यह एक शाश्वत सत्य है कि कलियुग में संगठन ही एकता ही शक्ति है। शाश्वत एकता स्वार्थ के भरोसे नहीं होती, भय से नहीं होती। भय लोगों को ज्यादा दिन बांधकर नहीं रख सकता। मजबूरी में भले लोग एक हो जाते हैं, लेकिन मजबूरी समाप्त होने के बाद ऐसी एकता भी समाप्त हो जाती है। एक होते समय अहंकार छोड़ना पड़ता है, अन्यथा एकता भंग हो जाती है।
सरसंघचालक द्वारा दिलाया गया संकल्पमैं हिंदू संस्कृति का धर्मयोद्धा मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामजी की संकल्पस्थली पर सर्वशक्तिमान परमेश्वर को साक्षी मानकर संकल्प लेता हूं कि मैं अपने पवित्र हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति एवं हिंदू समाज के संरक्षण, संवर्धन एवं सुरक्षा के लिए आजीवन काम करूंगा। |
देश में जनसांख्यिक असंतुलन बढ़ रहा है। इसलिए 2024 तक भारत में जनसंख्या नियंत्रण कानून बनना चाहिए। सरकार से समान नागरिक संहिता बनाने का भी निवेदन किया जाएगा।
— स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज
मैंने सुना है, देवताओं और राक्षसों की बार—बार लड़ाई से विश्व की बहुत हानि होती थी। तो आखिरकार ब्रह्मा जी तंग आ गये। उन्होंने दोनों पक्षों को बुलाया और कहा कि रोज-रोज का झगड़ा बंद करो। झगड़े की जड़ यही है न कि स्वर्ग का राज किसको मिले! तो ठीक है, कल एक रेस होगी, उस रेस में जो विजयी होगा उसे और उसके दल को यह राज मिलेगा। रेस है यहां से स्वर्ग तक एक सीढ़ी बनाना और उस पर चढ़कर स्वर्ग में प्रवेश करना। जिसकी सीढ़ी पहले बनेगी और जिसका स्वर्ग में पहले प्रवेश होगा, उसको और उसके दल को राज मिलेगा।
दूसरे दिन सब तैयार होकर आए। देवताओं का दल एक तरफ, राक्षसों का दल दूसरी तरफ। रेस के अनुसार अपनी सीढ़ी खुद बनानी थी। ब्रह्मा जी द्वारा स्पर्धा शुरू करने का संकेत देते ही सब शुरू हो गए। अब देवताओं में तो देवत्व का भाव होता है। वे कोई भी काम करेंगे तो सब लोगों को जोड़कर करेंगे। कोई भी काम करेंगे तो लोगों को जोड़ने के लिए करेंगे। वे धर्म पर चलने वाले लोग हैं, वे जिनसे सब जुड़ जाते हैं, जिससे सब उन्नत होते हैं। सबको जिसमें सदा—सर्वदा सुख मिलता है। देवता ऐसा ही काम करते हैं। तो जितने देवता थे सब आपस में जुड़ गए। उन्होंने एक मंडल बनाया। बाकी कुछ लोग उनके कंधे पर चढ़ गए। जैसे दही हांडी के उत्सव में दही की हांडी तक एक पर एक करके पहुंचा जाता है, उनका वैसा ही पिरामिड बनने लगा। लेकिन बहुत ऊंचाई तक जाना था, स्वर्ग तक जाना था। बीच-बीच में किसी का कंधा उचक जाता तो पूरा जमाव ढह जाता था। वे फिर से उसे बनाते। लेकिन वह बन ही नहीं रहा था।
उधर राक्षस तो राक्षस ठहरे, उनको बाकी लोगों से कोई लेना—देना नहीं था। अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए उन्होंने प्रकृति पर आक्रमण किया। बड़े—बड़े शिखर तोड़कर लाने लगे, सीढ़ी बनाने के लिए। शहर के बड़े—बड़े भवनों की दीवारें तोड़कर लाने लगे। पशु-पक्षी, पर्वतों में रहने वाले, जंगलों में रहने वाले भागने लगे। सारी दुनिया त्राहि-त्राहि करने लगी। लेकिन राक्षसों को उसकी कोई परवाह नहीं थी। एक सबसे बलशाली राक्षस दूर हिमालय में जाकर एक विशाल शिखर उखाड़ लाया और उसे बिछाकर बोला, ये मेरी पटरी है। लेकिन परिस्थिति ऐसी बनी कि वह डगमगा गया। संभलना मुश्किल हो रहा था। परिस्थिति को संभालने वाला संतुलन का तत्व बार-बार स्वत: ही किसी न किसी रूप में आता है, कई बार तो यह नारद मुनि के रूप में आता है।
