राम माधव
भारतीय वामपंथियों के लिए सिजो-फासीवाद कोई नई बात नहीं है। ताजा उदाहरण में वे 1921 की मोपला बर्बरता पर लीपापोती की कोशिश कर रहे हैं और नरसंहार के खलनायकों को नायक के रूप में प्रस्तुत करने की कवायद में हैं
फासीवादी इतिहास को जबरदस्त तरीके से विकृत करने के लिए कुख्यात हैं। लेकिन कम्युनिस्ट उनसे एक कदम आगे हैं। वे नुकसान का विचार किए बिना न केवल इतिहास को विकृत करते हैं, बल्कि अपने विरोधियों को फासीवादी भी बताते हैं। स्टालिन ने यहूदियों को फासीवादी बताया। ब्रेझनेव ने पूरे पूंजीवादी पश्चिम को फासीवादी कहा। भारत में उनके लिए राष्ट्रवादी लोग फासीवादी हैं।
इतिहास को विकृत करने की खुली मंशा के साथ स्टालिन ने मांग की कि वर्ष 1941 को द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत संघ के प्रवेश के वर्ष के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। 1939-41 के दौरान नाजी दोस्त हिटलर के साथ उनकी घनिष्ठता, 1939 में पोलैंड पर आक्रमण और 1940 में बाल्टिक राज्यों पर हमला, 1940 में कैटिन में हजारों पोलिश लोगों का नरसंहार, सबको पर्दे के पीछे छिपा दिया गया।
रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने एक कानून लागू किया है जिसके अनुसार 1939-41 की घटनाओं के बारे में बात करना अपराध माना जाता है। इससे एक कदम आगे बढ़कर रूसी सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह की विषय वस्तु को पुन: चस्पां (पोस्ट) करने को एक दंडनीय अपराध बना दिया।
मोपला की बर्बरता
इतिहासकार टिमोथी स्नाइडर ने इस व्यवहार को ‘सिजो-फासीवाद’ यानी विखंडित फासीवाद कहा है। भारतीय वामपंथियों के लिए सिजो-फासीवाद कोई नई बात नहीं है। वे अपनी वैचारिक सनक के अनुरूप अपनी इच्छा से इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं, परंतु तथ्यों पर टिके रहने वालों पर फासीवादी होने का आरोप लगाते हैं। कम्युनिस्ट सिजो-फासीवाद का ताजा उदाहरण 1921 की मोपला बर्बरता के इतिहास पर लीपापोती करने की कोशिश करना है।
अरब के शुरुआती मुस्लिम प्रवासियों के वंशज ‘मोपला’ उत्तरी केरल के मालाबार क्षेत्र में बड़ी संख्या में रहते थे। मोपला नेताओं को आम तौर पर कट्टर और हिंसक रूप में देखा जाता था। यहां तक कि वरिष्ठ वामपंथी नेता ईएमएस नंबूदरीपाद ने अपनी पुस्तक ‘केरलथिंडे देशीय प्रश्नम’ (केरल की राष्ट्रीय समस्या) में केरल में इस प्रवृत्ति का उल्लेख किया था। उन्होंने लिखा है, ‘वे मजहबी कट्टरपंथी थे, उनका मानना था कि काफिर को मारना या मजहब परिवर्तन कराना उन्हें जन्नत की दहलीज तक ले जाएगा।’
कांग्रेस नेतृत्व ने 1920 में असहयोग आंदोलन शुरू किया और इसे खिलाफत आंदोलन से जोड़ा। मोपला नेता खिलाफत आंदोलन में कूद पड़े। यह महसूस करते हुए कि खिलाफत के नाम पर मोपला नेताओं की हिंसक गतिविधियां हिंदुओं को पीछे हटने के लिए मजबूर कर रही थीं। गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन के नेता शौकत अली के साथ इस क्षेत्र का दौरा करने का फैसला किया। हालांकि गांधी ने शांतिपूर्ण प्रतिरोध की वकालत की, जबकि शौकत अली ने जिहाद की भाषा का सहारा लिया। मोपलाओं के प्रमुख चेहरे कुंज अहमद हाजी ने कांग्रेस की ‘हिंदू छवि’ को दोष देते हुए कांग्रेस के आंदोलन में शामिल होने से इनकार कर दिया। इसके बजाय, उन्होंने अगस्त 1921 में खिलाफत आंदोलन शुरू किया। बड़ी संख्या में चाकू, तलवार और अन्य घातक हथियारों का निर्माण किया गया। बड़े पैमाने पर हिंसा और आगजनी की गई। हाजी ने अली मुसलियार के साथ मिलकर दो तहसीलों – एर्नाड और वल्लुवमद में इस्लामी खिलाफत की स्थापना की घोषणा की।
हालांकि तुर्की में, मुस्तफा कमाल पाशा जैसे सेकुलर नेताओं द्वारा तुर्क खलीफा को हटा दिया गया था, जबकि मालाबार में कांग्रेस को जो मिला, वह स्वराज्य नहीं बल्कि खिलाफत था। अंग्रेज मोपलाओं पर भारी पड़े। उसके बदले मोपलाओं ने अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अपना गुस्सा निकाला। अगले चार महीने मालाबार के हिंदुओं के लिए जीवन नरक बन गया था।
गांधी जी का पछतावा
दुखी गांधीजी ने पछताते हुए कहा, ‘‘मालाबार में जो हुआ, वह हमारे दिमाग को कुरेदता रहता है। मेरा दिल रोता है जब मैं सोचता हूं कि क्या हमारे मुस्लिम भाई पागल हो गए हैं।’’
