पंथनिरपेक्षता की अपनी ही सेकुलर परिभाषा गढ़कर हिन्दू समाज को निशाने पर रखते आ रहे सेकुलरों के चेहरे उजागर होने लगे हैं। मद्रास उच्च न्यायालय की ताजा टिप्पणी इस बहस से कतराने वालों को विमर्श के दायरे में लाने की जरूरत का संकेत करती है
मद्रास उच्च न्यायालय की फरवरी 2021 के पहले सप्ताह में एक मामले में आई टिप्पणी दिलचस्प है। ईसाई मत प्रसारक मोहन सी. लाजारुस के विरुद्ध प्रथम सूचना रपट को खारिज करते हुए अदालत ने साफ शब्दों में कहा, ‘‘किसी अन्य धर्म के विरुद्ध जहर उगलना और उस धर्म के अनुयायियों में एक-दूसरे के लिए नफरत फैलाना पंथ के मूल उद्देश्य के ही उलट जाता है, जो है इंसान को सर्वोच्च सत्य की ओर ले जाना।’’ मोहन ने हिन्दू मंदिरों के विरुद्ध जहर उगलते बयान दिए थे, लेकिन बाद में बिना शर्त माफी मांग ली थी। यह टिप्पणी करते हुए न्यायमूर्ति एन. आनंद वेेंकटेश ने उदात्तता, पंथनिरपेक्षता और सहिष्णुता के मूल्यों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि किसी पंथ का प्रसार करने वाले को तो इन बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए। नि:संदेह मद्रास उच्च न्यायालय की उपरोक्त टिप्पणी आज के संदर्भों में विशेष मायने रखती है क्योंकि आज, संविधान को ‘सेकुलर’ बताकर छद्म पंथनिरपेक्षता के प्रसारकों ने हिन्दुओं को निशाना बनाना और अल्पसंख्यकों (विशेषकर मुसलमानों) को हर बात में तरजीह देना ही पंथनिरपेक्षता का पैमाना मान लिया है और इसीलिए जब कोई देश को अपमानित करने वाला अल्पसंख्यक (मुसलमान) तत्व एएमयू या जेएनयू में खड़े होकर देश के टुकड़े करने की बात करता है तो सेकुलरवादी तुरंत उसके बचाव में उतर आते हैं। तब उन्हें वह मजहब विशेष का कट्टरपंथ नहीं मालूम देता। लेकिन जब स्कूलों में संस्कृत पढ़ाने का विषय आता है तो उनके लिए ‘संविधान खतरे में’ पड़ जाता है। वह चाहे शरजील हो, उमर, शहला, अरुंधती, केजरीवाल, ममता बनर्जी, महबूबा, दिशा रवि या फिर निकिता जैकब।
लेकिन अब ऐसे सभी तथाकथित सेकुलरवादियों के चेहरे समाज के सामने उजागर होने लगा है। इसलिए नामी सेकुलरों ने अपने छद्म मुखौटों पर नयी रंग-बिरंगी धारियां बनार्इं। एक धारी संविधान नाम की, दूसरी लोकतंत्र के नाम की, तीसरी सामाजिक न्याय के नाम की। कुछ अन्य छोटी-बड़ी रेखाएं। इसके बाद ये मुखौटे वाले पहले से भी ज्यादा खतरनाक हो गए। मुखौटे का खतरा ये है कि वह असलियत को छिपा देता है। असली इरादों पर पर्दा डालकर काम करने की सहूलियत देता है। परजीवी स्वयं को आस-पास के वातावरण में ओझल करके शिकार पर झपटते हैं। ऐसा ही एक छल दशकों से भारत में मंचित किया जा रहा है। भारत की सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि में खुद को ओझल रखने के लिए सेकुलरिज्म का चोला ओढ़कर साजिशों को आगे बढ़ाया जाता रहा है। इन साजिशों को वैधानिक शक्ल देने के लिए संविधान का नाम सामने रखा जाता है और संविधान के नाम की माला फेर-फेरकर उस देश, उस समाज की जड़ें खोदने का काम किया जाता है, जिसके लिए यह संविधान बनाया गया है।
