राहुल गांधी कब क्या कह दें, क्या कर दें, कोई नहीं जानता। कांग्रेस के समक्ष सबसे बड़ी समस्या है नेतृत्व की दुविधा। इसके कारण पार्टी रसातल में जा रही है और नेता अवसाद में। गांधी-नेहरू परिवार की त्रिमूर्ति न तो खुद आगे आ रही है और न ही किसी अन्य के हाथ में नेतृत्व की कमान सौंप रही है
कांग्रेस नेतृत्व की दुविधा खत्म नहीं हो रही है। पार्टी असमंजस की स्थिति से निपटने की बजाए हमेशा इसे टाल देती है। 10 अप्रैल को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भी यही हुआ। गांधी-नेहरू परिवार की त्रिमूर्ति सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी, न तो पार्टी का नेतृत्व संभालने के लिए आगे आ रही है और न ही किसी को यह जिम्मेदारी सौंप रही है। नेतृत्व की अक्षमता के कारण पूरी पार्टी दुविधा में है। इसलिए अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए भी सहमति नहीं बन पा रही है। इस महत्वपूर्ण विषय को भी अब तक तीन बार टाला जा चुका है।
नेतृत्व की दुविधा के कारण पार्टी लगातार गर्त में जा रही है और नेता अवसाद में। यही कारण है कि बीते दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस मजबूत विपक्ष का दर्जा तक हासिल नहीं कर पाई है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि राहुल जिम्मेदारी लेने से बचते हैं। 2012 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल करना चाहा था तो वे यह कहकर बच निकले थे कि अभी वह किसी तरह की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते। पार्टी को अंदर से मजबूत करेंगे। खुद मनमोहन सिंह यह बात कह चुके हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि जब से राहुल गांधी ने घोषित या अघोषित रूप से पार्टी की कमान संभाली है, कांग्रेस लगातार गर्त में जा रही है। कभी-कभी उनकी ‘नासमझी’ पार्टी पर बहुत भारी पड़ती है।
पिछले साल कांग्रेस प्रवक्ता शक्ति सिंह गोहिल ने दावा किया था कि राहुल गांधी के पास संप्रग-2 सरकार में प्रधानमंत्री बनने का अवसर था। अपने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश की थी, लेकिन राहुल गांधी ने इसे ठुकरा दिया। गोहिल ने राहुल गांधी को त्याग की मूर्ति बताते हुए नेहरू-गांधी परिवार का महिमामंडन किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि गांधी-नेहरू परिवार कभी पद के लिए लालायित नहीं रहा। यह परिवार निजी हित से ऊपर देशहित को मानता है। लेकिन इस त्याग की पोल खोली मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने, जो उस समय योजना आयोग (अब नीति आयोग) के उपाध्यक्ष थे। उन्होंने अपनी किताब ‘‘बैकस्टेज: द स्टोरी बिहाइंड इंडिया हाई ग्रोथ इयर्स’’ में इस घटना का जिक्र किया है।
दरअसल, जुलाई 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीति से अपराधियों को दूर रखने के लिए एक ऐतिहासिक निर्णय दिया था। इसमें कहा गया था कि निचली अदालत द्वारा दोषी करार देने की तारीख से ही विधायक-सांसद अयोग्य हो जाएंगे। साथ ही, अदालत ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को असंवैधानिक करार देते हुए उस प्रावधान को भी निरस्त कर दिया था, जो आपराधिक मुकदमों में दोषी करार दिए गए विधायकों व सांसदों को उच्च अदालत में अपील लंबित रहने तक अयोग्य करार देने से बचाता था। शीर्ष अदालत के इसी फैसले को पलटने के लिए संप्रग सरकार एक अध्यादेश लेकर आई थी, जिसे राहुल ने पत्रकारों की मौजूदगी में ‘बकवास’ कहते हुए फाड़ दिया था। ऐसा करके उन्होंने पार्टी और केंद्र सरकार, दोनों को दुविधा में डाल दिया था। उस समय मनमोहन सिंह अमेरिका दौरे पर थे। उनके साथ अहलुवालिया भी थे। अपनी किताब में अहलुवालिया ने लिखा है कि राहुल के इस तेवर से हैरान मनमोहन सिंह ने उनसे पूछा था कि क्या उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए? लेकिन अहलुवालिया ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया था। इधर, कांग्रेस के नेता और केंद्र सरकार के मंत्रियों ने पहले अध्यादेश का बचाव किया, लेकिन पार्टी ओर से ‘भूल सुधार’ का संकेत मिलते ही एक-एक कर सभी अपने बयान से पलट गए। कहा गया कि ‘राहुल की राय ही कांग्रेस की राय है।‘ महत्वपूर्ण बात यह है कि अध्यादेश सरकारी था और राहुल सरकार में शामिल भी नहीं थे। फिर उनके पास अध्यादेश कैसे पहुंचा और उन्होंने किस हैसियत से उसे फाड़ा? बता दें कि उस समय राहुल गांधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष थे।
