राजर्षि हल्दर
पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद हुई राजनीतिक हिंसा लोकतंत्र के पतन की कहानी कहती है। राज्य में ये हालात हो गए कि माननीय उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा और कहना पड़ा कि राज्य में जनता का जीवन और आजादी खतरे में है। राज्य में सत्ता की बर्बर तानाशाही के कारण हिंसा और बलात्कार से पीड़ित लोग पुलिस में मुकदमा दर्ज कराने से भी डर रहे थे और पुलिस भी कोई मदद नहीं कर रही थी
अप्रैल-मई, 2021 के दौरान भारत के चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए। असम में भारी चुनाव प्रचार के बावजूद कुछ भी अप्रिय नहीं घटा। तमिलनाडु और पुडुचेरी में भी शांति रही। राजनीतिक हिंसा के लिए मशहूर केरल भी शांत बना है। लेकिन टीएमसी शासित पश्चिम बंगाल में मानो हिंसा की सुनामी उमड़ पड़ी— विरोधी पार्टी के कई कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई, उनके घर जलाए और ढहाए जा रहे हैं, वहां तोड़-फोड़ की जा रही है। इसके अलावा छेड़छाड़ और बलात्कार के भी कई मामले सामने आए हैं। सड़कों पर बेलगाम उत्पाती भीड़ का ही कानून चल रहा है।
पश्चिम बंगाल में 2018 के पंचायत चुनावों के दौरान हिंसा की एक नई प्रवृत्ति दिखी जिसके आवेग में राजनीतिक विरोधियों को बेदर्दी से निशाना बनाया गया। उस समय विरोधी पार्टी के 76 कार्यकर्ताओं की या तो हत्या कर दी गई, या उनकी अप्राकृतिक मौत हो गई। वही प्रवृत्ति आज और बलवाई बन कर उभरी है। कोलकाता के बुजुर्गों के मन में आजादी से ठीक पहले 1946 में हुई 'ग्रेट कलकत्ता किलिंग' की यादें आज भी ताजा हैं। वे अब खुद से सवाल कर रहे हैं कि 'क्या आजादी के बाद भी हमारे सामने वही पश्चिम बंगाल खड़ा है?'
हिंसा का भयावह खेला
पश्चिम बंगाल में 2021 के विधानसभा चुनाव में टीएमसी को करीब 2 करोड़ 88 लाख वोट मिले जबकि भाजपा के हिस्से करीब 2 करोड़ 28 लाख वोट आए। लेकिन सीट बंटवारे में टीएमसी को 213 सीटों का फायदा हुआ, वहीं भाजपा को मात्र 77 सीटें मिली और सिर्फ एक सीट आईएसएफ के पास गई। वामपंथी दल और कांग्रेस मन मसोस कर रह गई क्योंकि 2021 के विधानसभा चुनाव में उनका तो खाता तक नहीं खुला। बंगाल में पिछली विधानसभा में 3 सीटों पर काबिज भाजपा ने लंबी छलांग लगाते हुए इस बार 77 सीटें हासिल की हैं, लिहाजा अब वही एकमात्र प्रतिद्वंद्वी है। उसने विनम्रतापूर्वक जनता के फैसले को स्वीकार कर लिया। लेकिन सरकार बनाने वाली टीएमसी पार्टी सड़कों पर उतर कर हिंसक उत्पात मचाने लगी। उनकी मुख्यमंत्री चुनाव के दौरान ही अपने विरोधियों को देख लेने की छिपी धमकी देती रही थीं। चुनाव के बाद अब उनके अंधभक्त कार्यकर्ता सड़कों पर उन्मत घूमने लगे और हिंसा का खेला शुरू कर दिया।
लिहाजा उन सभी राजनेताओं के लिए यह अग्निपरीक्षा की घड़ी है जो सिद्धान्तों का पालन करते हैं। राजनीति का अस्तित्व तभी बरकरार है, जब तक लोकतंत्र और स्वतंत्र चुनाव का विकल्प जिंदा है। जब लोकतंत्र पर खतरा मंडराता है और लोग अपनी सुविधानुसार चुप रह जाते हैं कि उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचने वाला, तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल होती है। उन्हें शायद इसका अंदाजा ही नहीं है कि लोकतंत्र के विरोध में पनपी पतली-सी धारा निरंकुश होने पर चक्रवाती ज्वार बनकर सबकुछ तबाह कर सकती है। छूट मिलने भर की देर है, भीड़ को दूसरे दरवाजों तक पहुंचने में ज्यादा समय नहीं लगता। पश्चिम बंगाल स्थापित भारतीय लोकतांत्रिक माहौल से एक अलग तस्वीर पेश कर रहा है। राज्य में विभिन्न चरणों के चुनाव होते हैं और वहां संवैधानिक रूप से जनादेश आधारित सरकारें रही हैं। लेकिन उनका स्वरूप लोकतंत्र से अलहदा दिखता है।
