कृष्ण जन्मभूमि, (मथुरा, उत्तर प्रदेश), राम जन्मभूमि, (अयोध्या, उत्तर प्रदेश), मीनाक्षी मंदिर (मदुरै, तमिलनाडु), मदन मोहन मंदिर (वृंदावन, उत्तर प्रदेश), रुद्र महालय (पाटन, गुजरात) हम्पी के मंदिर (हम्पी डम्पी, कर्नाटक), मार्तण्ड सूर्य मंदिर (अनंतनाग,कश्मीर), मोढेरा सूर्य मंदिर (पाटन, गुजरात), काशी विश्वनाथ मंदिर (वाराणसी, उत्तर प्रदेश)। इन सारे मंदिरों के नामों को पढ़ते हुए आप बता सकते हैं कि इनमें एक बात क्या सामान्य है ? वह यह कि यह सभी मंदिर कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा तोड़े गए हैं। जहां—जहां जिहादियों ने अराजकता फैलाई वहां डर से बड़ी संख्या में हिन्दू कन्वर्ट हुए। भारत में रहने वाले हिन्दू ही ईसाई बने और संयोग ऐसा बना कि कलान्तर में यही कन्वर्ट हुए हिन्दू आज मंदिर और आरती से नफरत करते हैं और इस्लामिक और चर्च के चंदे पर चलने वाले एनजीओ ऐसी खबर पर चुप्पी साध लेते हैं। जैसे एनसीबी के अधिकारी समीर वानखेड़े का मामला हो या फिर सिंघु बार्डर पर नृशंस हत्या का शिकार हुए पंजाब के किसान लखबीर सिंह वाली घटना। सारे छद्म अम्बेडकरवादी फंडिंग बिना छटपटाते एनजीओ वालों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। जब सारे आंदोलनजीवी बाहर से आ रहे चंदे पर ही पलेंगे फिर न्याय के साथ कौन खड़ा होगा ? यह बड़ा प्रश्न है।
अब बात दिल्ली के कालिंदी कुंज थाने की। एक हिन्दू परिवार एक सप्ताह से इस बात की शिकायत लेकर आता रहा कि उसके मुस्लिम पड़ोसी उसे पूजा करने से रोक रहे हैं। शिकायत के बाद पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। जब कई हिन्दू संगठन सामने आए तो पुलिस कार्रवाई का भरोसा दे रही है, लेकिन यह क्या मानसिकता है, जो 24 साल से मोहल्ले में रह रहे एक परिवार को इस तरह पूजा पाठ से रोकती है। राजधानी में जब ऐसी स्थिति है तो देश के दूसरे हिस्से में क्या हाल होता होगा। इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। व्यवस्था पर लोगों का विश्वास प्रतिदिन इतना कम होता जा रहा है कि इस तरह के मामले पुलिस के पास पहुंच भी नहीं पाते। यदि रौशन पाठक की तरह कोई साहस भी दिखाता है तो पुलिस थाने में सुनवाई नहीं करती। वह भी थककर बैठ जाता है और मोहल्ले में डर कर जीने को अपनी नियति मान लेता है।
गौरतलब है कि रौशन पाठक पत्नी शांति और दो बच्चों के साथ मदनपुर खादर एक्सटेंशन में पिछले बीस साल से रह रहे हैं। वह निम्न वर्गीय परिवार से आते हैं। उनका जीवन यापन रिक्शा चलाकर होता है। उन्होंने अपने छोटे से घर में एक विशेष स्थान भगवान के मंदिर के लिए दिया है। एक दैनिक पत्र में उनकी बेटी का बयान प्रकाशित हुआ है। बेटी के अनुसार—19 अक्टूबर को वह घर में पूजा कर रही थी। इस दौरान घर के सामने रहने वाला दानिश आया और पूजा करने का विरोध करने लगा। दानिश ने उन्हें धमकी दी कि यह शंख और घंटी बजाना बंद कर दो। शंख और घंटी से उसकी नींद खराब होती है। दानिश के पीछे उसके परिवार के अलावा मोहल्ले में रहने वाले अन्य मुस्लिम परिवार भी एकत्रित होने लगे और पाठक परिवार को शंख न बजाने के लिए धमका कर गए। यहां गौरतलब है कि पाठक परिवार लाउडस्पीकर पर पूजा नहीं करता। वे अपने घर में पूजा करते हैं। यह पूजा भी पूरे दिन में पांच बार नहीं बल्कि एक बार ही होती है। उसके बावजूद उसके सहिष्णु मुसलमान पड़ोसी इसे सहन करने को तैयार नहीं हैं? क्या कन्वर्ट मुसलमान होने की वजह से इस्लाम में जो शांति और सहिष्णुता का संदेश वाला अध्याय है इन लोगों ने ठीक से नहीं पढ़ा ?