प्रहसन यह है कि भारत में संविधान का नाम लेकर वे लोग हंगामा कर रहे हैं, जो ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे…’ का नारा लगाते रहे हैं। जिनका सदा से एजेंडा रहा है भारत को छोटे टुकड़ों में तोड़ना। जो मूल रूप से लोकतंत्र के खिलाफ हैं। इस परिभाषा में शहरी नक्सली और माओवादी आतंकी आते हैं, जो जहरीली स्याही और बारूद के जोर पर देश को अराजकता की ओर ले जाने के ख्वाब देखते हैं। नाम है संविधान का, बहाना है सेकुलरिज्म का और निशाने पर हैं सदियों के कालखंड में भारत के समाज में उभरी दरारें। उन दरारों में अपने खंजर डालकर उन्हें चौड़ा करने की उन्मादी कोशिशें की जा रही हैं।
अराजकता की ‘टूल किट’
इसलिए इन्हें नफरत है उस सीमेंट से, जो इन दरारों को भर सकता है। वह सीमेंट है भारत की हिंदू संस्कृति। इसलिए चाहे शाहीन बाग का फसाद हो, या दिल्ली की सीमा पर किसानों के नाम पर मचाई जा रही धमाचौकड़ी, हर जगह हिंदू संस्कृति निशाने पर रहती है। शाहीन बाग के समर्थन में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के शोहदे ‘हिंदुत्व से आजादी’ के नारे लगाते हैं। ‘स्वस्तिक’ का अपमान किया जाता है। इसलिए किसान नेता का चोला पहनकर उधम मचाने वाले हिंदू आस्था पर भी प्रहार करते हैं। किसानों को बहकाकर महीनों से जो तमाशा किया जा रहा है, जिसका विकराल रूप 26 जनवरी को देखने को मिला, उससे सारे देश के सामने साफ हो गया कि ऐसे लोग किसी समस्या को सुलझाना नहीं चाहते, बल्कि समस्याएं पैदा करना चाहते हैं। और ग्रेटा थनबर्ग नामक मुखौटे ने अराजकता का जो ‘टूल किट’ गलती से साझा कर दिया उससे इस जमात के विश्वव्यापी नेटवर्क का पदार्फाश हो
गया है। पॉप स्टार रिहाना और विदेशी अश्लील फिल्मों में काम करने वाली मियां खलीफा जैसी ‘नवकृषकों’ ने देश में पनपते झाड़-झंखाड़ को उजागर किया है।
आज देश में पाकिस्तान के एजेंडे पर आंदोलन के मुखौटे खड़े किए जा रहे हैं। क्या ये कोई मामूली बात है कि जिस पैसे से कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी होती थी, उसी पैसे से शाहीन बाग सजते हैं, दिल्ली में हिंदू विरोधी दंगा किया जाता है, उसी पैसे से अमेरिकी पॉप स्टार के ट्वीट खरीदे जाते हैं, ताकि किसान आंदोलन के नाम पर भारत की राजधानी में मचाए जाने वाले फसाद को ग्लैमर जगत की आभा दी जा सके, युवाओं को आकर्षित किया जा सके! अराजकता की ये ‘टूल किट’ कनाडा में बैठकर बनायी गयी। देश के चुनिंदा पत्रकारों, नेताओं, खालिस्तानियों, शाहीनबाग गिरोह, शहरी माओवादियों और अंतरराष्ट्रीय हस्तियों को यह बांटी गयी। कांग्रेस और उसके जैसे दूसरे सेकुलरवाद के थोक विक्रेता तथा आंदोलनजीवी इस ‘टूल किट’ पर तालियां पीटते रहे।