लोकतंत्र को कुचलने की कवायद
पश्चिम बंगाल में चुनाव के बाद जैसी बर्बर हिंसा हुई, वह राजनीति के पक्षपातपूर्ण ध्रुवीकरण का एक निकृष्ट संकेतक है जिसमें प्रतिद्वंद्वियों को दुश्मन माना जाता है। यह लोकतंत्र के पतन के लक्षण हैं: ऐसी घटनाओं को जब राजनीतिक संरक्षण मिलता है तो साफ है कि भारतीय लोकतंत्र के सिद्धांतों और परंपराओं के साथ विश्वासघात होता है। तीन साल पहले जब पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव में लगभग 58,000 उम्मीदवारों में से 20,000 से अधिक उम्मीदवार ‘निर्विरोध’ चुने गए थे तभी सुप्रीम कोर्ट ने आगाह किया था।
पश्चिम बंगाल को एक तानाशाही सरकार चलाने की अनुमति नहीं दी जा सकती, जो ‘सर्वोच्च नेता’ की रजामंदी नहीं होने पर किसी भी राजनीतिक गतिविधि को सड़कों पर उबलती हिंसा से कुचल देती है। राज्य में हिंसा की यह संस्कृति मार्क्सवादियों की कपटपूर्ण राजनीति से जन्मी है जिसे उसके उत्तराधिकारी टीएमसी के कार्यकर्ता अब पूरी निष्ठा से निभा रहे हैं। उनका लक्ष्य देश की लोकतांत्रिक और संघीय व्यवस्था के स्तभों को धराशायी करना है।
जब वामपंथी मोर्चा सत्ता में आया था तो उसने भूमि के पुनर्वितरण और नए पंचायती राज जैसे महत्वपूर्ण कदम उठाए, लेकिन जमींदारों का वर्चस्व खत्म होने से जो नया ढांचा उभरा, वह प्रभुत्व का एक नया चेहरा बन बैठा: सत्ताधारी पार्टी या नेता। हिंसा की विरासत को पार्टी कार्यकर्ता आगे बढ़ाते रहे और वामपंथी शासन के तहत बेहिसाब हिंसक घटनाएं होती रहीं जिसमें कारखानों के लिए कृषि भूमि को जब्त करने से जुड़ी हिंसक कार्रवाईयां भी फेहरिस्त में शामिल होती गर्इं।
इस बार, तृणमूल कांग्रेस ने राज्य की 292 सीटों में से 213 सीटें हासिल कर भारी जीत दर्ज की, लेकिन इसके साथ ही राज्य के विभिन्न हिस्सों से हिंसा की भयावह खबरें आने लगीं। टीएमसी समर्थकों ने विभिन्न जिलों में भाजपा और माकपा कार्यकर्ताओं के घरों, दुकानों में तोड़फोड़ की, भाजपा ने भी जवाब में टीएमसी कार्यकर्ताओं के साथ झड़प की और एक पराजित टीएमसी उम्मीदवार पर भी हमला किया। पूर्वी बर्धमान जिले में झड़पों में कम से कम चार लोग (कथित तौर पर टीएमसी के तीन पुरुष कार्यकर्ता और भाजपा की एक महिला कार्यकर्ता) मारे गए।
हुगली के खानकुल में टीएमसी कार्यकर्ता देबू प्रमाणिक की हत्या कर दी गई। कोलकाता में रविवार देर रात कांकुरगाछी इलाके में टीएमसी कार्यकर्ताओं ने भाजपा कार्यकर्ता को इतना मारा कि उसकी मौत हो गई। 24 उत्तर परगना में आईएसएफ के एक समर्थक के मारे जाने की खबर आई— फेहरिस्त बड़ी लंबी है। 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी हिंसा की करीब 650 घटनाएं हुई थीं, जिनमें 11 लोग मारे गए थे। मतदान के दिन 33 लोगों के मरने की सूचना मिली थी।
कॉल फॉर जस्टिस की रिपोर्ट
