भेदभाव का निराकरण भावनात्मक तरीके से ही संभव
बंधुता के बिना सामाजिक समरसता नहीं हो सकती। समरसता किसी कानून से नहीं, संस्कार और व्यक्ति निर्माण से आ सकती है। राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ 90 वर्ष से इसी कार्य में लगा है
समरसता संघ की विचारधारा का एक पारिभाषिक शब्द है। 1983 में श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगडी जी ने पुणे में सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की। तब से इस शब्द का चलन सार्वजनिक मंच पर होने लगा। श्रीगुरुजी तथा पंडित दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन में भी समरसता शब्द का प्रयोग मिलता है।
देश में सामाजिक मुद्दों पर जो विमर्श चलता है उसमें सामाजिक समता शब्द का प्रयोग होता है। इस शब्द का प्रयोग करने वाले समरसता शब्द पर आपत्ति करते हैं। उनका कहना है कि समता के विचार को खत्म करने के लिए समरसता शब्द का प्रयोग किया जाता है। वे कहते हैं, ‘‘सामाजिक समता का हमारा मतलब जाति-पाति को समाप्त करना है और समरसता का मतलब है, जाति को कायम रखकर विभिन्न जातियों में संपर्क बढ़ाना। समरसता शब्द का प्रयोग मनु की व्यवस्था को कायम करने के लिए किया गया है और यह ब्राह्मणवाद का परिचायक है।’’
यहां समरसता का अर्थ समझने से पहले समता का अर्थ जानना आवश्यक है। वैसे समता शब्द का प्रयोग भारतीय आध्यात्मिक दर्शन में सब जगह होता है। वेदों में समानिआकुन इस मंत्र में समता का ही भाव है। भगवद्गीता में भी समता शब्द अनेक बार आया है। आध्यात्मिक संदर्भ में इसका अर्थ होता है, एक ही ब्रह्म के विभिन्न रूप होने के नाते हममें कोई विषमता नहीं है। हम सब एक हैं। लेकिन यह आध्यात्मिक भाव सामाजिक व्यवहार में नहीं उतारा गया। उसका एक अर्थ हो गया कि भगवद्-भक्ति करते समय सभी समान हैं, लेकिन सामाजिक व्यवहार करते समय हम विषम हैं।
समता शब्द भारत के सामाजिक विमर्श में आध्यात्मिक मार्ग से नहीं आया। इसका भौतिक अर्थ पश्चिम की विचारधारा से लिया गया। जेफर्सन ने ‘डिक्लरेशन आॅफ इनडिपेंडंस’ लिखी। उसका एक वाक्य है, ‘आॅल मेन आर क्रिएटेड इक्वल।’ मतलब सभी मनुष्य अपने जन्म से ही समान हैं। अमेरिकी स्वातंत्र्य युद्ध लड़ते समय समता और स्वातंत्र्य को महत्व दिया गया। फ्रांसीसी क्रांति में राजनीतिक समानता के साथ सामाजिक समानता का भी प्रश्न जोड़ा गया। भारत में भी राजनीतिक और सामाजिक दासता समाप्त करने के लिए सामाजिक समता का प्रयोग किया गया। कई कारणों से हिंदू समाज में विषमता का जन्म हुआ। अधिकारों का विषम बंटवारा हुआ। राज्य करने का अधिकार किन्हीं विशिष्ट जातियों को दिया गया। बहुसंख्य लोगों को सेवा कार्य में ही लगाया गया। इसके पीछे धर्म की मान्यता खड़ी की गई। यह व्यवस्था अपरिवर्तनीय मानी गई। इस प्रथा के खिलाफ भारत में अनेक महापुरुषों ने आवाज उठाई। इनमें महात्मा ज्योतिराव फुले और डॉ. आंबेडकर का नाम विशेष रूप से लिया जाता है।
आंबेडकर जी कहा कहते थे कि स्वातंत्र्य, समता और बंधुता ये मेरे जीवन की तत्वत्रयी हैं। लेकिन वे कहते थे कि ये तत्व मैंने फ्रांसीसी क्रांति से नहीं लिए हैं। इनकी जड़ें भगवान गौतम बुद्ध की शिक्षा में हैं। समता के संदर्भ में आंबेडकर जी ने कहा कि समाज में ऊंच-नीच न रहे, जाति-बंधन न रहे, एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आसानी से जाने की सुविधा हो, व्यक्ति की पहचान जन्म से नहीं, उसकी योग्यता से निर्धारित होनी चाहिए। स्वातंत्र्य का मलतब उन्होंने यह बताया कि हर एक व्यक्ति को विचार, अभिव्यक्ति और व्यवसाय के चयन की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। व्यक्ति को समाज के कृत्रिम बंधन से बांध कर नहीं रखना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने