डॉ. अश्विनी महाजन
जी-7 के शिखर सम्मेलन में पहले कभी चीन आमंत्रित नहीं हुआ तो बैठक में चीन पर चर्चा भी नगण्य रही। परंतु इस बार चीन की अनुपस्थिति में भी चीन से जुड़े मुद्दे सम्मेलन में छाये रहे। हालांकि इस सम्मेलन में कई विषयों पर चर्चा हुई, लेकिन अधिकांश चर्चा का कलेवर चीन विरोधी कहा जा सकता है।
हाल ही में जी-7 देशों का शिखर सम्मेलन इंग्लैंड के कॉर्न्वोल शहर में संपन्न हुआ। गौरतलब है कि जी-7 देशों में अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, जर्मनी, इटली, फ्रांस और जापान शामिल हैं। इसके अलावा इसके सम्मेलनों में स्थाई आमंत्रित के रूप में यूरोपीय यूनियन के प्रतिनिधि के नाते यूरोपीय कमीशन के अध्यक्ष और यूरोपीय काउंसलिंग के अध्यक्ष शामिल होते हैं। इस वर्ष के मेजबान इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने चार देशों-भारत, आॅस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और दक्षिण अफ्रीका को भी शिखर सम्मेलन में आमंत्रित किया। यानी इस वर्ष जी-7 शिखर सम्मेलन में 11 देशों और यूरोपीय संघ के प्रतिनिधि शामिल हुए। रूस 1997 से 2014 तक जी-7 का औपचारिक सदस्य रहा, लेकिन गौरतलब है कि जी-7 की रचना में चीन को कभी भी शामिल नहीं किया गया और न ही उसे कभी इसमें आमंत्रित किया गया।
छाये रहे ‘3 सी’ मुद्दे
हालांकि पिछले जी-7 सम्मेलनों में चीन को शामिल तो नहीं किया गया, और चीन की उपस्थिति न होने पर इन सम्मेलनों में चीन पर चर्चा भी नहीं के बराबर ही होती थी। लेकिन इस बार के सम्मेलन में सारी चर्चा लगभग चीन पर ही केंद्रित रही। जानकारों का कहना है कि इस सम्मेलन में ‘3 सी’ छाए रहे – यानी कोरोना, क्लाइमेट (पर्यावरण) और चीन। हालांकि इस सम्मेलन में कई विषयों पर चर्चा हुई, लेकिन अधिकांश चर्चा का कलेवर चीन विरोधी कहा जा सकता है। चीन विरोधी सुरों के कई उदाहरण इस सम्मेलन में मिलते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना महामारी से निपटने हेतु लोकतांत्रिक और पारदर्शी राष्ट्रों की भूमिका पर बल दिया, जिसका सीधा मतलब यह था कि कोरोना से समाधान में हमें चीन से कोई अपेक्षा नहीं है, क्योंकि चीन न तो लोकतांत्रिक है और न ही पारदर्शी। यही नहीं, सम्मेलन में कोरोना महामारी के उद्गम की जांच हेतु प्रयास तेज करने पर भी जोर दिया गया।
बिडेन प्रशासन के एक आला अधिकारी ने चीन के अपारदर्शी, कमजोर पर्यावरण, श्रम मानकों और जोर-जबरदस्ती वाले व्यवहार, जिसके कारण दूसरे मुल्कों को भारी नुकसान हो रहा है, पर जवाब देने की जरूरत पर बल दिया। यही नहीं, हांगकांग की स्वायत्तता, चीन के शिनजियांग प्रदेश में मानवाधिकार और ‘ताइवान स्ट्रेट’ के आसपास शांति और स्थिरता के मुद्दों को भी उठाया गया।
यानी कहा जा सकता है कि इस बार के जी-7 शिखर सम्मेलन में चीन को अपनी अनुपस्थिति सबसे ज्यादा खली होगी, क्योंकि इस सम्मेलन में विश्व के 11 बड़े मुल्कों और यूरोपीय संघ के शासन अध्यक्षों के द्वारा चीन को चुभने वाले कई मुद्दों पर चर्चा हुई, और घोषणापत्र पर हस्ताक्षर हुए। यह इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है जिसके लिए यह सम्मेलन ऐतिहासिक माना जा सकता है। चूंकि दुनिया भर में लोग चीन को इस महामारी का कारण मान रहे हैं, दुनिया भर में चीन के खिलाफ माहौल पिछले लगभग 16 महीनों से चल रहा है। लेकिन पहली बार इस सम्मेलन में महसूस हुआ कि दुनिया में शक्तिशाली देश पूरे जोश से चीन के विरुद्ध लामबंद हो रहे हैं, और उन मुद्दों को केंद्र में लाया जा रहा है जो चीन के कम्युनिस्ट शासकों को बिल्कुल पसंद नहीं।
यह बात भी महत्वपूर्ण है कि पिछले कुछ समय से चीन को अरब महासागर और प्रशांत महासागर में चुनौती देने के उद्देश्य से अमेरिका, भारत, जापान और आॅस्ट्रेलिया के कुल 4 तकतवर देशों का समूह ‘क्वाड’ सैन्य अभ्यास कर रहा है। चीन की बढ़ती समुद्री ताकत पर इससे अंकुश लगा है। यह न केवल भारत को समुद्र से चीन से मिलने वाली चुनौती का एक सशक्त जवाब है, बल्कि प्रशांत महासागर क्षेत्र में शांति और स्थिरता की महत्वपूर्ण शर्त भी है। इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता के लिए ताइवान की सुरक्षा हेतु जी-7 सम्मेलन का स्पष्ट वक्तव्य चीन को सीधा चुनौती देने वाला है।