हुआ यूं कि नारद मुनि यह सारा दृश्य देखकर नारायण—नारायण करते निकले और इन्द्र को जाकर पूछा कि क्या हो रहा है भैया? आज आप लोगों के बीच ये कोई झगड़ा है या कोई खेल चल रहा है? इंद्र बोले, हां महाराज, खेल तो चल क्या रहा है लेकिन बिगड़ रहा है। हम सब धर्म पर चलने वाले धर्म सम्मत पद्धति से काम कर रहे हैं। लेकिन ये हो ही नहीं रहा है, बार-बार पिरामिड बनाना पड़ता है। बहुत समय हो गया है। लगता है, सामने वाले जीत जाएंगे। लेकिन ये जीतने के बाद भी दुनिया का अकल्याण ही करेंगे। हम अच्छे जरूर है, लेकिन हमको सफलता नहीं मिल रही है। यह सुनकर नारद मुनि ने कहा, देखो इसका विचार मत करो। अगर आपका किया अच्छा और सत्य है तो उसी पर चलो। उसमें मुनाफे—नुकसान का विचार मत करो। स्वार्थ का विचार करोगे तो काम नहीं होगा। मजबूरी नहीं, भय नहीं, स्वार्थ नहीं और अहंकार भी नहीं। मिलकर बार-बार प्रयास करो, यह कार्य होकर रहेगा। अगर यह सत्य है तो सत्य किसी भार से दबता नहीं है। वह बार-बार सिर चढ़कर बोलता है। फिर नारद जी राक्षसों के पास गए। उनसे भी वही पूछा। तो बड़ी पटरी बिछाए बैठा सबसे बलशाली राक्षस खड़ा दिखा पटरी थामे, वह हिल नहीं रहा था, क्योंकि अगर पटरी हिलती तो ऊपर का सब गिर जाने वाला था। तो जिसने पटरी लगाई थी उसी को वहां खड़ा होना था। नारद जी ने उससे पूछा, क्या हो रहा है। तो वह बोला, मुनि महाराज, कुछ दिन के बाद आपको ये नारायण—नारायण बोलना बंद करना पड़ेगा।
सीढ़ी बन रही है, हम लोग स्वर्ग जाएंगे। स्वर्ग में हमारा राज होगा। फिर आपके ये सारे खेल बंद करने पड़ेंगे। यह सुनकर नारद जी बोले, अच्छा! आप लोग राजा बनने वाले हो। राजा कौन बनेगा? वह बोला, हम। नारद जी बोले, अरे सारे थोड़े राजा बनेंगे, राजा तो एक ही होगा। राक्षस बोला, हां, तय हुआ है कि जो पहले अंदर जाएगा वही राजा बनेगा। उसकी पार्टी को राजतंत्र मिलेगा। नारद जी बोले, पहले स्वर्ग के अंदर कौन जाएगा! राक्षस बोला, वह जो आखिरी में छोटा बच्चा खड़ा है। जो छोटा है वही तो सबसे आगे होगा। उसको ही उस आखिरी फट्टी पर खड़ा रहना पड़ेगा। वह पहले अंदर जाएगा। अब नारद मुनि ने कहा, ये क्या भैया, सबसे बड़ा काम तो तुमने किया है।
दूर हिमालय से ये बड़ा शिखर लेकर आये। इसे यहां पर तुमने बिछाया। और राजा वह बनेगा जिसने कुछ भी नहीं किया! खेल का नियम होता है और ये नियम—कानून तो तुम्हारे जैसे भोले लोगों के लिए ही बनाये जाते हैं। तुमको राजा नहीं बनने देना है, इसीलिए तो यह नियम बनाया गया है। तुम भोले बेवजह ठगे जा रहे हो। राक्षस ने कहा, ऐसा कैसे! नारद जी ने तर्क रखा, अरे और नहीं तो क्या, तुम सबसे बलशाली हो, पुराने हो। सबसे बड़ा काम तुमने किया है। सबसे ज्यादा परिश्रम तुम्हारा है। तुम नीचे खड़े हो तब तक सब ऊपर जाते रहेंगे और जब राजा बनने की बारी आएगी तो तुमको कुछ नहीं मिलेगा। यह कहकर नारद मुनि नारायण—नारायण करते हुए चले गये।
लेकिन उस राक्षस के दिमाग में तो खलल पैदा कर दी। उसने काम रोक दिया। सबको नीचे बुलाया कि बात करनी है। उसने पूछा, बताओ राजा कौन बनेगा? एक राक्षस बोला, भाई, जो पहले जाएगा। ये छोटा बच्चा। वह बलशाली राक्षस फिर बोला, वह कैसे बनेगा वह तो छोटा बच्चा है। उसने सबसे कम काम किया है। उसे तो कुछ आता—जाता नहीं। मैं पुराना हूं। इतने सालों से काम कर रहा हूं। ये पटरी मैंने लगायी है। सबसे ज्यादा परिश्रम मेरा है। दूसरा राक्षस बोला, नहीं भैया, खेल का नियम ऐसा है। तो पुराना राक्षस बोला, भाई, हमें ऐसा खेल नहीं खेलना है। आप मुझे राजा बनाओगे तभी मैं खेलूंगा, नहीं तो नहीं खेलूंगा। उन्होंने कहा, यह हो नहीं सकता भाई, क्योंकि नियम ब्रह्मा जी ने बनाये हैं। उन्हें कोई नहीं तोड़ सकता। पहला राचस बोला, तो ठीक है, हमको ये खेल खेलना ही नहीं। हम अपना सामान लाए थे उसको लेकर हम घर वापस जाते हैं। उसने अपना बड़ा सा पत्थर निकाला और घर को चला गया। उधर सारा इंतजाम ढह गया।
