जे के त्रिपाठी
नाटो और तुर्की के बीच के सम्बन्धों की दशा और दिशा-दोनों ही आजकल विवादों के घेरे में हैं। तुर्की और नाटो के नेता सं. राज्य.अमेरिका के बीच संबंधों का प्रारम्भ 1831 में हुआ, जब अमेरिका ने ओटोमन साम्राज्य में अपने राजदूत स्थापित किया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नाटो में शामिल होने वाले देशों में तुर्की अग्रणी था। लेकिन विगत पांच वर्षों में ( राष्ट्रपति एर्दोगेन के शासनकाल में) नाटो देशों और खासकर अमेरिका को लेकर तुर्की की नीतियों में कुछ अस्थिरता दृष्टिगत हुई है। 2016 में "रूसी झील बन चुके काला सागर के क्षेत्र में रूस के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए” नाटो की गहन उपस्थिति का आह्वान करने वाले एर्दोगन ने इस वर्ष जुलाई में अपने रुख में परिवर्तन का संकेत यह कह कर दिया कि " 70 के दशक में तुर्की द्वारा उत्तरी तुर्क साइप्रस (जिसको किसी भी देश से मान्यता नहीं मिली है) की सुरक्षा के लिए की गयी कार्यवाई को असफल करने में नाटो के हमारे तथाकथित मित्रों ने कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी, जिसे हम न आज तक भूल पाए हैं न ही भविष्य में भूल पाएंगे।"
नाटो, विशेषतः अमेरिका और तुर्की के बीच तनाव के तीन मुख्य मुद्दे हैं- तुर्की द्वारा मानवाधिकारों, लोकतांत्रिक मूल्यों और कानून के शासन की निरंतर अवहेलना; तुर्की द्वारा बड़ी मात्रा में रूस से आधुनिक हथियारों विशेषकर एस-400 मिसाइलरोधी प्रणाली की खरीद और तुर्की की क्षेत्रीय शक्ति के रूप में और इस्लाम के झंडाबरदार बन कर उभरने की तीव्र इच्छा। पहला मुद्दा बाइडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए सदैव ही महत्वपूर्ण रहा है। ट्रम्प के शासनकाल में उनसे अपने मधुर संबंधों के चलते एर्दोगन मानवाधिकारों के हनन और अधिनायकवादी शासन के बावजूद बचते रहे हैं। अभी कुछ दिन पूर्व ही तुर्की के कैदी विपक्षी नेता ओस्मान कवाला की रिहाई को ले कर दस नाटो देशों ने एक बयान जारी किया जिससे नाराज़ हो कर एर्दोगन ने उन्हें तुर्की से निष्काषित करने का आदेश दे दिया। यह तो गनीमत हुई कि समय रहते तुर्की में अमेरिकी राजदूत के प्रयासों से संबंधों पर यह भारी संकट टल गया।
एर्दोगन के साथ रिश्तों के बावजूद अमेरिकी कांग्रेस ने दिसम्बर में ट्रम्प को मज़बूर कर दिया कि अमेरिका रूस से एस-400 खरीदने के कारण तुर्की पर प्रतिबन्ध लगाए। अमेरिका ने इस सौदे के बाद ही तुर्की को सौ एफ-35 युद्धक विमानों की आपूर्ति पर यह कहकर रोक लगा दी कि इससे विमान की तकनीक रूस और अंततः चीन तक पहुँच जाने की सम्भावना है। तुर्की ने अब अमेरिका से अस्सी एफ-16 अत्याधुनिक युद्धक विमानों की मांग की है और कहा है कि पहले के सौदे में किए गए अग्रिम भुगतान को एफ-16 की क़ीमत में व्यवस्थित कर दिया जाए, हालांकि अमेरिका ने अभी तक इस मांग पर कोई कार्यवाई नहीं की है, लेकिन आशा है कि यह सौदा हो जाएगा क्योंकि अमेरिका को भी अपने हथियारों के लिए बाजार चाहिए। राष्ट्रपति जो बाइडेन के शासनकाल में अमेरिका में नीतिगत स्थायित्व अधिक दिखता है, जिससे एर्दोगन की परेशानी बढ़ गयी है। अमेरिका ने ईरान के साथ सहयोग के आरोप में तुर्की के हल्क़ बैंक पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया है।
