स्वामी अवधेशानंद गिरि
भारत की कौटुम्बिक आत्मीय-प्रतिबद्धता हमारी बड़ी निधि है। पारिवारिक स्नेह-त्याग समर्पण और स्वजनों का अंकुश-अनुशासन चिरकाल से व्यक्ति परिवार और समाज में एकता, सामंजस्य और राष्ट्र की चौमुखी प्रगति का आधार सिद्ध हुआ है
सम्पूर्ण विश्व को एकता के सूत्र में बांधने का स्नेहिल और स्वागत साधन परिवार,अनुशासन ही है। परिवार परस्पर प्रीति, समन्वय और स्नेह-भाजन का केंद्र है। जहां पारिवारिक मूल्य हैं, वहां व्यक्ति एक-दूसरे के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं। यही सद्भावना विपत्ति काल में हमारा सबसे बड़ा संबल सिद्ध होती है। जब सम्पूर्ण विश्व कोरोना के कारण भयग्रस्त था, चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था, ऐसे कठिन समय में हमारे कुटुंब ने ही हमें संबल प्रदान किया और जीवन जीने का सहज-सरस साधन बना।
जब हम सभी परस्पर किसी एक भावानुबन्ध में बंधे रहेंगे तो वातावरण में सकारात्मकता और माधुर्य रहेगा। हमारे पास जो कुछ भी है उसमें माता-पिता, गुरुजन, बन्धु-बांधव आदि सभी के हिस्से हैं, हमारा कोई भी प्रयत्न आत्म-केंद्रित नहीं है। जब भगवान कृष्ण द्वारका में ऐश्वर्यपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे, अचानक ही उन्हें सुदामा की याद आई और उन्होंने अपने निर्धन मित्र को न केवल मान-सम्मान दिया, अपितु त्रैलोक्य का वैभव भी न्योछावर कर दिया। कृष्ण की यह अहैतुक कृपा सुदामा की सत्यनिष्ठा, त्याग और तप का परिणाम थी। इस देश में संपन्नता ने विपन्नता का कितना आदर किया है, यह भी कृष्ण और सुदामा के प्रसंग से समझा जा सकता है।
संपत्ति की प्रचुरता में अपनों को याद करें। अपने कौन हैं? जो सदियों से पीड़ित और उपेक्षित हैं तथा जिनके पास साधनों का अभाव है, नर रूप में उन्हीं में नारायण के दर्शन करें।
माता-पिता परिवार के बड़े ज्येष्ठ जनों-बुजुर्गों से, शिक्षकों से, गुरुजनों से विनम्रता के साथ व्यवहार करें। हम सभी को बड़े-बुजुर्गों का मान-सम्मान करना चाहिए। अर्थात् उनके प्रति हमारे मन में आदर भाव होना चाहिए। बड़ों से तात्पर्य, उन लोगों से है जो हमसे आयु में बड़े हैं। हमसे बड़े लोगों का सांसारिक अनुभव हमसे अधिक होता है, इसलिए हम उनसे बहुत-सी ज्ञान की बातें भी सीख सकते हैं। वे अपने अनुभव के आधार पर हमारा अच्छा मार्गदर्शन भी कर सकते हैं। गुरुजन, दादा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता, बड़े भाई-बहन, रिश्तेदार, बुजुर्ग एवं आसपास रहने वाले हमसे बड़े लोग आदि। इनसे हम शिक्षा, आदर्श , जीवन का लक्ष्य आदि के लिए मार्गदर्शन ले सकते हैं। अगर कोई समस्या हमारे सामने आ जाती है तो उस समय बड़े-बुजुर्ग हमारी समस्या के समाधान के लिए हर-संभव प्रयास करते हैं। वे हमसे केवल अपने प्रति प्रेम और आदर भाव की अपेक्षा रखते हैं। अगर हमें जीवन में एक सफल व्यक्ति बनना है तो हमें नैतिकता एवं आदर्शों के एक उचित मार्ग पर चलना होगा, यह तभी संभव है जब हम अपने से बड़ों का सम्मान करें एवं उनके दिखाए मार्ग का अनुपालन करें। एक सभ्य समाज एवं राष्ट्र के निर्माण के लिए आवश्यक है कि सभी अपने बड़े-बुजुर्गों का, संत-सत्पुरुषों का गुरुजनों का आदर सम्मान करें।
