डॉ. नरेश कुमार गुलाटी
यह अच्छी बात है कि देश के कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर जैविक खेती हो रही है। यह ऐसी खेती है, जिसमें दीर्घकालीन व स्थिर उपज प्राप्त करने के लिए कारखानों में निर्मित, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों व खरपतवारनाशकों का प्रयोग न करते हुए जीवांशयुक्त खादों का प्रयोग किया जाता है तथा मृदा एवं पर्यावरण प्रदूषण पर नियंत्रण होता है। 1990 के बाद से विश्व में जैविक उत्पादों का बाजार काफी बढ़ा है। प्राचीनकाल में मानव स्वास्थ्य के अनुकूल तथा प्राकृतिक वातावरण के अनुरूप खेती की जाती थी, जिससे जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान का चक्र (पारिस्थितिकी तंत्र) निरंतर चलता रहा था। फलस्वरूप जल, भूमि, वायु तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता था।
भारत में प्राचीन काल से कृषि के साथ-साथ गोपालन किया जाता था, जोकि प्राणी मात्र व वातावरण के लिए अत्यंत उपयोगी था। परंतु बदलते परिवेश में गोपालन धीरे-धीरे कम हो गया तथा कृषि में तरह-तरह की रासायनिक खादों व कीटनाशकों का प्रयोग हो रहा है। इससे जैविक और अजैविक पदार्थों के चक्र का संतुलन बिगड़ता जा रहा है और वातावरण प्रदूषित होकर, मानव जाति के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है। अब हम रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों के उपयोग के स्थान पर जैविक खाद एवं दवाइयों का उपयोग कर अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं, जिससे भूमि, जल एवं वातावरण शुद्ध रहेगा और मनुष्य एवं प्रत्येक जीवधारी स्वस्थ रहेंगे।
जैविक सब्जियां
भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि है और कृषकों की आय का मुख्य साधन खेती है। बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए एवं आय की दृष्टि से भी उत्पादन बढ़ाना आवश्यक है। अधिक उत्पादन के लिए खेती में अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक का उपयोग करना पड़ता है जिससे सीमांत व छोटे कृषक को कम जोत में अत्यधिक लागत चुकानी पड़ रही है और जल, भूमि, वायु और वातावरण भी प्रदूषित हो रहा है साथ ही खाद्य पदार्थ भी जहरीले हो रहे हैं। इसलिए इस प्रकार की उपरोक्त सभी समस्याओं से निपटने के लिए गत कुछ वर्षों से निरंतर टिकाऊ खेती के सिद्धांत पर खेती करने की सिफारिश की गई, जिसे देश-प्रदेशों के कृषि विभागों ने इस विशेष प्रकार की खेती को अपनाने के लिए, बढ़ावा दिया जिसे हम जैविक खेती के नाम से जानते हैं।
थाइलैंड बना उदाहरण
जैविक खेती के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इसके उत्पादन की कोई विशेष पहचान नहीं होती और उत्पादक के पास न ही ऐसा कोई यंत्र या प्रमाणपत्र होता जिससे वह उपभोक्ता को विश्वास दिलवा सके कि यह जैविक उत्पाद है। इस समस्या के हल के लिए थाइलैंड ने विशेष प्रयोग किया जो सभी के लिए अनुकरणीय हो सकता है। थाइलैंड के पहाड़ी राज्य न्यूंग हाई में एक शाही प्रोजेक्ट चलाया गया जिसमें सभी काश्तकार लामबंद हुए और निर्णय लिया कि वे रासायनिक खेती नहीं करेंगे। इस निर्णय का खूब प्रचार-प्रसार किया गया और इलाके में रासायनिक खादों व कीटनाशकों का प्रवेश तक नहीं होने दिया गया। इससे वहां के उपभोक्ताओं में विश्वास बढ़ा और जल्दी ही जैविक उत्पाद प्रचलित हो गए। अब यहां के किसानों ने विभिन्न इलाकों में विक्रय केंद्र खोले हैं जिससे न केवल किसानों की आय बढ़ी, बल्कि रोजगार के नए अवसर पैदा हो रहे हैं और लोगों को भी स्वस्थ खाद्यान्न मिलने लगा है। थाइलैंड का यह उदाहरण पूरी दुनिया के लिए अनुकरणीय हो सकता है।
सिक्किम ने दिखाई राह
