आॅस्ट्रिया में 2020 में हुए आतंकी हमले के बाद वहां के एक मंत्री सुसैन राब ने एक वेबसाइट लॉन्च की जिसका नाम है मैप आॅफ इस्लाम। आॅस्ट्रिया फ्रांस के बाद इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध कड़े कदम उठाने वाला दूसरा राष्ट्र है। इससे न सिर्फ आॅस्ट्रिया के मुसलमानों में बल्कि इस्लामी राष्ट्रों में भी बेचैनी है। दूसरी तरफ, कई अन्य यूरोपीय देशों में भी इस्लामी कट्टरवाद के विरुद्ध स्वर मुखर होने लगे हैं।
क्या यूरोप में इस्लामोफोबिया बढ़ रहा है? अथवा क्या यूरोप युद्ध प्रभावित और आतंरिक समस्याओं का सामना कर रहे खाड़ी देशों के मुस्लिमों को शरण देने की अपनी उदारवादी छवि के दौर से निकल कर अब प्रतिकार करने लगा है? दोनों ही प्रश्न परस्पर विरोधी हैं किन्तु हाल की घटनाएं देखें तो दोनों प्रश्न एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। वैसे भी यूरोप का इस्लाम से विरोधाभास का जटिल सा रिश्ता दिखता है जिसकी पुष्टि इतिहास में आॅटोमन साम्राज्य के दौर से भी होती है। ताजा मामला यूं है कि आॅस्ट्रिया के मंत्री सुसैन राब ने हाल ही में एक वेबसाइट लॉन्च की है जिसका नाम है नेशनल मैप आॅफ इस्लाम। उक्त वेबसाइट में आॅस्ट्रिया में स्थित 620 से भी अधिक मस्जिदों, मुस्लिम संगठनों व उनके अधिकारियों के नाम और पते दिए गए हैं। इसके साथ ही वेबसाइट में मस्जिदों, उनके मौलानाओं, मुस्लिम संगठनों इत्यादि के विदेशों में उनके संभावित गठजोड़ की जानकारी भी शामिल है। अब जबकि सारा मामला सार्वजनिक हो गया है तो अब न मात्र आॅस्ट्रिया में अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा विरोध के स्वर मुखर हो रहे हैं वरन मुस्लिम राष्ट्रों में भी इस कदम की निंदा की जा रही है, परोक्ष रूप से धमकाया जा रहा है। आॅस्ट्रिया में मुस्लिम जनसंख्या आठ प्रतिशत के साथ सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है। उसकी चिंता है कि सभी मस्जिदों, मुस्लिम संगठनों के नाम सामने आने से समुदाय की सुरक्षा खतरे में आ गई है। मुस्लिम समुदाय की इस चिंता को निराधार नहीं ठहराया जा सकता किन्तु प्रश्न यह है कि क्या यही वास्तविक चिंता है? आॅस्ट्रिया में ऐसी नौबत ही क्यों आई? क्या आॅस्ट्रिया मुस्लिम चरमपंथ के विरुद्ध फ्रांस की राह पर चल पड़ा है?
बदले वैश्विक समीकरण
देखा जाए तो मैप आॅफ इस्लाम ने वैश्विक समीकरण बदल कर रख दिए हैं। इस्लाम मामलों के जानकार श्री तुफैल चतुवेर्दी कहते हैं, ‘जर्मन मूलत: तेजस्वी जाति है तथा अपने सत्व के लिए बहुत आग्रही है। अब चूंकि अवैध प्रवासियों ने जर्मनी, आॅस्ट्रिया को ग्रसित किया है तो वो किसी भी स्थिति में अपनी राष्ट्रीयता धूमिल नहीं होने देंगे। वीर जातियां ऐसी ही होती हैं। इस्लाम की आक्रामक विस्तारवादिता पर आॅस्ट्रिया लगाम कसेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। अत: आॅस्ट्रिया में रहने वाले मुस्लिम यदि मैप आॅफ इस्लाम से आशंकित हैं तो उनकी चिंता निराधार नहीं है।’ हालांकि इसका एक दूसरा पक्ष भी है जिसे नकारा नहीं जा सकता। मैप आॅफ इस्लाम के सामने आने से यह पता चला है कि आॅस्ट्रिया में मात्र 206 मस्जिदें ही अनुमति प्राप्त हैं, शेष बिना अनुमति के अवैध रूप से संचालित की जा रही हैं। विश्व इतिहास इस तथ्य की गवाही देता है कि जिस राष्ट्र ने मुस्लिमों को मानवता के नाते शरण दी है, वह कालांतर में उसी के लिए नासूर बना है। चूंकि इस्लाम येन-केन-प्रकरेण स्वयं के प्रसार व आक्रामक विस्तार पर जोर देता है अत: जहाँ-जहां मुस्लिम बस्ती बनती है, वहां मस्जिद बनाना, मदरसे बनाना, संगठनात्मक स्तर पर स्वयं को मजबूत करना, आसपास के पंथों को मानने वालों को इस्लाम में आने का प्रलोभन देना आम बात है। अब जबकि आॅस्ट्रिया में मात्र 206 मस्जिदें ही अनुमति प्राप्त हैं तो शेष अवैध मस्जिदें वहां के सामाजिक समीकरण को बदलने की कवायद ही मानी जाना चाहिए। वैसे भी युद्ध-प्रभावित मध्य पूर्व से आए काफी सारे मुस्लिम यूरोप के कई देशों में शरणार्थी हैं और बहुतों को नागरिकता भी मिल चुकी है। आॅस्ट्रिया भी इससे अछूता नहीं है और ऐसे में वहां मुस्लिम समुदाय की चिंता को स्वयं पर उठते सवालों के परिपेक्ष्य में भी देखना चाहिए।
लोन वुल्फ अटैक
अब प्रश्न उठता है कि आॅस्ट्रिया में मैप आॅफ इस्लाम की आवश्यकता ही क्यों आन पड़ी? दरअसल, 2020 के अंत में आॅस्ट्रिया की राजधानी वियना में आतंकी हमला हुआ था जिसमें सात से अधिक नागरिक मारे गए और 15 नागरिक गंभीर रूप से घायल हुए थे। उक्त आतंकी हमले को कई संदिग्ध हथियारबंद हमलावरों ने अंजाम दिया था जिनकी पहचान इस्लामिक कट्टरवाद से जुड़ी हुई थी। हमले के दौरान कार्रवाई में मारा गया एक संदिग्ध आतंकी इस्लामिक स्टेट से जुड़ा हुआ बताया गया था। यह हमला ठीक वैसा ही था जैसा फ्रांस में किया गया था। इन्हें ही लोन वुल्फ अटैक कहा जाता है। अपनी उदारवादी धार्मिक छवि के चलते फ्रांस कई दशकों से इस्लामिक हमलों को झेल रहा है और धार्मिक सद्भाव वाला आॅस्ट्रिया इसी कड़ी की नई नर्सरी है। मैप आॅफ इस्लाम को लेकर मचे बवाल को यदि अन्य मुस्लिम राष्ट्रों का साथ मिल रहा है तो यह तय है कि इस्लाम को लेकर यूरोप के राष्ट्र अब अतिवाद की राह पर बढ़ चले हैं। वरिष्ठ पत्रकार श्री रहीस सिंह कहते हैं कि क्या कारण है कि दुनिया भर के मुस्लिम राष्ट्र मुस्लिमों को शरण नहीं देते और वे अंतत: अन्य देशों की ओर रुख करते हैं? या तो वे अवैध रूप से देशों में घुसने की चेष्टा करते हैं और यदि उन्हें नागरिकता मिल जाए तो वे वहां के नियम-कानून को नहीं मानते। उनकी श्रद्धा का केंद्र सऊदी, तुर्की या ईराक होता है। यहाँ लिबरल समुदाय की भूमिका पर भी प्रश्नचिन्ह लगते हैं कि वे मुस्लिमों पर अत्याचार से दुखी होते हैं किन्तु उनके द्वारा किये जा रहे अतिवाद पर उनकी बोलती बंद हो जाती है।
मुस्लिम अतिवाद से त्रस्त यूरोप
आॅस्ट्रिया में हुई इस पूरी कवायद के बाद अब यह प्रश्न भी उठ रहा है कि क्या आॅस्ट्रिया फ्रांस की भांति ही मुस्लिम चरमपंथ के विरुद्ध हो गया है? फिर जिस तल्खी से तुर्की ने फ्रांस के बाद आॅस्ट्रिया को घेरा है क्या यह खलीफा बनने की तुर्की की दबी इच्छा का प्रस्फुटन है? दरअसल, सऊदी इस पूरे मामले पर चुप है किन्तु तुर्की की ओर से आक्रामक प्रतिक्रियाओं का दौर जारी है। एक समय मुस्लिम समुदाय का खलीफा रह चुका तुर्की एक बार पुन: इस पदवी को पाने के चलते मुस्लिम समुदाय के अतिवाद का खुलकर साथ देता रहा है किन्तु अन्य मुस्लिम राष्ट्रों की उदासीनता व अंतर्राष्ट्रीय समीकरणों के चलते उसपर नकेल कसी जाती रही है किन्तु आॅस्ट्रिया के ताजा मामले ने उसे यह अवसर दिया है कि वह मुस्लिमों की दयनीय स्थिति को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करे व