ऐसी ही ‘टूल किट’ देश के अंदर-बाहर बनती रहीं, जिनके आधार पर ‘असहिष्णुता’, ‘लिंचिस्तान’, सीएए और एनआरसी की खिलाफत, किसान आंदोलन आदि गढ़े गए, शाहीन बाग वालों ने ‘तेरा मेरा रिश्ता क्या, ला इलाहा इल्ललह’ और ‘अल्ला हो अकबर’ के साथ ‘जब अर्जे खुदा के काबा से, सब बुत उठवाए जाएंगे..’ जैसी नज्में गार्इं। इस तरह उन्मादी भीड़ में तथाकथित ‘बुतपरस्ती’ और ‘बुतपरस्तों’ के खिलाफ सदियों से उबाली जा रही नफरत को उकसाया, और जब इस पर सवाल उठे तो कहा गया कि ये तो फैज की नज्म है जो जिया उल हक के खिलाफ लिखी गई थी। सवाल यह कि ‘बुतपरस्ती’ और ‘बुत उठवाने’ के पाकिस्तानी सन्दर्भों को भारत में क्यों इस्तेमाल किया जा रहा है। विचित्र तर्क गढ़े जाते हैं। आजादी के 70 साल बाद तक श्रीराम जन्मभूमि पर एक जिहादी द्वारा तामीर ढांचा खड़ा रहता है, तब हिंदू भावना चोटिल नहीं होती, लेकिन अदालत में धैर्यपूर्वक लड़ी गई लंबी लड़ाई के बाद जब अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए निधि संकलन होता है,तो ‘अल्पसंख्यक भावनाएं’ आहत होती हैं! यदि सौहार्द की बात करनी है, तो ये लोग पाकिस्तानी शायर फैज की जगह भारत के उन गुमनाम मुस्लिमों के नाम ले सकते हैं, जो राम मंदिर के लिए सहयोग करके स्वाभिमान का अनुभव कर रहे हैं। लेकिन इस जमात को कलाम और अब्दुल हमीद से चिढ़ है। ये अश्फाक उल्ला खान और रसखान का नाम कभी नहीं लेते।
जहर की खेती
सेकुलरवाद और आंदोलन के नाम पर भ्रम और उन्माद फैलाने का काम किया जा रहा है। जनगणना को लेकर लोगों को डराया जा रहा है। जनगणना को अल्पसंख्यक विरोधी साबित किया जा रहा है। मीठी आवाज में जहर उगलने वाले यही तथाकथित सेकुलर, लोगों को बरगला रहे हैं कि जनगणना वाले आएंगे, आपसे मां-बाप की जानकारी मांगी जाएगी। मां-बाप के कागज मांगेंगे, नहीं दे पाए तो आपके नाम के आगे ‘डी’ लिख देंगे, फिर आपको कैंप में डाल दिया जाएगा और देश से बाहर कर दिया जाएगा। कहां से लाए ये जानकारी सलीम मियां? ऐसा झूठ? ‘हो सकता है आपके पास कागज हो आपकी पत्नी के पास न हो.. आपके बेटे के पास न हो..’, क्यों नहीं होगा कागज? घुमंतू जातियां हैं अपने देश में। उनके पास भी कुछ न कुछ कागज होते हैं। बिना कागज के कोई जीवनयापन कर सकता है क्या? एनपीआर यानी जनसंख्या रजिस्टर के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है। शहरों, कस्बों से लेकर जनजातीय पट्टी तक विष फैलाया जा रहा है। हर देश का अपना जनसंख्या रजिस्टर होता है। भारत में जनसंख्या रजिस्टर बनाने के मामले को दशकों से लटकाकर रखा गया। जनसंख्या रजिस्टर बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज है। सरकार की नीतियां उसके आधार पर बनती हैं। इस रजिस्टर के बिना सुरक्षा बल यदि देश में पाकिस्तानी स्लीपर सेल या बांग्लादेशियों की पहचान करना चाहें तो कैसे करेंगे?
