वाला है, बल्कि भाजपा विरोधी मतों के बन्दरबांट से भाजपा को ही लाभ हो सकता है।
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