भारत की राजधानी नई दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी समेत प्रदूषण वास्तव में अब हर सीमा के पार चला जा रहा है। लेकिन जैसा कि प्रोपेगंडा किया जा रहा है कि इसका कारण दीपावली पर की जाने वाली आतिशबाजी मात्र तो निश्चय ऐसा नहीं है। पिछले शनिवार को जब सबसे अधिक प्रदूषण का हल्ला मच रहा था, तब हमने नई दिल्ली और भारत के लगभग मध्य में अवस्थित छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के प्रदूषण का आंकड़ा देखा। जाहिर है रायपुर में पटाखों से संबंधित कोई अधिक रोक व्यावहारिक रूप से थी नहीं। यानी 98 प्रतिशत सनातन धर्मावलम्बी लोगों का शहर होने के नाते सबने अधिक ही उत्साह के साथ दीवाली मनायी, आतिशबाजी की। यह शहर पहले भी प्रदूषण आदि के मामले में चर्चित था ही। बावजूद इस शहर का प्रदूषण दिल्ली के मुकाबले न्यून था। शनिवार को जब रायपुर का एयर क्वालिटी इंडेक्स 146 और PM2.5 यहां का 55 था, उसी समय दिल्ली का एक्यूआई 330 और PM2.5, 444 (आनंद विहार) रहा। अगर महज़ आतिशबाजी इसका कारण होती तो रायपुर भी दिल्ली के आसपास या उससे अधिक ही प्रदूषित होता। इससे यह साबित होता है कि हवा को ख़राब करने में आतिशबाजी का योगदान न्यून और अन्य कारणों का अधिक है।
दिल्ली के प्रदूषण और जीवन-यापन में कठिनाई का कारण इससे कहीं अधिक गंभीर है। दीवाली नहीं मनाने से उसका निवारण होना असंभव ही है, जैसा दुष्प्रचार किया जा रहा है। समस्या असाधारण है तो उसका समाधान भी साधारण नहीं हो सकता। हमें विषय की जड़ तक पहुंचना होगा और फिर उसके इलाज का उपाय तलाशना होगा। दिल्ली की सबसे बड़ी समस्या उसका ‘राष्ट्रीय राजधानी’ होना है। हमारी राजधानी एक तरह से सरहद पर है। जब अंग्रेजों ने इसे राजधानी के रूप में बनाया भी था तब भी यह उस तरह तब के भारत की सीमा के नज़दीक नहीं थी, जैसा कि आज है। क्योंकि यह उस समय आज के बांग्लादेश और पाकिस्तान आदि के साथ वाला अविभाजित भारत था। तब शायद यह समस्या अधिक गंभीर नहीं थी। अब तो खैर यह सीधे तौर पर दुश्मन राष्ट्रों की सीमा से लगता हुआ क्षेत्र है। इस नाते भी राष्ट्रीय राजधानी के रूप में दिल्ली अनुपयुक्त है, लेकिन यहां हम एक छोटे से इलाके पर पड़े अत्यधिक आबादी के बोझ और प्रदूषण आदि की दृष्टि से चीज़ों को समझने का प्रयत्न करते हैं।
भारत जैसे सवा सौ करोड़ से अधिक नागरिकों वाले राष्ट्र की राजधानी जितनी बड़ी होनी चाहिये, उस लिहाज़ से भी दिल्ली काफ़ी छोटी है। उसके पास अनाज, सब्ज़ी, दूध, फल… कुछ भी नहीं है। फिर भूकम्प आदि की दृष्टि से भी काफ़ी संवेदनशील है दिल्ली। वह हिमालय की तराई वाले उस इलाके में अवस्थित है, जो न केवल अपेक्षाकृत काफी नया है बल्कि उसकी प्लेट भी काफी कमजोर है। उस पर से इतनी ख़तरनाक घनी बसाहट। हज़ारों अवैधानिक और अनियोजित कालोनियों ने कोढ़ में खाज का काम किया ही है। जिसे वोट की विवशतावश अंततः नियमित कर देने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं हो सकता था। अनियंत्रित आबादी और उसके कारण अपने कलेजे पर अकूत वाहनों का बोझ लिए इसके नीचे दबी चीत्कार करती दिल्ली। ज़रूरतों के मुताबिक़ दिल्ली इतनी छोटी हो गयी है कि हरियाणा से लेकर यूपी तक में बसा उसका NCR भी अब हांफने लगा है। बल्कि वह भी राष्ट्रीय राजधानी के कारण और अधिक ख़राब हो गया है। अभी दिल्ली से भी अधिक प्रदूषण उसके गाज़ियाबाद और गुड़गांव जैसे इलाके में हो गया है।