देश में लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में जाकर बसते हैं, यह रिकॉर्ड नहीं होना चाहिए? कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों का इतना बड़ा प्रश्न खड़ा हुआ, लेकिन उनका कोई रिकॉर्ड ही नहीं था। प्रवासी मजदूरों पर घड़ियाली आंसू बहा रहे सेकुलर इस पर चुप थे कि भांडा फूट जाएगा और एनपीआर की जरूरत सिद्ध हो जाएगी। एनपीआर के आधार पर विकास, सड़क, बिजली, पानी, सामाजिक सुरक्षा जैसी राष्ट्रीय नीतियां बनती हैं, लेकिन शहरी नक्सल गिरोह और सेकुलर दलों को इससे कोई मतलब नहीं। उनकी सीख चले तो लोग कागज दिखाना बंद कर दें। पुलिस रोककर गाड़ी के कागज मांगे, बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र, मूल निवासी या जाति प्रमाण पत्र मांगा जाए तो क्या मना कर दिया जाएगा? सेकुलर मिसाल होगी कि कोई पाकिस्तान का जासूस पकड़ा जाए और कह दे कि ‘भारतीय हूं, पर कागज नहीं है, कागज नहीं दिखाऊंगा’। इस तरह देश को चलाने वाली मूलभूत व्यवस्थाओं के खिलाफ बगावत फैलाने की द्रोहात्मक राजनीति पर सेकुलरवाद की नयी मीनार खड़ी की जा रही है।
आसमानी अधिकार, विशेषाधिकार
सेकुलर मुखौटे देश के मुसलमानों को भड़काते हैं। एक तरफ संविधान की बातें करते हैं, दूसरी सांस में कहते हैं कि हमारे लिए कुरआन से बड़ी कोई किताब नहीं है। श्रीराम जन्मभूमि मामले में कट्टरपंथी जहर फैलाते रहे, झूठ बोलते रहे कि एक बार, सही-गलत जिस भी तरीके से, कहीं मस्जिद बन गई तो ता-कयामत वह मस्जिद ही रहती है। दूसरी तरफ सेकुलर सरकारें ‘संसाधनों पर अल्पसंख्यकों के प्रथम अधिकार’ और तीन तलाक जैसे मामलों में विशेषाधिकार की बातें करती रहीं। पारिवारिक मामलों में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को देश के कानून से ऊपर रखे रहीं। और ये लोग संविधान की बातें करते हैं?
संविधान में अल्पसंख्यक शब्द परिभाषित ही नहीं है। संविधान सभी के अधिकारों की रक्षा का आश्वासन देता है, विशेषाधिकार किसी को नहीं देता। सभी को पहला अधिकार देता है, बराबर अधिकार देता है। विशेषाधिकार समता को खत्म करता है। जैसे ही आप विशेषाधिकार की बात करते हैं, उसकी प्रतिक्रिया होती है। संविधान की मूलभावना है कि देश में समतामूलक समाज बने। कई ऐसे मुसलमान हैं जो कहते हैं कि ‘मैं अल्पसंख्यक नहीं हूं’। लेकिन ऐसे मुसलमान सेकुलर नजरों में चुभते हैं। खतरनाक बात यह है कि गलत और विभाजनकारी बातों को अलग-अलग बहानों से लोगों के गले से उतारा जाता रहा है, उतारा जा रहा है। इसी प्रकार कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाना अल्पसंख्यकों के विशेषाधिकार हनन का मामला बनाकर पेश किया जाता है। फुसलाया जाता है कि सरकार ‘अल्पसंख्यकों के अधिकारों’ की रक्षा नहीं कर रही है।