चीन की बीआरआई परियोजना पर अंकुश
गौरतलब है कि चीन पिछले कई सालों से बेल्ट रोड परियोजना (बी आर आई) को आगे बढ़ा रहा है। जिस पर 100 से अधिक मुल्कों ने हस्ताक्षर किए हुए हैं। जिसमें न केवल जी-7 में से इटली शामिल है, बल्कि विशेष आमंत्रित सदस्यों से दक्षिण अफ्रीका और दक्षिण कोरिया भी शामिल हैं। लेकिन जी-7 शिखर सम्मेलन में बीआरआई के मुकाबले ‘बी 3 डब्लू’ (बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड) पहल का उद्घोष हुआ। गौरतलब है कि यह अवसंरचना परियोजना अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन द्वारा आगे बढ़ाई जा रही है। हालांकि अमेरिका और भारत दोनों ही ‘बीआरआई’ परियोजना के प्रारंभ से ही विरोधी रहे हैं लेकिन इसे रोक पाना दो वर्ष पहले तक लगभग असंभव प्रतीत हो रहा था। लेकिन जी-7 सम्मेलन में इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाने के प्रयास को ‘बीआरआई’ के विरुद्ध एक बड़ी पहल माना जा रहा है।
यहां यह इंगित करना जरूरी है कि यदि चीन की महत्वकांक्षी योजना बीआरआई पर अंकुश लगता है और अमेरिका द्वारा समर्थित ‘बी 3 डब्लू’ को बढ़ावा दिया जाता है तो भारत को रणनीतिक ही नहीं बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी बड़ा लाभ मिल सकता है। ‘बीआरआई’ परियोजना में सिर्फ चीन के बैंकों और संस्थाओं (अधिकांश सरकारी) और चीन की निर्माण कंपनियों का ही बोलबाला था। अपारदर्शी और विभेदकारी समझौतों के चलते उसमें शामिल देशों पर न केवल कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा था बल्कि चीन का राजनीतिक दखल भी उन देशों में बढ़ गया था। ऐसे में अधिक पारदर्शी ‘बी 3 डब्लू’ उन देशों के लिए तो लाभकारी होगा ही, भारत की निर्माण कंपनियों को भी बड़ा बिजनेस मिलेगा और दुनिया में आर्थिक विकास को गति मिलेगी और साथ ही चीन के दबदबे को भी विराम लगेगा।
चीन के आर्थिक दबदबे पर लगाम
पिछले काफी समय से चीन औद्योगिक उत्पादन के माध्यम से दुनिया के बाजारों पर कब्जा तो करता ही जा रहा था, अपनी बढ़ती आर्थिक और सैन्य ताकत के बलबूते अपने पड़ोसी देशों को भी डरा-धमका कर उनकी भूमि को हथियाने का प्रयास कर रहा था। चीन के सभी पड़ोसी देश जो अभी तक भयभीत थे, दुनिया के बड़े मुल्कों से चीन को मिलती चुनौती के मद्देनजर अब संबल प्राप्त करेंगे। पिछले लगभग 5 वर्षों से अमेरिका, भारत और दुनिया के कई देश अपने उद्योगों और अर्थव्यवस्था के प्रति अधिक संवेदनशील और संरक्षणकारी हो रहे हैं। भारत में ‘मेक इन इंडिया’ और पिछले एक साल से ‘आत्मनिर्भर भारत’ का प्रयास चीन पर निर्भरता कम करने के लिए ही है। ऐसे में अब चीन को अपने नियार्तों को बरकरार रखना आसान नहीं होगा। चीन को व्यापार, इंफ्रास्ट्रक्चर और सैन्य शक्ति सभी ओर से मिल रही चुनौती को हालांकि चीन जाहिर तौर पर दरकिनार कर रहा है लेकिन उसकी चिंता बढ़ना स्वाभाविक ही है।
पिछले कुछ समय से चीन अपनी आर्थिक और सैन्य शक्ति और दबदबे के चलते अधिक दम्भी भी हो गया था। इसलिए चीन के आधिकारिक बयान अत्यंत हेकड़ी भरे होते थे। लेकिन दुनिया का आक्रामक रुख देखकर अब चीन ने अपना रुख भी थोड़ा नरम किया है ताकि वह अपने प्रति बढ़ते हुए रोष को कम कर सके। लेकिन उधर दुनिया में कोरोना वायरस की उत्पत्ति की जांच के सिलसिले में भी अब चीन दुनिया के निशाने पर है। यानी कहा जा सकता है कि दुनिया में चीन के खिलाफ बढ़ती लामबंदी चीन के लिए शुभ संकेत नहीं है। उसे अपनी हेकड़ी, आर्थिक और सैन्य आक्रामकता पर विराम लगाना पड़ेगा। शायद यही दुनिया में शांति के मार्ग को प्रशस्त करेगा।
टिप्पणियाँ