भारत में बनी कोरोना वैक्सीन को लेकर कांग्रेस, आआपा, समाजवादी पार्टी व अन्य सेकुलरों ने विरोध का झंडा उठाया, विदेशी वैक्सीनों के लिए बेशर्म पैरवी की
कहते हैं, ‘घर का जोगी जोगना और आन गांव का सिद्ध’। कोरोना वैक्सीन ने इस कहावत को नया रूप दिया है कि घर की ‘वैक्सीन पर सवाल, विदेशी पर बजाएं गाल’। महामारी के दौरान जिस तरह की राजनीति कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के नेता कर रहे हैं, वह सीधे शब्दों में लोगों की जान से खेलने जैसा है। राजस्थान सरकार जहां केन्द्र की भेजी वैक्सीन की करीब साढ़े ग्यारह लाख खुराक बर्बाद करने की अक्षम्य गलती करती है, वहीं पंजाब में पहले वेंटीलेटर को खराब बताने, फिर वैक्सीन की कमी का रोना रोते हुए केन्द्र सरकार को कोसने के अलावा और कुछ नहीं हो रहा है। ठीक ऐसा ही बर्ताव दिल्ली की आआपा सरकार कर रही है। आएदिन वैक्सीन की कमी का रोना रोना फिर सीधे विदेशी कंपनियों से बात करके टका सा जवाब पाकर मामला रफा—दफा करने में जितनी मेहनत हो रही है उसकी एक चौथाई भी यदि स्वास्थ्य तंत्र को चौकस करने में हो तो कितने ही रोगियों की जानें बच जाएं।
पंजाब और दिल्ली की सरकारों ने स्वदेशी वैक्सीन को लेकर तरह-तरह के भ्रम फैलाए। लेकिन दूसरी तरफ विदेशी कंपनियों की वैक्सीन की तारीफों के पुल बांधे। भारत में बनी कोरोना की वैक्सीन को लेकर मजाक उड़ाया गया। पंजाब और दिल्ली ने गुपचुप सीधे विदेशी कंपनियों से जब वैक्सीन देने की बात की तो उन कम्पनियों ने यह कहकर वैक्सीन देने से इन्कार कर दिया कि वह केन्द्र को ही वैक्सीन दे सकती है, राज्यों को नहीं।
लिहाजा पंजाब और दिल्ली सरकार की केन्द्र को नजरअंदाज करने की ये चाल सिरे नहीं चढ़ पाई। अमेरिकी कम्पनी मॉडर्ना ने पंजाब सरकार के कोरोना वैक्सीन भेजने के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया है। कम्पनी ने कहा कि कोरोना वैक्सीन को लेकर वह भारत सरकार से ही बात कर सकती है, राज्य सरकार से नहीं। इसलिए वह उसे सीधे वैक्सीन नहीं भेज सकती। पंजाब के नोडल अधिकारी विकास गर्ग ने बताया कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह के निर्देश के मुताबिक स्पूतनिक वी, फाइजर, मॉडर्ना और जॉनसन एण्ड जॉनसन कम्पनियों से बात की गई थी। सभी कम्पनियों से टीका सप्लाई के बारे में समझौते पर चर्चा हुई। उन्होंने कहा कि अब मॉडर्ना कम्पनी की ओर से प्रस्ताव नकारने वाला जवाब आया है। दूसरी ओर दिल्ली के उप मुख्यमन्त्री मनीष सिसोदिया ने भी कहा कि फाइजर और मॉडर्ना ने कोरोना वायरस के टीके सीधे दिल्ली सरकार को बेचने से मना कर दिया है। इन कम्पनियों ने कहा है कि वे केवल केन्द्र से बात करेंगी।
आज उक्त राजनीतिक दल व विपक्षी दलों की सरकारें विदेशी वैक्सीन को लेकर जो उत्साह दिखा रही हैं, वही स्वदेशी वैक्सीन का मजाक उड़ाती आ रही थीं। कांग्रेस के नेताओं ने भारतीय वैक्सीन को बाजार में उतारने को जल्दबाजी करार देते हुए इसे ‘वैक्सीन नेशनलिज्म’ बताया था। कांग्रेस नेता शशि थरूर का बेमतलब तर्क था कि दो चरणों के परिणामों से ये पता नहीं चलता कि टीका सुरक्षित है, क्या होगा यदि हम बिना स्टीक परिणाम जाने टीका लगाने लगें और बाद में पता चले कि ये केवल 50 प्रतिशत प्रभावी है? लगभग समूचे विपक्ष ने एक स्वर से कहा था कि हम नहीं जानते कि ‘इसे एक परीक्षण के रूप में माना जाएगा या टीकाकरण अभियान के रूप में!’ उनका कहा था कि कोवैक्सिन को एक ‘बैकअप वैक्सीन’ की तरह इस्तेमाल किया जाएगा, किसी आपातकाल की परिस्थिति से निपटने के लिए, जब केस बहुत तेजी से बढऩे लगेंगे। विपक्ष का कहना था कि टीके की प्रकिया तब शुरू हो रही है, जब नए मामलों की संख्या में कमी आई है, ज्ञात रहे कि उस समय कोरोना की पहली लहर ढलान पर थी।