सरकार पर जिम्मेदारी है, देश के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की। संविधान में अल्पसंख्यकों के अधिकार नहीं हैं। नागरिकों के नाते ही सब के अधिकार हैं। अल्पसंख्यकों के लिए रक्षा का आश्वासन है, और वह भी नाम नहीं है, कि किस अल्पसंख्यक के लिए, बल्कि जो भी अपने को अल्पसंख्यक समझता है उसके लिए। उनमें भाषाई अल्पसंख्यक हैं। कई राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने का मामला अदालत में है, लेकिन षड्यंत्रपूर्वक अल्पसंख्यक की व्याख्या को समुदाय विशेष के इर्द-गिर्द समेटकर, घृणा को उबालने की सियासत की जा रही है। अल्पसंख्यकवाद की सोच से ही खालिस्तान का जिन्न पैदा किया गया था। सिख समाज का खालिस्तान से लेना-देना नहीं रहा है, लेकिन किसान आंदोलन को सोची-समझी रणनीति के अंतर्गत विदेशी इशारों पर खालिस्तान आंदोलन के रूप में दिखाने की कोशिश की गई। निर्लज्ज सेकुलर राजनीति इस देशघाती हरकत का समर्थन करती देखी गई। ये अब चलन हो गया है। इस साजिश की आग में अपने हाथ सेंकने वालों में हैं भारत के शाही खानदान के ‘युवराज’ और उनकी बहन। सेकुलरवाद, जात और भाषावाद के नाम पर अपनी दुकान चलाते आए कई क्षेत्रीय दल, जिनकी महत्वाकांक्षाएं गठबंधन के दो दशक लंबे दौर के चलते दिल्ली के सिंहासन तक जा पहुंची थीं। सत्ता से दूर रहने की छटपटाहट और सत्ता को बचाए रखने की बेचैनी उन्हें ऐसे रास्ते पर ले आई है जहां राष्ट्रहित कहीं पीछे छूट चुका है।
पश्चिमी अवधारणा है सेकुलरिज्म
सेकुलरिज्म की अवधारणा पश्चिम में विकसित हुई। चर्च द्वारा राज्य के कार्यों में दखल और राज्य द्वारा ईसाइयत के नाम पर लोगों के दमन से लोग तंग आ चुके थे, चर्च और राजतंत्र के गठजोड़ से मुक्ति पाना चाहते थे। चर्च के आदेश पर मतांध व्यवस्था ने लाखों लोगों का कत्ल किया था। पर भारत में तो सारी दुनिया में मजहब के नाम पर सताए लोगों को आश्रय मिलता रहा। इज्राएल से यहूदी आए, ईरान से पारसी आए। भारत ने उन्हें अपनाया, उनके पूजा स्थल बनवाए।
भारत में कभी पूजा पद्धति के नाम पर किसी को परेशान नहीं किया गया, जैसा कि अरब देशों में हुआ, जहां सभी गैर मुस्लिमों को सताया गया, आज भी सताया जा रहा है। अथवा ईसाई देशों में जहां गैर ईसाई मारे जाते रहे। पर भारत में राजनैतिक स्वार्थों के चलते सेकुलरिज्म का वितंडावाद खड़ा किया गया। आपातकाल में कांग्रेस सरकार ने भारत के संविधान में ‘सेकुलरिज्म’ और समाजवाद शब्द जोड़े। इस सेकुलरिज्म की घुट्टी कश्मीर घाटी में नहीं पिलाई गई, जहां लाखों हिंदुओं को मारकाट और नृशंस बलात्कारों के दम पर पलायन के लिए मजबूर कर दिया गया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और शाहबानो के अधिकार छीनने वाली भीड़ को भी सेकुलरिज्म नहीं समझाया गया। लोगों की गरीबी और अशिक्षा का फायदा उठाकर उनका कन्वर्जन करने वाले गिरोहों को भी सेकुलर बनने का पाठ नहीं पढ़ाया गया। सेकुलरिज्म का उपदेश दिया जाता रहा हिंदू समाज को, जो सब प्रकार की ज्यादतियों का शिकार बन रहा था। सेकुलरिज्म का नशा ऐसा चढ़ा कि नेता, मुख्यमंत्री रोजा इफ्तार करते फोटो खिंचवाना कर्तव्य समझते थे, लेकिन अपनी हिंदू पहचान को व्यक्त करने से बचते थे।