कथा का तात्पर्य यह है कि अगर हमको पूरे समाज को एक करना है तो अहंकार को भूलकर ही यह संभव है। स्वार्थ को छोड़कर, निर्भय होकर किसी मजबूरी से नहीं बल्कि प्रेम से अपनों के लिए काम करना पड़ेगा। यहां पर प्रभु श्रीरामचन्द्र जी ने तो प्रतिज्ञा की थी—निश्चर हीन करहु महं, भुज उठाइ प्रण कीन्ह…'। उन्होंने यह प्रतिज्ञा कोई अपने लिए नहीं की थी। उन्होंने चौदह साल जैसे तैसे जंगल में गुजारे थे। चाहते तो अयोध्या वापस जाकर वहां राजा बन जाते। राक्षसों से झगड़ा मोल लेकर उन्होंने सारा कष्ट भुगता। लेकिन यह कष्ट उन्होंने खुद स्वीकारा था, उसमें कोई स्वार्थ नहीं था। उसमें अहंकार भी नहीं था। उन्होंने शक्तियों की, संतों की पूजा की। सबके सामने नम्र भाव ही रखा। और रामायण में एक कहानी तो ऐसी है कि जब रावण को बाण लगा और वह भूमि पर पड़ा है, तो रणभूमि में श्रीराम लक्ष्मणजी को कहते हैं कि जाकर रावण को नम्रतापूर्वक प्रणाम करो और उससे राज्य—प्रशासन की विद्या लो। वह सबसे बड़ा विद्वान है।
ऐसी नम्रता दिखाई थी उन्होंने। निस्वार्थ बुद्धि से काम किया था। उनकी कोई मजबूरी नहीं थी ये सब करने की। और राक्षसों से, अधर्म से लड़ाई लड़ते हुए उनके मन में कोई भय भी नहीं था। संत महाराज ने जैसा कहा कि धर्म को विग्रह रूप राम के जैसा बनाने से प्रारंभ करना पड़ेगा। उसी का अनुकरण करते हुए नानाजी ने यहां पर काम किया। उन्होंने अपने लिए नहीं, बल्कि अपनों के लिए काम किया। अगर नानाजी ऐसा कर सकते हैं तो हम भी कर सकते हैं। नानाजी बचपन से ऐसे स्वभाव के बनते गए थे और अंतत: वैसे बन गये। हम अभी शुरू करें, तो एक दिन हम भी वैसे बन जाएंगे। इसलिए उस जैसा बनने के लिए कुछ करना पड़ेगा। क्या करना पड़ेगा? मैं एक शपथ बोलता हूं, आप लोग उसे दोहराइए। हमें आज यह संकल्प लेना है। प्रामाणिक मन से संकल्प लेना है। अपने मन से लेना है। और उसके पूरे होने तक हमें उसका पालन करना है। सब पीछे दोहराएं—
'मैं हिन्दू संस्कृति का धर्म योद्धा मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम जी की संकल्प स्थली पर सर्वशक्तिमान परमेश्वर को साक्षी मानकर संकल्प लेता हूं कि, मैं अपने पवित्र हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति एवं हिन्दू समाज के संरक्षण, संवर्धन एवं सुरक्षा के लिए आजीवन कार्य करूंगा। मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि किसी भी हिन्दू भाई को हिन्दू धर्म से विमुख नहीं होने दूंगा तथा जो भाई धर्म छोड़कर चले गए हैं उनकी भी घर वापसी के लिए कार्य करूंगा एवं उन्हें परिवार का हिस्सा बनाऊंगा। मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि हिन्दू बहनों की अस्मिता, सम्मान और शील की रक्षा के लिए मैं सर्वस्व अर्पण करूंगा। मैं जाति, वर्ग, भाषा, पंथ के भेदभावों से ऊपर उठकर अपने हिन्दू समाज को समरस, सशक्त और अभेद्य बनाने के लिए पूरी शक्ति से कार्य करूंगा। भारत माता की जय'।
हमें अपनी आदत को, अपने आचरण को बदलकर संकल्प में जैसा कहा है वैसा अक्षरश: बनते जाना है। वैसा बन जाने तक प्रयास करते रहना है। इसमें देर लगेगी, जल्दी होगा, यह सब बात अलग है। लेकिन ऐसा बनने का प्रयास सतत् जारी रहेगा। यह भाव रहा तो आपके प्रयास में स्वयं भारत की तीक्ष्ण शक्ति, भारत माता प्रत्यक्ष अपना पूर्ण सामर्थ्य भर देंगी और यश आपके पास लाकर आपकी झोली में डाल देंगी। इसी विश्वास के साथ मेरी सबको शुभकामना।
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