राजेश प्रभु सालगांवकर
शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के आपसी कलह से महाराष्ट्र सरकार कराह रही है। कांग्रेस को दर्द इस बात का है कि उससे पूछे बिना कोई भी निर्णय ले लिया जाता है, वहीं शिवसेना के नेता अपने ही नेतृत्व से नाराज हो रहे हैं। वहीं एनसीपी मलाईदार पदों को लेकर अपनी जड़ें मजबूत कर रही है। इसका असर शिवसेना और कांग्रेस पर होता दिख रहा है
महाराष्ट्र में जनादेश की पीठ पर छुरा घोंपकर कर सत्ता हथियाने वाले महाविकास अघाड़ी गठबंधन में दरारें साफ दिखने लगी हैं। महाराष्ट्र सरकार में शामिल कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष नाना पटोले ने दो टूक शब्दों में कह दिया है कि आने वाले सभी चुनाव कांग्रेस स्वतंत्र तौर पर लड़ेगी। इस पर शिवसेना ने आपत्ति जताई है।
लगभग डेढ़ वर्ष पहले भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने वाली शिवसेना ने चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा से नाता तोड़कर कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली थी। शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के गठबंधन को महाविकास अघाड़ी नाम दिया गया है। लेकिन इनकी सरकार बनने के बाद से ही राज्य में विकास कार्य एक तरह से ठहर गए हैं। इस कारण सोशल मीडिया में महाविकास अघाड़ी सरकार को 'स्थगित सरकार' के नाम से जाना जाता है। भाजपा विरोध और विकास कार्यों पर रोक, यही इस सरकार का मानो साझा कार्यक्रम है। इस सरकार के काल में तो भ्रष्टाचार चरम पर है।
गठबंधन में शामिल तीनों दलों में कांग्रेस सबसे कमजोर पार्टी है। उसके विधायकों की संख्या सबसे कम है, लेकिन उसके पास अहंकार सबसे अधिक है। सरकार में 'मलाईदार' विभाग नहीं मिलने से भी कांग्रेस नाराज चल रही है| ऊपर से यह धारणा बन गई है कि सरकार के सारे निर्णय केवल मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे तथा एनसीपी के नेता ही ले रहे हैं। इन सबसे कांग्रेस में जबर्दस्त असंतोष है। इसके बावजूद कांग्रेस राज्य सरकार को अपने मन के मुताबिक चुनौती नहीं दे पा रही है। दरअसल, कांग्रेस की अनेक मजबूरियां हैं। पहली मजबूरी है कांग्रेस का सत्ता में रहना। उल्लेखनीय है कि केंद्र तथा अनेक राज्यों में कांग्रेस गत सात वर्ष से सत्ता से बाहर है। इसलिए वह महाराष्ट्र सरकार में बेइज्जती के बावजूद रहना चाहती है। महाराष्ट्र देश का सबसे बड़ा औद्योगिक राज्य है। कांग्रेस अपनी आय को बढ़ाने के लिए सरकार में रहना चाहती है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की मानें तो राज्य में ग्रामीण इलाकों से कांग्रेस का सफाया करने में एनसीपी का बड़ा हाथ रहा है। एनसीपी के सर्वेसर्वा शरद पवार ने राज्य के ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस की जमीन छीन ली है। अनेक वर्ष कांग्रेस के साथ सत्ता में रहते हुए ही पवार ने यह कमाल दिखाया है। इससे कांग्रेस के नेता एनसीपी से नाराज हैं। राज्य के बड़े—बड़े जिला सहकारी बैंक तथा चीनी के सहकारी कारखाने आज एनसीपी के हाथों में हैं। जिला दूध संघ भी एनसीपी के हाथो में है। कभी इन आर्थिक संस्थाओं पर कांग्रेस का वर्चस्व हुआ करता था, लेकिन आज इन आर्थिक संस्थानों पर एनसीपी का वर्चस्व है। मुम्बई, ठाणे, पुणे, नाशिक जैसे औद्योगिक शहरों में भी कांग्रेस की पकड़ नहीं बची है। मुम्बई, ठाणे में भाजपा के साथ—साथ शिवसेना का वर्चस्व है। पुणे और नाशिक में एनसीपी का वर्चस्व है। ऐसे में राज्य में सत्ता में रहते हुए भी जमीनी स्तर पर कांग्रेस अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण घोर पवार विरोधी माने जाते हैं। इसी कारण राज्य सरकार में पृथ्वीराज चव्हाण को मंत्रीपद या विधानसभा के अध्यक्ष पद से दूर रखा गया है। ध्यान देने लायक बात यह है कि गठबंधन सरकार बनाने में पृथ्वीराज चव्हाण ने अहम भूमिका निभाई थी। वे गांधी परिवार के करीबी माने जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को केवल शरद पवार के विरोध के चलते सरकार से बाहर रखा गया है। हालांकि गांधी परिवार के दूसरे करीबी पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को मंत्री बनाया गया है, लेकिन राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री होने के बाद भी ठाकरे सरकार के किसी भी निर्णय प्रक्रिया में उनका भी कोई स्थान नहीं है। कहने को तो शुरुआती काल में विधानसभा का अध्यक्ष पद नाना पटोले को दिया गया था, लेकिन गठबंधन के अंदरूनी कलह के कारण उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और उन्हें कांग्रेस का प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया।
ऐसे शिवसेना और एनसीपी में भी कुछ कम मतभेद नहीं हैं। शिवसेना ने हिंदुत्व का मुद्दा छोड़ रखा है, पर 'मराठी मानुस' का मुद्दा नहीं छोड़ा है। लेकिन एनसीपी और कांग्रेस के दबाव के कारण शिवसेना उस पर अमल नही कर पा रही है। उधर एनसीपी अपने जन्मजात दबंग स्वभाव से सरकार के हर निर्णय में हावी हो रही है। सबसे ज्यादा मलाईदार विभाग एनसीपी के पास हैं। मुख्यमंत्री ठाकरे के अलावा शिवसेना के केवल चार मंत्री हैं। उनमें से एक तो उनके प़ुत्र आदित्य ही हैं। इससे शिवसेना में भी नाराजगी चल रही है।
मराठा आरक्षण पर भी शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के मत अलग—अलग हैं। इस कारण सर्वोच्च न्यायालय में सरकार अपना पक्ष ठीक तरह से नहीं रख पाई और मराठा आरक्षण निरस्त हो गया, जबकि भाजपा सरकार के समय इन तीनों ने मराठा आरक्षण को खूब हवा दी थी।
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