अन्य मुस्लिम राष्ट्र सहानुभूति में उसका साथ दें। हालांकि यह इतना आसान भी नहीं है किन्तु तुर्की के इतिहास को देखते हुए कुछ असंभव भी नहीं है। हाँ, बीते कुछ वर्षों की घटनाओं पर नजर डालें तो यह प्रतीत होता है कि यूरोप अब मुस्लिम चरमपंथ से ऊब चुका है और सरकारें व समाज उनका प्रतिकार करने लगे हैं। इस्लामिक कट्टरता के खिलाफ स्कैंडिनेवियाई देश भी दिखने लगे हैं। डेनमार्क में 3 लाख 6 हजार मुस्लिम हैं और वे वहां की सबसे बड़ी माइनोरिटी आबादी है। इसमें से अधिकतर लोग मिडिल ईस्ट के आतंक से बचते हुए आए हैं लेकिन अब वहां तेजी से मस्जिदें बन रही हैं और स्थानीय लोग भी नए धर्म को स्वीकार कर रहे हैं। यहां तक कि धर्मनिरपेक्ष डेनमार्क में मुस्लिमों के लिए अलग कानून की मांग हो रही है। अब ये देश परेशान हैं कि कैसे इस्लामोफोबिया का शिकार हुए बगैर वो धार्मिक हिंसा को रोकें क्योंकि मुस्लिमों का अतिवाद अब सांस्कृतिक, राजनीतिक व धार्मिक संतुलन बिगाड़ने लगा है।
(लेखक एकल वनबन्धु परिषद् के मीडिया सेल कोआॅर्डिनेटर हैं।)
क्या है लोन वुल्फ अटैक?
ऐसा आतंकी हमला जिसे कम संसाधनों से लैस एक व्यक्ति या दो-तीन लोग अंजाम देते हैं उसे लोन वुल्फ अटैक कहा जाता है। इस प्रकार के आतंकी हमले में हमला करने वाला आवश्यक नहीं कि किसी खास संगठन से जुड़ा हो। हां, किन्तु ऐसे आतंकी हमलों के इतिहास को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हमलावर अधिकतर किसी खास विचारधारा से प्रेरित होकर ऐसा करता है। अब तक के हमलों को देखें तो इनमें इस्लामिक चरमपंथ को मानने वालों की संलिप्तता पूरे मजहब को कटघरे में रखती है। वर्ष 2000 के बाद से यूरोप, अमेरिका, कनाडा और आॅस्ट्रेलिया में करीब 200 से ज्यादा ऐसे हमलों को अंजाम दिया है जिनमें एक हजार से अधिक लोगों की मौत हुई है। इस प्रकार के हमलों को अंजाम देने के लिए हथियारों की भी आवश्यकता नहीं होती। मात्र भीड़-भाड़ वाले इलाकों को चिन्हित करके कार या ट्रक के जरिये भी इसे अंजाम दिया जा सकता है। हालांकि गार्डियन में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों से प्रेरित होकर जिन हमलों को अंजाम दिया गया है उनमें बंदूकों का इस्तेमाल अधिक हुआ है। मजहब के नाम पर चाकू, तलवार और हैंड ग्रेनेड से हमला करना भी इसी श्रेणी में आता है। फियादीन हमले में हमलावर को प्रशिक्षित किया जाता है किन्तु लोन वुल्फ अटैक में हमलावर चरमपंथ की उग्रता से प्रभावित होता है। ऐसे हमलावर आमतौर पर स्थानीय नागरिक होते हैं जिन पर सुरक्षा एजेंसियों का शक नहीं जाता। ऐसे हमलावर आतंकी सोच और धार्मिक उन्माद को चुपचाप पालते रहते हैं। मौका मिलते ही आम नागरिकों को निशाना बनाकर सरकार को सीधी चुनौती देते हैं। आईएसआईएस की पत्रिका ‘इन्सिपायर’ में भी ऐसे हमले करने का वर्णन किया गया है।
कुछ बड़े लोन वुल्फ अटैक
● नॉर्वे में 22 जुलाई, 2011 को आंद्रे नाम के शख्स ने लेबर पार्टी के यूथ आॅर्गनाइजेशन के समर कैंप में ओपन फायरिंग कर 77 लोगों को मार दिया।
● साल 2011 में पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या भी इसी तरह के हमले में हुई थी।
● 12 जून, 2016 को अमेरिका के ओरलैंडो नाइट क्लब में ओमार मतीन नाम के आतंकी ने ओपन फायरिंग कर 49 लोगों को मार दिया जबकि 60 से ज्यादा लोग घायल हो गए।