यदि माता-पिता, गुरु और सन्त सत्पुरुषों के उपदेश के प्रति अप्रियता हो जाए तो हमारा नैतिक और आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। भाषा अपनी विनम्रता खो दे तो संस्कार विलग हो जाते हैं। वाणी का माधुर्य एक बड़ा धन है, क्योंकि हम जो बोलते हैं अथवा जैसा अनुभव करते हैं उसमें से हमारे विचार-चिंतन, संस्कार,अध्ययन और अनुभव का परिचय मिलता है। मनुष्य अपने चिंतन का ही परिणाम है। हम जैसा सोचते और करते हैं,शनै:-शनै: वैसा ही बन जाते हैं, इसलिए हमारी अभिव्यक्ति सहज हो और विचार सकारात्मक हों।
पश्चिमी देशों में सिखाया जाता है कि मैं स्वयं महान हूं, लेकिन हमारी भारतीय संस्कृति ऐसा कहती है कि हमारे पास जो कुछ भी है वह सब कुछ माता-पिता ,गुरुजनों, पूर्वजों और परम्परा से प्राप्त है। पश्चिम के लिए भले ही यह विश्व एक बाजार की तरह हो लेकिन भारत के लिए विश्व एक परिवार है।
पश्चिमी देशों में अचंभित करने वाली प्रगति दृष्टिगोचर होती है। पश्चिम के विकास का आधार भी अर्थ की अधिकता, उत्खनन, उपनिवेशवाद , जमीन, जंगल, अम्बर पर एकाधिकार एवं अपनी सत्ता का विस्तार ही है। राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने की दृष्टि से वह अपने परिवार से दूर जाकर पूरे संसार की भूमि को अपने अधीन करना चाहते रहे हैं परंतु हम पूरे विश्व को अपना ही परिवार मानते हैं। आज पश्चिम में परिवार की अवधारणा टूट गई है और एकल जीवन ही रह गया।
संकीर्ण मानसिकता अथवा अपनी प्रगति की चिंता हमें बहुत छोटा बनाती है। सभी की प्रगति में ही हमारा उन्नयन छिपा हुआ है। भगवान भाष्यकार आद्य शंकराचार्य ने एकात्म दर्शन से पूरे विश्व का मार्गदर्शन किया है।
दुर्भाग्य से पश्चिमी देशों की संस्कृति, संस्कार, जीवन शैली का अनुसरण कर रही भारत की युवा पीढ़ी अथवा किंचित आस्वादन भोगने की प्रवृत्ति रखने वाला संपूर्ण भारत अब यह परिणाम भी देख रहा है कि अब भारत में भी एकल परिवारों की संख्या अधिक होती जा रही है। जैसे ही परिवार सिमट जाएगा हमारी सामर्थ्य भी सिमट जाएगी। सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार मानिए। सम्पूर्ण विश्व विराट अथवा ब्रह्मांड हमारा परिवार है और हम उसके अविभाज्य सदस्य हैं। क्षुद्र स्वार्थ अथवा संकीर्ण मानसिकता, केवल अपनी प्रगति की चिंता, हित-सिद्धि उनके निमित्त संसाधनों की प्राप्ति की चाह हमें बहुत छोटा बनाती है। सभी की प्रगति में ही हमारी प्रगति अथवा उन्नयन के सूत्र छिपे हैं। सर्वे भवन्तु सुखिन: अथवा सर्वभूतहितेरता: जैसे सार्वभौम उपदेश हमारी वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा को पुष्ट कर विश्व का मार्गदर्शन करते हैं।
(लेखक जूनापीठाधीश्वर आचार्यमहामंडलेश्वर हैं)
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