मदनपुर खदर में पूजा पाठ कराने वाले पंडित अरविन्द अभय के अनुसार, ''मदनपुर में गली—गली में मस्जिद बनी हुई हैं। वहां पांचों वक्त लाउडस्पीकर पर अजान होती है। कभी हिन्दू परिवारों की तरफ से आपत्ति नहीं की गई। हिन्दुओं को भी मुस्लिम बहुल इलाके में थोड़ी परेशानी होती है, लेकिन पूजा से रोक दिए जाने की बात पहले कभी नहीं हुई। यदि ऐसी घटना मदनपुर खादर में होती है तो यह चिन्ताजनक बात है।''
पाठक परिवार मदनपुर खादर एक्सटेंशन में अकेला पड़ जाता यदि स्थानीय हिन्दू संगठनों को इसकी जानकारी नहीं होती। अब पाठक परिवार के पास संबल है। 26 अक्टूबर को उनके घर सामूहिक हनुमान चालीसा का पाठ हुआ। पाठक परिवार के अनुसार घटना के दिन भी पुलिस को उन्होंने जानकारी दी थी। इसके बाद 23 अक्टूबर को कालिंदी कुंज थाने में लिखित शिकायत दर्ज कराई गई। 25 अक्टूबर को नरेश मित्तल नाम के ट्विटर यूजर ने सीपी दिल्ली को पाठक परिवार का शिकायत पत्र टैग किया। जिसके जवाब में 26 अक्टूबर को डीसीपी साउथ ईस्ट दिल्ली ने लिखा— ''आपकी शिकायत एसीपी सरिता विहार को आवश्यक कार्रवाई के लिए अग्रेसित की गई है।''
28 अक्टूबर को 11:30 पर नरेश मित्तल ने डीसीपी साउथ ईस्ट दिल्ली को लिखा— ''प्रिय डीसीपी साहब इस मसले में आपके सहयोग के बाद भी कोई संतोष जनक कार्रवाई थाने की ओर से नहीं की गई है। अत: आपसे अनुरोध है कि आप पुन: संज्ञान लें और पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने की कृपा करें।''
यह विचार करने वाली बात है कि एक मामले में सांगठनिक सहयोग के बाद भी एक व्यक्ति को न्याय दिलाने में इतनी सारी अड़चने देश की राजनधानी में आ रही हैं। देश के दूसरे हिस्सों में यदि इतने सारे कन्वर्जन के मामले जो हम सुनते हैं, उसके पीछे व्यवस्था की यही बेबसी तो नहीं है। जहां पहले आपसे पूजा करने का अधिकार छीना जाता है और फिर धीरे—धीरे अपनी पद्धति थोप दी जाती है।
क्या हम अपनी ही बनाई गई व्यवस्था के बीच इतने बेबस हैं कि एक संतोष पाठक को उसकी पद्धति से पूजा करने से रोका जाए और व्यवस्था तमाम तरह के प्रयासों के बीच भी कार्रवाई ना करने को मजबूर दिखे।
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