डॉ. सुनील पारीक
दो महीने के अंदर सरसों के तेल के दाम लगभग दोगुने हो गए हैं। इसका पहला कारण है सरसों तेल में अन्य किसी तेल की मिलावट पर रोक, दूसरा, सरसों की कीमत का बढ़ना। इसके साथ ही कुछ अन्य कारण भी हैं
इन दिनों हर घर में यह चर्चा है कि सरसों का तेल महंगा होता जा रहा है। इसमें दो राय नहीं कि सरसों तेल मंहगा होने से हर आदमी हैरान है। इसलिए यह पता करना जरूरी है कि दाम बढ़ने के पीछे क्या कारण हैं? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसआई) ने 8 जून, 2021 से सरसों तेल में अन्य खाद्य तेलों की मिलावट को प्रतिबंधित कर दिया है। उल्लेखनीय है कि अभी तक सरसों के तेल में पॉम आॅयल, राइस ब्रांड आॅयल आदि की मिलावट होती थी। आपको आश्चर्य होगा कि एक जून से पहले तक सरसों तेल में 40-50 प्रतिशत तक पाम आॅयल मिलाया जाता था। कभी-कभी तो यह मात्र 80 प्रतिशत तक होती थी। यानी आपको शुद्ध सरसों तेल नहीं मिलता था। इस कारण तेल के दाम कम तो रहते थे, लेकिन उपभोक्ता के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता था।
इन सबको ध्यान में रखते हुए भारतीय किसान संघ ने कुछ दिन पहले केंद्रीय कृषि मंत्री को ज्ञापन देकर मांग की थी कि सरसों के तेल में कोई मिलावट न हो, यह सुनिश्चित किया जाए।
इसके बाद सरकार ने एफएसएसआई के माध्यम से सरसों तेल में किसी भी प्रकार की मिलावट को प्रतिबंधित कर दिया है। यानी अब बाजार में शुद्ध सरसों तेल मिल रहा है। जब किसी चीज में शुद्धता होगी तो उसके दाम भी अधिक हो जाएगा। यही सरसों के तेल के साथ हो रहा है।
यहां हमें सरसों तेल के उत्पादन के गणित को देखना होगा। अभी मंडियों में सरसों लगभग 7,000 रु. प्रति कुंतल बिक रही है। इस पर छह प्रतिशत जीएसटी और एक प्रतिशत मंडी शुल्क अलग से लगता है। सरसों से लगभग 30 प्रतिशत तेल और बाकी 67 प्रतिशत खली निकलती है। इसमें से दो प्रतिशत जल जाती है यानी 100 किलो सरसों से 35 किलो तेल और 65 किलो खली मिलती है। थोक में खली की कीमत 30 रु. प्रति किलो है। इस प्रकार 65 किलो खली से 1,950 रुपए की आमद हुई। सरसों की पेराई 250 रुपए प्रति कुंतल है। परिवहन खर्च लगभग 5 रुपए प्रतिकिलो तक आ जाता है। अब एक कुंतल सरसों के आधार पर उसकी लागत देखें। एक कुंतल सरसों 7,000 रु., एक प्रतिशत मंडी शुल्क 70 रुपए, छह प्रतिशत जीएसटी 420 रुपए, परिवहन 500 रुपए और पेराई 250 रु.। इस प्रकार कुल खर्च 8,240 रु.। यानी 33 लीटर सरसों तेल को तैयार करने में 8,240 रु. का खर्च बैठ रहा है। इसमें 65 किलो खली के दाम यानी 1,950 रु. कम करने से 33 लीटर तेल का लागत मूल्य 6,290 रु. होता है। इस प्रकार प्रति एक लीटर सरसों तेल का लागत मूल्य लगभग 190 रु. पड़ता है। इसमें बाजार, खुदरा बिक्री, विज्ञापन इत्यादि अलग से हैं। यही कारण है कि सरसों का तेल महंगा हो रहा है।
तेल के महंगा होने का एक दूसरा कारण है मंडियों में सरसों की कीमतों में बढ़ोतरी। हाल ही में यह बढ़ोतरी लगभग दोगुनी हो गई है। यानी जो सरसों पहले 3,500 रु. प्रति कुंतल मिलती थी अब 7,000 रु. प्रति कुंतल मिल रही है।
भारतीय किसान संघ ने किया स्वागत