तुर्की की क्षेत्रीय आकांक्षाएं जगजाहिर हैं। सीरिया, इराक और लीबिया में इसकी सैन्य उपस्थिति तथा पूर्वी भूमध्यसागर को लेकर ग्रीस, साइप्रस और मिश्र के साथ टकराव के अतिरिक्त नागॉर्नो- कारबाख में अज़रबैज़ान के पक्ष में खुलेआम हिस्सा लेने से अमेरिका तुर्की से रुष्ट है। सीरिया में तुर्की की सैन्य कार्यवाई से क्षुब्ध हो कर जर्मनी, इटली और फ्रांस ने भी तुर्की को हथियारों की बिक्री पर आंशिक रोक लगा दी। एर्दोगन की नीतियों के तहत तुर्की ईरान के साथ सम्बन्ध बढ़ा रहा है, फिलिस्तीनी संगठन हमास को समर्थन दे रहा है और इस्लाम की रक्षा के नाम पर नागॉर्नो-कारबाख में सैनिक हस्तक्षेप तथा कश्मीर पर बयानबाज़ी कर रहा है। पश्चिम ने तुर्की के इस रुख को " नव-आटोमनवादी आकांक्षा" बताया है।
प्रतिबंधों और एर्दोगन की नीतियों के कारण तुर्की, जिसके दस बड़े व्यापारिक साझेदार देशों में से चार नाटो सदस्य हैं, की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है-तुर्की मुद्रा लीरा गिरती जा रही है, विदेशी मुद्रा भण्डार खतरनाक ढंग से संकुचित हो रहा है और चालू वित्तीय घाटा बढ़ता ही जा रहा है। नाटो का सदस्य होते हुए भी उसके रूस जैसे प्रबल प्रतिद्वंदी से सम्बन्ध बढ़ाना नाटो की विचारधारा के खिलाफ है। कई विश्लेषक इस विचार के हैं कि तुर्की दो नावों पर एक साथ सवारी करने की कोशिश कर रहा है-वह नाटो में रहते हुए इसके सारे लाभ भी लेना चाहता है और रूस और चीन के विरुद्ध नाटो के क़दमों की सम्मिलित ज़िम्मेदारी से बचना भी।
फिर भी यही लगता है कि निकट भविष्य में नाटो तुर्की के खिलाफ कोई ठोस कार्यवाई करने के खिलाफ है। "नाटो 2030: एक नए युग के लिए एकता" नामक नीति निर्धारक दस्तावेज़ बनाने के लिए गठित समिति के सह-अध्यक्ष और अमेरिकी सीनेटर वेस मिचेल ने हाल ही में सीनेट को एक प्रश्न के उत्तर में बताया कि "यद्यपि तुर्की द्वारा एस-400 की खरीद निश्चय ही हमारे लिए चिंता का विषय है तथापि नाटो के दृष्टिकोण से हमें इस मुद्दे को बड़ी ही सावधानी के साथ देखना होगा। हमें यह ध्यान रखना होगा कि नाटो के मुख्य उद्देश्य-'रूस और अंततः चीन को रोकने तथा उनसे सुरक्षा'- के लिए नैटो सदस्यों के मध्य समरूपता और एकता आवश्यक है।" उन्होंने तुर्की के साथ विमर्श के "राजनीतिक आयाम" पर जोर दिया, जिससे स्पष्ट है कि अमेरिका फिलहाल तुर्की की उच्छृंखलता के बावजूद सम्बन्ध बिगाड़ने के पक्ष में नहीं है। नाटो मूलतः एक सुरक्षा और सैन्य संगठन है जिसमें तुर्की अमेरिका के बाद सर्वाधिक सेना वाला देश है- ऐसे में उसकी सरासर अवहेलना भी नहीं की जा सकती, भले ही इससे दूसरा नाटो सदस्य ग्रीस के आहत हो जाए। अब यह देखना होगा कि तुर्की और अमेरिका के बीच बढ़ रहे परस्पर अविश्वास के इस वातावरण में नाटो किस सीमा तक तुर्की की कारगुज़ारियों को सहन कर सकता है। हालांकि तुर्की के कुछ पर्यवेक्षक अब भी यही कह रहे हैं कि तुर्की का हित नाटो के साथ रहने में ही है किन्तु यह दिखावा भी हो सकता है। वास्तविकता यह है कि अमेरिका और तुर्की, दोनों को ही अभी एक दूसरे की ज़रूरत है और ऐसे समय में, एक भूतपूर्व अमेरिकी राजनयिक और पर्यवेक्षक जेम्स जेफ्री के अनुसार, एर्दोगन द्वारा अपने मित्रों पर सीधा प्रहार करना उन संबंधों को और बिगाड़ सकता है जो अन्यथा बहुत मधुर होते। (लेखक पूर्व राजदूत हैं।)
टिप्पणियाँ