कांग्रेस के नेता शशि थरूर ने मानो सोशल मीडिया पर झूठे तर्क रखकर केन्द्र सरकार को घेरने का ठेका ले रखा है। उन्होंने लिखा कि मोदी सरकार काम से ज़्यादा नारों को ऊपर रखती है। आत्मनिर्भर दिखने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आम समझ और सालों से चले आ रहे प्रोटोकॉल को नजरंदाज किया। केवल विपक्ष ही नहीं बल्कि विदेशी मीडिया व कुछ ‘विशेषज्ञों’ ने भी सरकार पर जल्दबाजी के आरोप लगाते हुए भारतीय वैक्सीन की क्षमता पर सवाल उठाए थे। उनका कहना था कि वायरस जिस तरह से बदल रहा है, मुमकिन है कि भविष्य में हमें एक से अधिक वैक्सीन की जरूरत पड़े। सभी टीकों को क्षमता और सुरक्षा के पर्याप्त सबूतों के आधार पर ही स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तो इसे सीधे-सीधे ‘भाजपा की वैक्सीन’ बता दिया था।
आज उसी भारतीय वैक्सीन की ‘कमी’ पर वही विपक्ष, मीडिया व विशेषज्ञ सवाल उठा रहे हैं और सरकार को कोस रहे हैं। परन्तु इन परिस्थितियों में भी सवाल पैदा होता है कि क्या भारतीय वैक्सीन के विरुद्ध इनका दुष्प्रचार रुक गया! ऐसा नहीं है। अभी दो दिन पहले ही कुछ ‘विशेषज्ञों’ ने दावा किया कि चूंकि भारतीय वैक्सीन अभी विश्व स्वास्थ्य संगठन की सूची में नहीं है इसीलिए कोवीशील्ड या कोवैक्सीन लगवाने के बाद भी कोई विदेश यात्रा नहीं कर पाएगा। स्वास्थ्य मंत्रालय में संयुक्त सचिव लव अग्रवाल ने इसे भ्रामक बताया और कहा कि इस मुद्दे पर अभी चर्चा जारी है। जब हम विश्व और विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्तर पर आम सहमति पर पहुंच जाएंगे तो आवश्यक कदम उठाएंगे।
केवल पंजाब और दिल्ली की सरकारें ही नहीं, बल्कि कई तथाकथित बुद्धिजीवी व सोशल मीडिया के सेेकुलर बयानबाज भी आज विदेशी वैक्सीन की इतने ऊंचे स्वरों में स्तुति कर रहे हैं कि उन्हें लगता है कि केन्द्र सरकार को सारे कायदे कानून नजरंदाज कर विदेशों से दवा का आयात शुरू कर देना चाहिए। इन स्वनामधन्य ‘समझदारों’ में उपन्यासकार चेतन भगत, पत्रकार रोहिनी सिंह, राणा अयूब, शेखर गुप्ता व इनके जैसी मानसिकता वाले कुछ अन्य लोग शामिल हैं जो पिछले कई दिनों से विदेशी वैक्सीन के लिए लॉबिंग कर रहे हैं। ये लोग भूल जाते हैं कि नए ड्ग्स एण्ड क्लीनिकल ट्रायल नियम-2019 के तहत किसी भी दवा को विदेश से लाने के लिए कम से कम 1000 स्थानीय परीक्षण आवश्यक होते हैं। ये इसलिए आवश्यक हैं क्योंकि हर देश व क्षेत्र की जलवायु, लोगों की प्रकृति में भिन्नता होती है और एक देश की दवा दूसरे देश के नागरिकों पर कितनी स्टीक बैठती है, कितनी नहीं, यह जाने बिना विदेशी दवा देश में प्रयोग नहीं हो सकती। स्पुतनिक ने भी डॉ. रेड्डी की कम्पनी के साथ मिल कर ये परीक्षण किए तभी उसे भारत में आयात की अनुमति मिली है। विदेश से दवा आयात करने का निर्णय राजनीतिक, सोशल मीडिया, अभियानवादियों की मांग के आधार पर नहीं लिया जा सकता, इसके लिए वैज्ञानिक आधार जरूरी है।
जब कोरोना की दूसरी लहर ने अपना जोर दिखाना शुरू किया तो भारत में भी टीकाकरण बढऩे लगा। मांग इतनी बढ़ी कि इसकी आपूर्ति कम पड़ने लगी। वैक्सीन को लेकर भ्रम फैलाने वाले अब दवा दो-दवा दो चिल्लाने लगे और दवा के निर्यात को लेकर सरकार को ही घेरने लगे। जिनके लिए कल तक भारतीय वैक्सीन का कोई मोल नहीं था आज वे विदेशी वैक्सीन को ‘कामयाब’ बताते नहीं अघा रहे।
राकेश सैन
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