भारतीय किसान संघ के अखिल भारतीय संगठन मंत्री दिनेश कुलकर्णी ने सरसों तेल में अन्य तेलों की मिलावट पर प्रतिबंध लगाने का स्वागत किया है। उन्होंने कहा है कि इससे सरसों का उत्पादन करने वाले किसानों को लाभकारी मूल्य मिलेगा और कच्ची घानी ग्रामीण उद्योगों को पुन: स्थापित किया जा सकता है। सरसों की फसल का क्षेत्रफल भी बढ़ेगा। यही नहीं, देश को तेल आयात करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। विदेशी मुद्रा बचेगी तथा देशवासियों का स्वास्थ्य भी अच्छा होगा। उन्होंने यह भी कहा है कि पाम आॅयल के आयात पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगे। उन्होंने केंद्र सरकार से यह भी मांग की कि सरसों तेल की तरह अन्य खाद्य तेलों में भी मिलावट को बंद करना चाहिए। वही उन्होंने आशा व्यक्त की कि केंद्र सरकार जल्दी ही इस दिशा में कदम उठाएगी।
राजस्थान में सबसे अधिक होती है सरसों
भारत में जितनी सरसों होती है, उसका 40.82 प्रतिशत उत्पादन अकेले राजस्थान करता है। इसके बाद हरियाणा की हिस्सेदारी 13.33 प्रतिशत, मध्य प्रदेश की 11.67 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश की 11.40 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल की 8.64 प्रतिशत, गुजरात की 4.80 प्रतिशत, झारखंड की 2.67 प्रतिशत, असम की 2.28 प्रतिशत, बिहार की 1.32 प्रतिशत और पंजाब की 0.60 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इस प्रकार ये 10 राज्य भारत में कुल सरसों उत्पादन का लगभग 98 प्रतिशत उत्पादित करते हैं। 2018 में भारत में 8.3 मिलियन मीट्रिक टन, 2019 में 9.6 मिलियन मीट्रिक टन और 2020 में 8.7 मिलियन मीट्रिक टन सरसों का उत्पादन हुआ।
अंतरराष्टÑीय बाजार में भी सरसों के तेल और अन्य खाद्य तेलों के भावों में भारी उछाल है। भारत में पाम आॅयल आयात को प्रतिबंधित किया गया है। केवल कच्चा पाम आॅयल ही आयात किया जा सकता है। इस पर कर भी बढ़ा दिया गया है।
कोरोना काल में अंतरराष्टÑीय व्यापार भी प्रभावित हुआ है। इस समय भारत में आयात से लगभग 60 प्रतिशत खाद्य तेल की आपूर्ति होती है। अन्य खाद्य तेलों के भावों में भी उछाल है। इसका प्रभाव सरसों के तेल पर भी पड़ा है। कोरोना महामारी में उपभोक्ताओं का रुझान सरसों के तेल की तरफ बढ़ा है। इससे भारत में इसकी मांग बढ़ गई है। मांग आपूर्ति का अंतर बढ़ना कीमत बढ़ने का एक कारण हो सकता है। अन्य रिफाइंड तेलों में मिलाए जाने वाले रसायनों की कीमत भी अंतरराष्टÑीय बाजारों में बढ़ी है। इससे सोयाबीन, मूंगफली आदि की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है और इसका सीधा-सीधा प्रभाव सरसों तेल की कीमतों पर पड़ा है। खाद्य तेलों पर आयात शुल्क पहले 20 प्रतिशत था, जिसे अब बढ़ाकर 45 से 54 प्रतिशत तक कर दिया गया है। इसका सर्वाधिक प्रभाव सस्ते पाम आॅयल पर पड़ा है। इसकी कीमत बढ़ने से अन्य सभी तेलों, जिसमें पाम आॅयल मिलाया जाता है, की कीमतें बढ़ गई हैं।
एक बात यह भी है कि पिछले 30 वर्ष से भारत में सरसों तेल उद्योग को बर्बाद करने और रिफाइंड तेल उद्योग को बढ़ावा देने के लिए एक पूरा षड्यंत्र रचा गया। एक समय सरसों तेल उत्पादन में भारत आत्मनिर्भर था। लगभग 98 प्रतिशत सरसों तेल लघु उद्योग, जिन्हें कच्ची घानी के नाम से जानते थे, से प्राप्त होता था। ये उद्योग अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में थे। इस उद्योग को नष्ट करने और रिफाइंड तेल को बढ़ावा देने के लिए एक अंतरराष्टÑीय षड्यंत्र रचा गया। इसी के प्रभाव में 1990 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने सरसों एवं अन्य तेलों में मिलावट करने की अनुमति दे दी थी। अन्य तेलों को बढ़ावा देने और सरसों तेल को हानिकारक बताने के