प्रसिद्ध नागरिक समाज संगठन – 'कॉल फॉर जस्टिस' ने सिक्किम उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) प्रमोद कोहली की अध्यक्षता में पश्चिम बंगाल में मतदान के बाद की हिंसा पर तथ्यात्मक अध्ययन आधारित रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस रिपोर्ट में पश्चिम बंगाल में चुनाव के बाद हुई 15,000 हिंसक घटनाओं का ब्योरा पेश किया गया है जिसमें 25 लोगों की हत्या और 7,000 महिलाओं के साथ छेड़छाड़ या बलात्कार के मामलों का उल्लेख किया गया है। पश्चिम बंगाल के कई गांवों और कस्बों को चुनाव के बाद की हिंसा की भयावहता ने अपनी चपेट में ले लिया जिसकी शुरुआत 2 मई की स्याह रात से हुई जब विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित किए गए। रिपोर्ट में कहा गया है, "साफ नजर आता है कि ज्यादातर घटनाएं छिटपुट नहीं बल्कि पूर्व नियोजित, संगठित और षड्यंत्रकारी हैं।
रिपोर्ट तैयार करने के लिए पांच सदस्यीय टीम ने पश्चिम बंगाल का दौरा किया था और विभिन्न वर्गों के लोगों से बातचीत करके ब्योरे तैयार किए। रेड्डी ने रिपोर्ट के हवाले से कहा कि राज्य के 16 जिले चुनाव के बाद हुई हिंसा से प्रभावित हुए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि चुनाव के बाद भड़की हिंसा के कारण कई लोगों ने अपना घर छोड़कर असम, झारखंड और ओडिशा में शरण ली है।
रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आवासीय और वाणिज्यिक संपत्ति को नष्ट करने ओर तोड़फोड़ के पीछे बलवाइयों का एकमात्र उद्देश्य लोगों को उनकी आजीविका से वंचित करना और उन्हें आर्थिक रूप से तबाह करना था। इसमें कहा गया है कि वे लोग सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं जो दिहाड़ी रोजगार से जुड़े थे या ऐसे व्यवसाय पर निर्भर थे जिनकी वित्तीय स्थिति कमजोर थी।
ज्यादातर मामलों में पीड़ितों ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराने से परहेज किया क्योंकि उन्हें डर था कि बलवाई उन्हें फिर परेशान करेंगे, या उनका पुलिस पर विश्वास नहीं था। जिन पीड़ितों ने हिम्मत जुटाई और रिपोर्ट करने के लिए गए तो पुलिस ने उन्हें दोषियों के साथ मामला सुलझा लेने की सलाह दी या फिर मामला दर्ज करने से ही साफ इनकार कर दिया। कई लोग अपने घरों और गांवों को छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर चले गए और राज्य के अंदर और बाहर के शिविरों में शरण ली।
भाजपा के 60,000 कार्यकर्ताओं का पलायन
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने हाल ही में दावा किया था कि टीएमसी ने इस साल चुनाव के बाद की हिंसा में उनकी पार्टी के बयालीस कार्यकर्ताओं को मार डाला। उन्होंने यह भी दावा किया कि उनके लगभग 60,000 कार्यकर्ता या समर्थक अपने घरों में नहीं लौट रहे क्योंकि उनके घरों पर खतरा मंडरा रहा है और उनपर बलवाइयों की गिद्ध दृष्टि जमी है। दूसरी ओर, टीएमसी ने दावा किया था कि चुनाव परिणाम के एक हफ्ते बाद उसके चार समर्थक मारे गए थे। माकपा ने भी वहां की खूनी घटनाओं में अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को खोया है। उनका कार्यालय भी जला दिया गया है। आईएसएफ के कई समर्थकों के घरों को ध्वस्त कर दिया गया और क्षति पहुंचाई गई। उनके दो समर्थकों की भी हत्या कर दी गई जैसा कि उन्होंने आधिकारिक तौर पर दावा किया है।