डॉ. आंबेडकर अधिक स्पष्टवादी थे। उन्होंने लिखा, ‘‘मोपलाओं के हाथों हिंदुओं की नियति की भयानक दुर्दशा हुई। मोपलाओं द्वारा हिंदुओं का खुलेआम नरसंहार, जबरन कन्वर्जन, मंदिरों को अपवित्र करना, गर्भवती महिलाओं को चीर देना जैसे अत्याचार, लूटपाट, आगजनी और विनाश किए गए- संक्षेप में, क्रूरता और अनर्गल बर्बरता की सारी हदें पार कर दी गर्इं।’’
समकालीन ब्रिटिश रिकॉर्ड और मीडिया कवरेज बर्बरता के स्पष्ट विवरण प्रदान करते हैं। मीडिया ने एक लाख से अधिक विस्थापितों के लिए बनाए गए दर्जनों शिविरों के बारे में लिखा। मलयालम लेखकों ने अपने लेखन में मोपला की भयावहता को दर्शाया है। श्री नारायण गुरु के एक करीबी शिष्य कुमारनाशन ने 1922 में लिखी एक कविता में स्पष्ट रूप से मोपलाओं को हिंदुओं पर बर्बरता के लिए दोषी ठहराया। उन्होंने लिखा, ‘कोलक्कारोट्टेल वेट्टीकोलाचेदुम अल्लाह मथाथिल पिडिचु चेरदुम’, जिसका अर्थ है, ‘लुटेरों ने कई लोगों को मौत के घाट उतार दिया और कई को जबरन अल्लाह के मजहब में परिवर्तित कर दिया।’
मालाबार की पीड़िताओं का दर्द
मालाबार की महिलाओं ने वायसराय रीडिंग की पत्नी को एक मायूसी भरा पत्र भेजा। उन लोगों ने लिखा, ‘‘रानी जी! आप नीच विद्रोहियों द्वारा की गई क्रूरता और सारी बर्बरता से पूरी तरह से अवगत नहीं हैं। तमाम कुएं और तालाब, हमारे उन करीबी और प्रिय लोगों के विकृत और खासकर अधकटी लाशों से भरे पड़े हैं, जिन्होंने हमारे पूर्वजों के धर्म को छोड़ने से इनकार कर दिया, गर्भवती महिलाओं के टुकड़े-टुकड़े करके और अजन्मे बच्चों की क्षत-विक्षत लाश निकालकर सड़क के किनारे और जंगलों में फेंक दिया गया; हमारे मासूम और असहाय बच्चों को हमारी गोद से छीनकर हमारी आंखों के सामने मार डाला गया और हमारे पतियों और पिताओं को प्रताड़ित किया गया। उनकी खाल खींचकर हमारी आंखों के सामने जिंदा जला दिया गया; हमारे हजारों घरों को राख के टीले में बदल दिया गया; हमारे पूजा स्थलों को अपवित्र और नष्ट कर दिया गया और देवता की मूर्तियों पर काटी हुई गायों की अंतड़ियां फेंककर अपमानपूर्ण तरीके से तिरस्कार किया गया, या फिर वे टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए। पीढ़ियों की गाढ़ी कमाई की भारी लूटपाट की गई, और जो लोग पहले सम्पन्न और समृद्ध थे, उन्हें कालीकट की गलियों में सार्वजनिक रूप से भीख मांगने को मजबूर कर दिया गया।’’
हालांकि, कुंज अहमद हाजी ने अक्तूबर 1921 में ‘दि हिंदू’ को लिखे एक पत्र में कोई भी गलत काम करने से साफ इनकार किया। उन्होंने हिंदुओं पर अंग्रेजों के साथ मिलीभगत करने और छिपे हुए मोपलाओं को उन्हें सौंपने का आरोप लगाते हुए पीड़ितों को दोषी ठहराया, जिसके लिए केवल ‘कुछ हिंदुओं को कुछ परेशानी उठानी पड़ी’।
सिजो-फासीवाद की शुरुआत
सिजो-फासीवाद तब चलन में आया जब 1971 में केरल में कम्युनिस्ट सरकार ने मोपला लोगों को ‘स्वतंत्रता सेनानी’ का दर्जा दिया। माकपा ने हिंदुओं की पीड़ा के बारे में बिल्कुल भी बात नहीं की, बल्कि हास्यास्पद तरीके से घोषणा की कि दस हजार मोपला मारे गए। वर्तमान वाम मोर्चा सरकार की योजना हाजी जैसे मोपला खलनायकों को नायक के रूप में पेश करने की है, और उसकी शताब्दी का उपयोग वह एक अवसर के रूप में कर रही है। नेपोलियन ने एक बार चुटकी ली थी, ‘आखिरकार इतिहास क्या है, यह परस्पर सहमति से बनी एक कहानी है।’ केरल में वामपंथियों और कांग्रेस ने अतीत में मोपला विद्रोह के बारे में इस कहावत को कायम रखने के लिए हाथ मिला लिया था।
भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आइसीएचआर) अब स्वतंत्रता सेनानियों की सूची से मोपला नेताओं के नाम हटाकर सिजो-फासीवाद को पलटना चाहती है। यह किसी समुदाय के खिलाफ नहीं है। जिन नामों को हटाने की सिफारिश की गई है, उनमें कई हिंदू भी शामिल हैं। यह इतिहास से सबक सीखने के लिए है। क्योंकि, जैसा कि जवाहर लाल नेहरू ने एक बार कहा था, ‘जो लोग इतिहास को भूल जाते हैं, वे उसे दोहराने के दोषी होते हैं।’
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और इंडिया फाउंडेशन के प्रशासक मंडल के सदस्य हैं)
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