लिए 1998 में दिल्ली एवं अन्य उत्तर भारतीय राज्यों में ड्रॉप्सी महामारी की अफवाह उड़ाई गई। इस महामारी के कारण लगभग 60 मौत एवं 3,000 लोगों के अस्पताल में भर्ती होने का आंकड़ा सामने आया। इस महामारी की मुख्य वजह सरसों के तेल में आर्जीमोन मैक्सी के बीजों की मिलावट को बताया गया था। हालांकि सरसों का उत्पादन सर्दी में होता है और आर्जीमोन गर्मी में होता है। इसके बीजों के मिलने की संभावना लगभग नगण्य है। परंतु सरसों तेल को ड्रॉप्सी बीमारी का कारण बताना, ड्रॉप्सी को महामारी घोषित करना और सरसों तेल के सेवन को स्वास्थ्य के विपरीत बताने से लोगों में भय व्याप्त हो गया। इस कारण भारत में सरसों तेल की खपत कम हो गई। ठीक इसी समय बहुत से वैज्ञानिकों एवं संस्थानों ने एक अभियान चलाया। अमेरिका के ‘फूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्टेÑशन’ ने कहा कि सरसों तेल में ऐरोसिक एसिड होता है, जो हृदयाघात का कारण है। साथ ही वैज्ञानिकों ने दावा किया कि सरसों तेल मधुमेह, हृदयाघात एवं अन्य बीमारियों को बढ़ाता है इसलिए इसकी अपेक्षा रिफाइंड तेल का उपयोग करना चाहिए। इन सब भ्रामक प्रचारों के कारण भारत में रिफाइंड तेल पनपा एवं सरसों तेल की कच्ची घानी के उद्योग समाप्त हो गए। गांवों की लगभग 3,00,000 कच्ची घानियां पूर्णरूपेण समाप्त हो गर्इं। इस कारण बेरोजगारी बढ़ी एवं सरसों तेल उद्योग पूर्ण रूप से समाप्त हो गया। इसके लिए सरकारों की गलत नीतियां जिम्मेदार थीं। एक समय मनमोहन सरकार ने पाम आॅयल के आयात शुल्क को घटाकर 5 से शून्य प्रतिशत कर दिया था। सस्ता पाम आॅयल मलेशिया, इंडोनेशिया आदि मुस्लिम देशों से आयात होने लगा। सरसों तेल की मांग कम होने एवं और उसमें पाम आॅयल की मिलावट करने से किसानों को सीधे-सीधे हानि होने लगी। सरसों की फसल में लागत के मुकाबले लगातार गिरावट आई। इन नीतियों के कारण सरसों तेल में 80 प्रतिशत तक पाम आॅयल की मिलावट होती गई। 20 प्रतिशत सरसों तेल होने के बाद भी इसे सरसों के तेल के नाम से ही बाजार में बेचा जाता था। उपभोक्ता की सेहत एवं उनके पैसे से खिलवाड़ होता रहा है। यही वे नीतियां थीं जिनके चलते भारत खाद्य तेलों के मामले में विदेशों पर निर्भर होता गया।
पिछले 25 वर्ष में सरसों की फसल का क्षेत्रफल स्थिर बना हुआ है। सरसों का उत्पादन अब भी 5 से 5.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल में ही हो रहा है। पिछले 10 वर्ष में तो सरसों की खेती का क्षेत्रफल दो प्रतिशत वार्षिक की दर से घटा है। अब वैज्ञानिकों के अध्ययन में यह स्पष्ट हो गया कि सरसों का तेल स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। यहां तक कि हृदय रोगियों को भी कच्ची घानी सरसों तेल का सेवन करने के लिए कहा जा रहा है। वहीं रिफाइंड तेल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, यह भी अब सिद्ध हो चुका है।
इसलिए सरकार ने जो कुछ किया है, वह हम सबके स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए ही किया है। यह हम सब अनुभव कर रहे हैं कि गांवों में भी लोग हृदयाघात से मर रहे हैं। इसके लिए बहुत हद तक मिलावटी सरसों तेल जिम्मेदार है।
(लेखक राष्टÑीय खाद्य प्रौद्योगिकी उद्ममशीलता एवं प्रबंधन संस्थान, सोनीपत (हरियाणा) में कृषि एवं पर्यावरण विभाग के अध्यक्ष हैं। यह लेख अरुण कुमार सिंह से उनकी बातचीत पर आधारित है)
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