इससे पहले माननीय कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष कई याचिकाएं, विशेष रूप से डब्ल्यूपीए (पी) 142, 2021; डब्ल्यूपीए (पी) 143 , 2021; डब्ल्यूपीए (पी) 144, 2021; डब्ल्यूपीए (पी) 145, 2021; डब्ल्यूपीए (पी) 147 , 2021; डब्ल्यूपीए (पी) 148, 2021; डब्ल्यूपीए (पी) 149, 2021; डब्ल्यूपीए (पी) 167; दायर की गर्इं थीं, जिनमें आरोप था कि टीएमसी के कार्यकर्ताओं द्वारा चुनाव के बाद भड़काई हिंसा में पश्चिम बंगाल के राज्य निवासियों को प्रतिद्वंद्वी दल, भारतीय जनता पार्टी का समर्थन करने के लिए आतंकित, दंडित और प्रताड़ित किया जा रहा है और उनकी हत्या की जा रही है। अदालत ने मामले की सुनवाई के लिए चीफ जस्टिस राजेश बिंदल, जस्टिस आईपी मुखर्जी, जस्टिस हरीश टंडन, जस्टिस सौमेन सेन, जस्टिस सुब्रत तालुकदार" समेत 5 वरिष्ठतम न्यायाधीशों की विशेष बेंच का गठन किया और कई आदेश पारित किए।
उच्च न्यायालय ने कहा, लोगों के जीवन पर खतरा
10 मई, 2021 के आदेश के अनुसार माननीय कलकत्ता उच्च न्यायालय ने याचिका पर गौर करते हुए पाया कि चुनाव के बाद की हिंसा के कारण राज्य में लोगों के जीवन और आजादी पर खतरा है और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग के कार्यालय में भी राज्य में चुनाव के बाद हुई हिंसा संबंधी कई शिकायतें प्राप्त हुई हैं। ये आयोग चुनाव के दौरान या चुनाव के बाद हुई हिंसा के संबंध में प्राप्त शिकायतों को पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिदेशक को उनकी आधिकारिक ई-मेल आईडी पर भेज सकते हैं ताकि वह उन मामलों पर उचित कार्रवाई के लिए उन्हें संबंधित अपने पुलिस थानों में स्थानांतरित कर सकें।
18 मई, 2021 के आदेश द्वारा माननीय कलकत्ता उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग को राज्य में चुनाव के बाद की हिंसा के संदर्भ में भेजी गई शिकायतों को पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिदेशक की आधिकारिक ई-मेल आईडी पर आगे बढ़ाने के अदालत के पिछले आदेश के संदर्भ में पुलिस महानिदेशक के पास उन आयोगों की ओर से प्राप्त शिकायतों की संख्या के संबंध में न्यायालय में कोई सूचना प्रस्तुत नहीं की गई है। इसलिए सुनवाई की अगली तारीख पर उन मामलों से संबंधित जानकारी न्यायालय में प्रस्तुत की जाए। इस बीच, हम निर्देश देते हैं कि अगर किसी व्यक्ति को चुनाव के बाद की हिंसा के कारण नुकसान हुआ है, तो उसे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग में सहायक दस्तावेजों के साथ शिकायत दर्ज करने की स्वतंत्रता होगी। इसे हार्ड कॉपी के रूप में या आॅनलाइन भी भेजा जा सकता है। वह आयोग उन शिकायतों को आगे पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिदेशक को तुरंत भेजे। इन मामलों को आगे के विचार के लिए 25 मई, 2021 को अपराह्न 2.00 बजे सूचीबद्ध करें।
राज्य सरकार को मनमानी की इजाजत नहीं