● 14 जुलाई, 2016 को फ्रांस के नीस में मोहम्मद लाहाउज नाम के आतंकी हमलावर ने तेज रफ्तार ट्रक से 86 लोगों को कुचल दिया था।
● 26 जुलाई, 2016 को फ्रांस में 19 साल के दो हमलावरों ने चर्च में फादर की गला रेत कर हत्या कर दी।
● 29 जनवरी, 2017 को कनाडा की क्यूबेक सिटी मस्जिद में एलेक्जेंडर नाम के एक शख्स ने गोली मारकर 7 लोगों की हत्या कर दी।
● 01 अक्टूबर, 2017 को अमेरिका के लास वेगस में एक म्यूजिक कंसर्ट के दौरान आतंकी होटल के 32वें फ्लोर पर कुछ बंदूकों के साथ पहुंचा और नीचे जारी म्यूजिक कंसर्ट में मौजूद भीड़ पर फायरिंग शुरू कर दी। इस हमले में 56 लोगों की मौत हो गई थी जबकि भगदड़ में 500 से ज्यादा लोग घायल हो गए थे।
● 25 सितंबर, 2020 को पेरिस में चार्ली हेब्दो के पुराने दफ्तर के बाहर एक व्यक्ति ने दो लोगों पर चाकू से हमला किया। व्यक्ति की पहचान पाकिस्तानी नागरिक के तौर पर हुई जिसपर बाद में आतंकी धाराएं लगाई गईं।
● 16 अक्टूबर, 2020 को पेरिस में ही हिस्ट्री टीचर की हत्या कर दी गई। उस पर आरोप था कि टीचर ने अपनी क्लास में पैगंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाया था। पुलिस ने हमलावर को एनकाउंटर में मार दिया था।
● 29 अक्टूबर, 2020 को फ्रांस के शहर नाइस में चाकू से हमला किया गया। चर्च में तीन लोगों को मौत के घाट उतारा और महिला का गला काट दिया गया।
भारत में लोन वुल्फ अटैक की सम्भावना!
2017 में सोशल मैसेजिंग एप टेलीग्राम पर एक आॅडियो वायरल हुआ था जिसमें केरल से भागकर इस्लामिक स्टेट से जुड़े कुछ आतंकी इस बात का शक जाहिर कर रहे थे कि भारत में कुंभ मेले के दौरान लोन वुल्फ अटैक किया जा सकता है। इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में फिदायीन हमले देखने को मिले हैं जिनके लिए आतंकियों को ट्रेनिंग दी जाती है किन्तु सेल्फ मोटिवेशन के लिए इंडियन मुजाहिदीन जैसा आतंकी संगठन ऐसे किसी हमले के लिए स्लीपर सेल का इस्तेमाल कर सकता है। हालांकि लोन वुल्फ अटैक जैसी घटना की खुफिया जानकारी हासिल करना लगभग असंभव है। ऐसे हमलावर आमतौर पर स्थानीय नागरिक होते हैं अत: इन पर सुरक्षा एजेंसियों का शक नहीं जाता। वैसे भी भारत में भीड़-भाड़ वाले इलाके इस प्रकार के आतंकी हमलों के लिए आसान हैं क्योंकि यहाँ जनसँख्या घनत्व के हिसाब से सुरक्षा व्यवस्था कम है। 2016 में भारत सरकार गृह मंत्रालय के माध्यम से राज्यों को लोन वुल्फ अटैक के संभावित हमलों के लिए आगाह कर चुकी है और खतरा अभी टला नहीं है। चूँकि अमेरिका और यूरोप के बाद आईएस भारत को आतंकी गतिविधियों का गढ़ बनाना चाहता है इसलिए ऐसे आतंकी हमले देश में बड़ा नुक्सान कर सकते हैं। कुछ समय पूर्व भारत सरकार ने कश्मीर के विशेष राज्य का दर्जा समाप्त कर दिया है। ऐसे में आईएस भारत में अपने प्रसार के लिये कश्मीर मुद्दे का दुष्प्रचार कर सकता है। इसके अतिरिक्त भारत में सोशल मीडिया विनियमन भी अपेक्षाकृत कमजोर है जिससे आतंकी संगठन भारत के युवाओं की मनोवृत्ति बदलने, उनको प्रभावित करने तथा उन्हें आतंकी घटनाओं को अंजाम देने के लिये तैयार कर सकता है। समस्या के समाधान के लिए सबसे पहले और अनिवार्य काम उसकी पहचान होता है। भारत को भी आॅस्ट्रिया की भांति इस प्रकार का सर्वे करना चाहिए, डाटा बनाना चाहिए और आॅस्ट्रिया के दिखाए रास्ते पर चलना चाहिए।
-सिद्धार्थ शंकर गौतम
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