इसी तरह, 2019 के लोकसभा चुनाव में भी राहुल गांधी दुविधा में थे कि कहां से चुनाव लड़ें! केरल कांग्रेस के अध्यक्ष ने राहुल गांधी को वायनाड से चुनाव लड़ने का न्योता दिया था, लेकिन काफी समय तक राहुल गांधी यह तय नहीं कर पाए कि वे अमेठी से लड़ें या वायनाड से। उनकी इस दुविधा से पार्टी के साथ गठबंधन के घटक दल भी असमंजस में थे। हालांकि कांग्रेसी लगातार उन्हें संकेत दे रहे थे कि वे अपने गढ़ अमेठी को न छोड़ें। आखिरकार 31 मार्च को ए.के. एंटनी ने प्रेस वार्ता कर वायनाड और अमेठी, दोनों सीटों से राहुल गांधी के चुनाव लड़ने की घोषणा की, जबकि वहां 23 अप्रैल को मतदान होना था। लोकसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर अपनी जिम्मेदारियों से इतिश्री कर ली। उन्होंने यह कहते हुए इस्तीफा दिया कि हार की जवाबदेही तय की जानी चाहिए। ट्विटर पर चार पन्नों वाला एक खुला पत्र भी साझा किया था, जिसमें कुछ ‘कठोर फैसले’ लेने की बात कही थी। लेकिन न तो कोई कठोर फैसला लिया गया और न ही पार्टी नेताओं की जवाबदेही तय हुई। यहां तक कि आज तक पार्टी का पूर्णकालिक अध्यक्ष तक नहीं चुना जा सका है। इसे लगातार आगे टाला जा रहा है।
दरअसल, राहुल गांधी राजनीतिक रूप से परिपक्व नहीं हुए हैं। वे केवल आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति तक ही सीमित हैं। इससे इतर न तो उनकी सोच विकसित हुई है और न ही वे कुछ सोचना चाहते हैं। इस बार पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखों घोषणा होने के बाद भी सभी राजनीतिक पार्टियां चुनावी तैयारियों में व्यस्त थीं, लेकिन कांग्रेस गठबंधन दलों के साथ सीट बंटवारे को लेकर असमंजस में रही। राहुल गांधी की दिलचस्पी केवल दो केरल और असम में थी, लेकिन वहां भी पार्टी में अंदरूनी खींचतान पर नेतृत्व की चुप्पी के कारण कुछ हाथ नहीं लगा। पश्चिम बंगाल में पार्टी पहले ही समर्पण कर चुकी थी। आलम यह रहा राज्य के जिन विधानसभा क्षेत्रों में राहुल गांधी ने रैलियां कीं, वहां कांग्रेस उम्मीदवारों की जमानत ही जब्त हो गई।
राहुल गांधी वैसे तो पहले से ही ‘कन्फ्यूज्ड’ हैं, लेकिन कोरोना काल में उनका और ‘कन्फ्यूजन’ बढ़ गया है। बीते 3 मई को राहुल ने देश में कोरोना महामारी की गंभीरता को लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार के पास महामारी से लड़ने की कोई रणनीति नहीं है। उन्होंने ट्वीट किया कि कोरोना वायरस महामारी का फैलाव रोकने के लिए केंद्र सरकार के पास अब एक ही रास्ता बचा है- संपूर्ण लॉकडाउन। साथ ही, उन्होंने कमजोर वर्गों की सुरक्षा के लिए ‘न्याय’ (न्यूनतम आय गारंटी) देने की भी वकालत की। उनके इस ट्वीट के बाद जब राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कोरोना संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए 5 मई को सख्त कदम उठाने की घोषणा। लेकिन गहलोत की ट्वीट के अगले ही दिन राहुल पलट गए। उन्होंने संपूर्ण लॉकडाउन का विरोध किया और राजस्थान के मुख्यमंत्री को ही असमंजस में डाल दिया। दरअसल, राज्य में कोरोना संक्रमण के बेकाबू होते हालात के मद्देनजर गहलोत संपूर्ण लॉकडाउन लगाने को तैयार थे और इस बाबत कई ट्वीट भी किए थे। बहरहाल, तमाम जद्दोजहद और असमंजस के बीच गहलोत ने 10 मई से 24 मई तक राज्य में संपूर्ण लॉकडाउन लगा दिया। इस दौरान, परिवहन सेवाएं, सरकारी और गैरसरकारी कंपनियों के दफ्तर बंद रहेंगे और केवल चिकित्सा व आवश्यक वस्तुओं की सेवाएं ही बहाल रहेंगी।
नेतृत्व की दुविधा के कारण पार्टी में असंतोष लगातार बढ़ रहा है। शीर्ष नेताओं की सलाह भी नहीं मानी जा रही है। नेतृत्व की उपेक्षा के कारण पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने जी-23 नाम से एक गुट बनाया है। जम्मू में वरिष्ठ कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद के ‘एकजुटता प्रदर्शन’ के बाद जी-23 और राहुल गांधी के बीच मतभेद खुल कर सामने आ गए हैं। पार्टी के कुछ नेता चाहते हैं कि राहुल गांधी फिर से पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभालें। पार्टी में बढ़ते मतभेद के बीच इस साल जनवरी के पहले सप्ताह में 10 जनपथ स्थित सोनिया गांधी के आवास पर करीब पांच घंटे की मैराथन बैठक हुई थी, जिसमें तमाम नेताओं ने अपनी-अपनी बात रखी। इस बैठक में भी राहुल को अध्यक्ष बनाने की मांग उठी। तब राहुल ने कहा था कि पार्टी जो भी जिम्मेदारी उन्हें सौंपेगी, उसे वह निभाने के लिए तैयार हैं। इस बार कार्यसमिति की बैठक में संगठन महासचिव के.सी. वेणुगोपाल ने 23 जून को अध्यक्ष पद के लिए चुनाव का प्रस्ताव रखा तो पार्टी के सदस्यों ने विरोध कर दिया। लिहाजा कोरोना का हवाला देकर अध्यक्ष का चुनाव तीसरी बार टाल दिया गया।
नागार्जुन
टिप्पणियाँ