18 जून, 2021 के आदेश में माननीय उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामले में जहां आरोप यह है कि राज्य के निवासियों के जीवन और संपत्ति को कथित चुनाव बाद उभरी हिंसा के कारण खतरा है, राज्य को मनमानी करने की इजाजत नहीं मिल सकती। शिकायतों पर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखना और राज्य के निवासियों में विश्वास जगाना राज्य का कर्तव्य है। इन परिस्थितियों और इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास बुनियादी ढांचा उपलब्ध है और न्यायालय ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष से राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण के सदस्य सचिव को शामिल करते हुए एक समिति गठित करने का अनुरोध किया और उन सभी मामलों की जांच करने की हिदायत दी जिनकी शिकायतें आयोग को पहले ही प्राप्त हो चुकी हैं या जो बाद में दर्ज हो सकती हैं। समिति सभी मामलों की जांच करेगी और प्रभावित क्षेत्रों का दौरा भी कर सकती है और वर्तमान स्थिति के बारे में न्यायालय को एक व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी और लोगों में पुन: विश्वास जगाने के लिए उठाए जाने वाले कदमों को भी सुनिश्चित करेगी कि वे अपने घरों में शांति से रह सकते हैं और निश्चिंत होकर आजीविका कमाने या अपना व्यवसाय चलाने के लिए बाहर निकल सकें। अपराध के लिए प्रथम दृष्टया जिम्मेदार व्यक्तियों और इस मुद्दे पर सोचा-समझा मौन अपनाने वाले अधिकारियों की पहचान की जाए और उनसे कारण पूछा जाए। पश्चिम बंगाल राज्य मानवाधिकार आयोग का एक प्रतिनिधि भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से जुड़ा होगा। जाहिर है कि राज्य को समिति की सभी जरूरी सुविधाओं की पूर्ति करनी होगी और जब वह किसी स्थान का दौरा करना चाहे तो राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि इस प्रक्रिया में किसी प्रकार की कोई बाधा न आए। अगर कोई अड़चन डाली गई तो अदालत इसे गंभीरता से लेते हुए न्यायालय की अवमानना अधिनियम के तहत कार्रवाई कर सकती है।
21 जून, 2021 के आदेश के तहत माननीय उच्च न्यायालय ने देखा कि न्यायालय द्वारा पारित 18 जून, 2021 के आदेश को वापस लेने या संशोधित करने के लिए राज्य ने कई आवेदन पेश किए हैं। उस आदेश के पालन पर रोक के लिए भी प्रार्थना की गई है। जिन मामलों पर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता थी, उसके सबंध में राज्य जिस तरह से आगे बढ़ रहा था उससे राज्य के प्रति विश्वास नहीं पनपता। राज्य अब शिकायतों के संदर्भ में जो भी जानकारी प्रस्तुत करना चाहता है, उसे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष रखा जाएगा, जो राज्य द्वारा प्रदान की गई जानकारियों की रोशनी में सभी शिकायतों की जांच करेगा और न्यायालय के समक्ष एक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा। राज्य के प्रति कोई पूर्वाग्रह न रखते हुए स्थितियों के मद्देनजर राज्य के वर्तमान आवेदन खारिज किए जाते हैं।
सभी मामलों को दर्ज करने के पुलिस को आदेश
ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली सरकार को तब एक बड़ा झटका लगा जब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने चुनाव के बाद की हिंसा पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट पढ़ने के बाद पुलिस को उन सभी मामलों को दर्ज करने का निर्देश दिया जिनकी रिपोर्ट आई है या जो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या किसी अन्य प्राधिकरण या आयोग के पास भेजी गई हैं। सीआरपीसी की धारा 164 के तहत पीड़ितों के बयान दर्ज करवाने की भी हिदायत दी गई।