केवल थाइलैंड ही क्यों, भारत के छोटे से राज्य सिक्किम ने दुनिया को नई राह दिखाने का काम किया है। सिक्किम, भारत का पहला ऐसा राज्य है, जहां पूरी तरह जैविक खेती हो रही है। सिक्किम ने अपनी 75,000 हेक्टेयर की कुल टिकाऊ कृषि भूमि को प्रामाणिक तौर पर जैविक कृषि क्षेत्र में तब्दील कर दिया है। 18 जनवरी, 2016 को ‘गंगटोक एग्री समिट’ के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी औपचारिक घोषणा की थी।
सिक्किम रेल और व्यावसायिक हवाई जहाज से जुड़ाव के मामले में कमजोर राज्य है। सिक्किम की आबादी भी मात्र 6,50,000 है। इसकी पहचान किसी खास उत्पाद वाले औद्योगिक राज्य की भी नहीं है। लेकिन 80 प्रतिशत आबादी के ग्रामीण होने के कारण सिक्किम ने जैविक खेती को इतनी अधिक तरजीह दी कि आज वह एक नजीर बन गया है। जैविक अदरक, हल्दी, इलायची, फूल, किवी, मक्का, बेबी कॉर्न तथा गैर मौसमी सब्जियां सिक्किम की खासियत हैं। आप चाहें तो दिल्ली के ग्रेटर कैलाश स्थित ‘सिक्किम आर्गेनिक रिटेल आउटलेट’ पर इसकी प्रामाणिकता जांच सकते हैं। आज भारत के कुल जैविक कृषि उत्पादन (135 लाख टन) में छोटे से सिक्किम का बड़ा योगदान है।
रूड़ी की खाद
पंजाब में रासायनिक खादों का इस्तेमाल युद्ध स्तर पर हो रहा है। यहां प्रति हेक्टेयर 243 किलो रासायनिक खाद का इस्तेमाल हो रहा है। कृषि विशेषज्ञों के अनुसार फसल के पालन-पोषण के लिए 17 तरह के पोषक तत्वों की आवश्यकता पड़ती है। पशुओं का गोबर व मूत्र इन लगभग सभी तत्वों की पूर्ति कर देते हैं। चाहे अधिकतर किसानों के पास पशु भी होते हैं परंतु देखने में आता है कि पशुओं के मलमूत्र को व्यर्थ कर दिया जाता है। अगर इसको रूड़ी की खाद (पशु के मूत्र, गोबर और चारे से बनी खाद) में बदला जाए तो कृषि के क्षेत्र में आशातीत सफलता मिल सकती है। रूड़ी जमीन की उपजाऊ शक्ति बरकरार रखने के साथ-साथ उसकी रासायनिक संरचना, भौतिक व जैविक क्षमता न केवल बरकरार रखती है, बल्कि इसमें वृद्धि भी करती है। इससे जल संरक्षण की शक्ति भी बढ़ती है और भू-क्षरण की समस्या से भी निजात मिलती है।
रूड़ी की इतनी महत्ता होने के बाद भी हम इसके प्रति लापरवाह हैं। अक्सर देखने में आता है कि रूड़ी को फेंक दिया जाता है। इससे न केवल मक्खी, मच्छर पैदा होते हैं, बल्कि अत्यधिक धूप-बरसात से इसके तत्व भी प्रभावित होते हैं। अगर घर में 4-5 पशु हैं तो 6-7 मीटर लंबा और 1-1.5 मीटर चौड़ा व एक मीटर गहरा गड्ढा खोद कर पशुओं का मलमूत्र, घास-फूस, पत्ते इसमें डाल देने चाहिएं। यह गड्ढा अगर कुछ फीट ऊंचा हो जाए तो उसे गोबर का हल्का लेप लगा कर बंद कर देना चाहिए। तीन-चार महीने बाद इस गड्ढे से 5-6 टन रूड़ी की जैविक खाद प्राप्त की जा सकती है जो काले सोने से कम नहीं। जैविक खेती के लिए एक अन्य जरूरी तत्व है केंचुआ खाद। यह केंचुआ आदि कीड़ों द्वारा वनस्पतियों एवं भोजन के कचरे आदि को विघटित करके बनाई जाती है।
इसके अतिरिक्त फसलों के अवशेषों जैसे पराली, तूड़ी, डण्ठलों को जलाने की बजाय इनको जमीन में ही जोत दिया जाए तो इससे बहुत अच्छी खाद प्राप्त की जा सकती है। जहां तक रही बात कीटनाशकों की तो नीम से कीटनाशक बनाना काफी आसान है और लाभदायक भी। इसके लिए 10 लीटर पानी में 5 किलो नीम की हरी पत्तियां या सूखी हुई निम्बोली को बारीक पीस कर उसमें 10 लीटर छाछ, 1 किलो पिसा हुआ लहसुन, 1 से 2 किलो गोमूत्र को 5 दिन के लिए भिगो दें। हर दिन 2-3 बार अच्छी तरह लकड़ी से हिला दें। जब रंग दूधिया हो जाए (निम्बोली के उपयोग में) तो इसे कपड़े से अच्छी तरह छान लें। घोल में 200 मि.ली. साबुन या 80 मि.ली. टीपोल मिलाकर फसलों पर छिड़काव करें। इसी तरह गोमूत्र से भी कीटनाशक तैयार किया जा सकता है।
(लेखक जालंधर में जिला कृषि अधिकारी हैं)
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