ऐसे में इसका समाधान आखिर क्या है ? सनातन परम्पराओं और त्यौहारों आदि को लांछित करते रहना तो इसका समाधान कतई नहीं है। उस शहर के आबादी के बोझ को कम करने के लिए अन्य उपाय अपनाने होंगे। तो क्या राजधानी बदल दी जाए ? उपाय अच्छा है, लेकिन सम्भव नहीं। लोकतंत्र में ऐसे निर्णय लेना असम्भव जितना कठिन है। व्यावहारिक समाधान यह है कि ‘केंद्र’ को विकेंद्रीकृत कर दीजिए। राष्ट्रीय का अर्थ दिल्ली होना होता है, इस अवधारणा को बदल दीजिए। राजधानी को समूचे देश में बिखेर दीजिए। दिल्ली महज़ राजनीतिक राजधानी रहे, जहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के निवास आदि रहें। न्यायधानी कहीं और हो, एवं कार्यपालिका भी किसी अन्य ‘राजधानी’ से ही संचालित हों। दुनिया में दक्षिण अफ्रीका एक ऐसा देश है, जिनकी तीन राजधानियां हैं। कार्यपालिका की अलग, विधायिका की अलग और न्याय के लिए अलग।
इसी तरह भारत के भी अनेक प्रदेशों में ऐसी व्यवस्था है, जहां न्यायिक ‘राजधानी’ अलग ही है और उससे कोई दिक़्क़त भी नहीं होती। ऐसा ही केंद्र के मामले में भी किया जा सकता है। जैसे अनेक राज्यों में हाई कोर्ट राजधानियों से इतर किसी अन्य शहर में हैं, वैसे ही देश का सर्वोच्च न्यायालय देश के बीच में कहीं हो सकता है। ऐसे ही रक्षा मंत्रालय किसी ऐसे ही सुरक्षित जगह पर हो देश के बीचोबीच। सैन्य मुख्यालय आदि भी कहीं और जैसे देश में एनएमडीसी का मुख्यालय हैदराबाद में है, वैसे ही राष्ट्रीय उद्यमों का मुख्यालय भी संबंधित जगह पर होना चाहिए। कोई भी विचार पहली नज़र में हास्यास्पद जैसा लगता है, लेकिन अमल में लाने पर वही अच्छा लगने लगता है।
राजनीतिक रूप से भी केवल संवैधानिक और कार्यकारी प्रधान आदि का मुख्यालय ही रहे दिल्ली। सांसदों का स्थायी आवास भी उनके क्षेत्रों में हो। केवल सत्र और ज़रूरी बैठकों में सांसद दिल्ली आएं, जिसके लिए सामान्य अतिथि रहना ही काफी है। शेष समय वे क्षेत्र में रहें। इसके अलावा जैसे देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई है और इस नाते केंद्रीय बैंक एवं अन्य बैंकों के मुख्यालय मुम्बई में है, वैसे ही वित्त मंत्रालय को वहां ले जाया जा सकता है। कृषि मंत्रालय को कृषि वाले प्रदेश में। कोयला मंत्रालय ऐसे क्षेत्र में जहां कोयले का उत्पादन होता है। अन्य खनिज विभागों को खनिज वाले प्रदेश में। ऐसे ही सभी विभागों के मुख्यालय देश भर में फैला दीजिए। इससे पहले कि आबादी के बोझ से दिल्ली भरभरा कर गिर जाये, और देश की सुरक्षा-संप्रभुता के समक्ष संकट उत्पन्न हो, समय रहते ऐसे उपाय कर लेने चाहिए। आप लाख कोशिश कर लें, लेकिन इतनी बड़ी आबादी का नियोजन आप अब दिल्ली में नहीं कर सकते। इतना अधिक केंद्रीकृत व्यवस्था वैसे भी चलने वाली नहीं है। हर दृष्टि से ‘केंद्र’ को विकेन्द्रीकृत किया जाना ही समस्या का समाधान है। इसके अलावा अन्य कोई भी विकल्प शायद ही इस मामले में कारगर हो।
(लेख में लेखक के निजी विचार हैं।)
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