उच्च न्यायालय ने माना कि हिंसा हुई है, साथ ही उसने यह भी गौर किया कि ममता बनर्जी की सरकार का बर्ताव बहुत गलत था और जब लोग मर रहे थे और यहां तक कि नाबालिग लड़कियों के उत्पीड़न पर भी वह सारी घटनाओं को नकार रही थी।
हैरानी की बात है कि अब तक पश्चिम बंगाल सरकार हिंसा से गुजरे पीड़ितों के बीच विश्वास का माहौल नहीं बना पाई है। अदालत ने कहा, ‘चुनाव के बाद भयंकर हिंसा हो रही थी और सरकार का रुख बिल्कुल गैरजिम्मेदाराना था और वह लगातार नकारती रही कि कुछ गलत हो रहा है। हिंसा में कई लोग मारे गए हैं। कई लोगों को यौन हिंसा और गंभीर चोटों का सामना करना पड़ा। यहां तक कि नाबालिग बच्चियों को भी नहीं बख्शा गया। उनका बेरहमी से यौन शोषण किया गया। कई लोगों की संपत्ति नष्ट कर दी गई और कई लोगों ने घर छोड़ने के लिए मजबूर होकर पड़ोसी राज्यों में शरण ली।’
अदालत ने कहा, ‘अब तक राज्य ऐसा माहौल नहीं बना पाया है जो पीड़ितों में अपने घर वापस लौटने या अपना व्यवसाय दुबारा शुरू करने का विश्वास पैदा कर सके।’
कोर्ट ने यह भी देखा कि दर्ज मामलों की जांच सही तरीके से नहीं की गई थी और जघन्य अपराधों में शायद ही कोई गिरफ्तारी हुई थी। लोग इतने डर में जी रहे हैं कि जब तक अदालत ने मामले का संज्ञान नहीं लिया, तब तक उन्होंने शिकायत दर्ज नहीं की थी।
यह देखा गया कि चुनाव के बाद की हिंसा का निरीक्षण करने के लिए नियुक्त समिति द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब देने में विभिन्न अधिकारी विफल रहे हैं। साथ ही, हिंसा में घायल हुए कई लोगों को अपने इलाज में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें राज्य सरकार से कोई सहयोग नहीं मिल रहा है। कुछ को अपना राशन लेने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि उनके राशन कार्ड बलवाई छीन कर ले गए।
उच्च न्यायालय ने जगाया पीड़ितों में भरोसा
उच्च न्यायालय के 18 जून के आदेश का पालन करते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पश्चिम बंगाल में चुनाव के बाद हुई हिंसा की जांच के लिए सात सदस्यीय समिति का गठन किया है। एक अधिकारी के अनुसार समिति को रविवार से शिकायतकर्ताओं से आवेदन मिलने लगे हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को चुनाव के बाद की हिंसा के दौरान कथित मानवाधिकार उल्लंघन के सभी मामलों की जांच के लिए एक समिति गठित करने के 18 जून के अपने आदेश को वापस लेने से कलकत्ता उच्च न्यायालय के इनकार के बाद पीड़ित अब ज्यादा संख्या में अपनी कहानियां साझा कर रहे हैं, जिनमें यौन उत्पीड़न का शिकार हुई महिलाएं भी शामिल हैं।
एक मशहूर कथन है, बंगाल जो आज सोचता है, वह भारत के आने वाले कल की सोच है। गोपाल कृष्ण गोखले के ये शब्द एक प्रगतिशील राज्य के रूप में इसके भविष्य की कल्पना करते हुए बंगाल के ऐतिहासिक महत्व का वर्णन करते हैं। दुर्भाग्य से, पश्चिम बंगाल गोखले के शब्दों पर खरा नहीं उतरा। बंगाल चुनाव परिणामों के बाद जो हिंसा हुई, वह लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन की कहानी है जिससे राज्य की छवि स्याह हो गई। हिंसा और भ्रष्टाचार के ऐसे उदाहरण भारत के संविधान द्वारा गठित लोकतांत्रिक समाज की भावना को मार रहे हैं। इसपर लगाम जरूरी है।
(लेखक कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं)
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