आखिरकार जब लोगों ने इस पर प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया, वोट बैंक की राजनीति चरमराने लगी, तब सेकुलरिज्म के मुखौटों पर नया रंगरोगन शुरू हुआ, और एक्टिविज्म के नाम पर नए-नए बाजार सजने लगे, खास तौर पर पिछले सात सालों से।
मुखौटों के पीछे छिपी सूरतें
एक शब्द है लिबरल (उदार), दूसरा है प्रोग्रेसिव (प्रगतिशील)। ये खिताब वामपंथी धड़े और छद्म सेकुलरों ने खुद को दे दिए हैं। ये लिबरल/ प्रोग्रेसिव लोग शरजील इमाम की तरफदारी करते हैं, जो 5 लाख लोगों को इकठ्ठा करके भारत से असम व पूर्वोत्तर राज्यों को ‘परमानेंटली’ काटकर अलग करने, कश्मीर को देश से तोड़ने की बात कहता है, जो हिंदू समाज को ‘सड़ा हुआ समाज’ कहता है, जो कहता है कि गैर मुस्लिमों को भी ‘अल्ला हो अकबर’ बोलना होगा। शरजील कहता है कि ‘मुसलमानों के ब्रिटिश राज बेहतर था. गांधी सदी का सबसे बड़ा फासिस्ट है, जिसने रामराज्य की बात की…जिन्ना मॉडरेट लीडर थे। गांधी और नेशन मुसलमानों के दुश्मन हैं…।’
आप शरजील इमाम का नाम गूगल कीजिए, आपको प्रसिद्ध पत्रिकाओं में वामपंथी प्रगतिशीलों के लेख मिलेंगे, जो शरजील को छात्र/एक्टिविस्ट/सामाजिक कार्यकर्ता/युवा नेता बतलाते हैं। पुलिस को उसके खिलाफ कारवाई करने पर कोसते हैं। प्रगतिशील-लिबरल वामपंथी हैं अरुंधति रॉय, जो पाकिस्तान जाकर भारत गणराज्य और भारत की सेना को लाखों भारतीयों का हत्यारा बतलाती हैं और 40 लाख बंगालियों का कत्ल और बलात्कार करने वाली पाक फौज को क्लीन चिट देती हैं। अरुंधती भारत को फासिस्ट-दमनकारी स्टेट और नक्सलियों, कश्मीर के पत्थरबाजों को आजादी के परवाने बतलाती हैं। उमर खालिद और कन्हैया कुमार के समर्थन में राहुल गांधी, केजरीवाल और कम्युनिस्ट नेता उमड़ पड़ते हैं और लिबरल/सेकुलर बुद्धिजीवी इनकी मासूमियत साबित करने में अखबार और पत्र-पत्रिकाएं रंगते हैं, न्यूज पोर्टल सजाते हैं। आजकल लिबरलों की नयी चहेती है दिशा रवि और उसके साथी, जो ग्रेटा थनबर्ग टूलकिट मामले के मुख्य आरोपियों में से हैं। इन लिबरल/ प्रोग्रेसिव/ सेकुलर मुखौटाधारियों को खालिस्तानियों से हाथ मिलाकर देश के खिलाफ षड्यंत्र करने वाली दिशा रवि 21 साल की मासूम बच्ची लगती है, लेकिन 21-22 साल की उम्र में कश्मीर में बलिदान हो जाने वाले भारत मां के बच्चे, वे युवा सैनिक, फासिस्ट इन्डियन स्टेट के अत्याचारी एजेंट लगते हैं और गट्ठा वोटों के लिए कुछ भी करने पर आमादा राजनीति सेकुलरिज्म के नाम पर इन देशद्रोहियों का समर्थन करती है, देश की सरकार व सुरक्षाबलों पर लानतें भेजती है।
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