जीवन में प्रगति का, सुख की प्राप्ति करने का मार्ग खुला रहना चाहिए। भारतीय संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को समता और स्वातंत्र्य की गारंटी देता है। लेकिन केवल संवैधानिक गारंटी से समता और स्वातंत्र्य का रक्षण हो पाना संभव नहीं है। इसीलिए सभी नागरिकों के मन के अंदर बंधुत्व की भावना का रहना आवश्यक है। आंबेडकर जी कहा करते थे कि समता और स्वातंत्र्य की रक्षा का काम कानून करेगा, लेकिन स्वातंत्र्य और समता की गारंटी कोई भी राज्य कानून नहीं दे सकता। राज्य के कानून तोड़ने के लिए ही बनाए जाते हैं। राज्य के कानून के पीछे दंड शक्ति का भय रहता है। भय से स्वातंत्र्य, समता की रक्षा नहीं हो सकती। वे यह भी कहते थे कि बंधुता मानसिक भावना है और यह संस्कार से निर्मित होगी। उसके पीछे धर्म की पवित्रता खड़ी करनी चाहिए, क्योंकि धर्म का कानून कोई तोड़ता नहीं।
हमारे संविधान में स्वातंत्र्य और समता की रक्षा के लिए अनेक अनुच्छेद हैं। स्वातंत्र्य और समता का अतिक्रमण होने के बाद व्यक्ति न्यायालय में जाकर न्याय की मांग कर सकता है। लेकिन संविधान में बंधुता का न तो कोई अनुच्छेद है और न ही कानून। क्योंकि राज्य कानून से बंधुता निर्मित नहीं होती। बंधुता कैसे निर्मित होगी? हर एक व्यक्ति के मन में जब समरसता का भाव होगा, तब बंधुत्व की भावना निर्मित होगी। समरस भाव का मतलब होता है, दूसरों के सुख-दु:ख के साथ एकरूप होना। दूसरों के सुख और दु:ख को अपना सुख-दु:ख समझकर उसका अनुभव करना।
बंधुता की अगली सीढ़ी समरसता है। बंधुता मानसिक भावना है, वैसे ही समरसता भी एक मानसिक भावना है। यह भावना प्रत्येक हिंदू के मन में निर्मित हो, इस दृष्टि से राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ 90 वर्ष से प्रयत्नशील है। कुछ विषय बुद्धि के होते हैं और कुछ विषय मन के होते हैं। समता और स्वातंत्र्य का तत्वज्ञान बुद्धि विषय है, उस पर असंख्य किताबें हैं। यह तत्वचिंतन का विषय है और तत्वचिंतन की सीमा आकाश होती है। काल के अनुसार पुराने अर्थ बदलते जाते हैं और उसमें नए अर्थ जोड़े जाते हैं। समरसता एक मनोभाव है। यह मनोभाव ‘जैसा मैं वैसा तू’ इस भावना पर खड़ा होता है।
मनुष्य का मन एक ऐसी चीज है जिसे समझना और अपने वश में रखना बहुत कठिन काम होता है। इसीलिए मन पर बार-बार संस्कार करने पड़ते हैं। संघ का एक गीत है, जिसमें कहा गया है कि मनसा सततम् स्मरणीयम्, वचसा सततम वदनीयम्, लोहितं मम करणीयम्।
समरसता का संस्कार गढ़ने के लिए संघ ने एक पद्धति विकसित की है। यह एक गहरी मनोवैज्ञानिक पद्धति है। संघ पर टीका-टिप्पणी करने वाले इसका शून्य अभ्यास करते हैं। इसलिए संघ को समझना इनके लिए बहुत कठिन हो जाता है। संघ एक संस्कार सातत्य से देता रहता है- यह मेरी मातृभूमि है, मैं उसका पुत्र हूं। अन्य सारे मेरे बंधु हैं, सभी के कल्याण में मेरा कल्याण है। मैं समाज का एक अंग हूं। यही भाव संघ के स्वयंसेवकों में निर्मित किया जाता है। संघ की प्रार्थना संघ का सैद्धांतिक मंत्र है। इसमें प्रारंभ में कहा गया,
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे, त्वया हिंदूभूमे, सुखं वर्धितोहम्।
महामंगले पुण्यभूमे त्वदर्थे, पतत्वेषकायो। नमस्ते नमस्ते।।
इस प्रकार संघ का स्वयंसेवक रोज अपनी प्रार्थना में यह स्मरण करता है कि मेरी मां एक है, मैं उसका पूत्र हूं, यह महामंगल पुण्य भूमि है और इसी भूमि के लिए मेरी काया समर्पित हो। इसका मतलब यह होता है कि जन-जन के सुख-दु:ख में मुझे सहभागी होना है और ये सारे मेरे आत्मीय हैं।
विद्यमान सामाजिक परिभाषा में कहना हो तो स्वातंत्र्य, समता और बंधुता का व्यवहार यानी समरसता है। समरसता स्वातंत्र्य, समता और बंधुता की गारंटी है। समता और समरसता में किसी संघर्ष की कल्पना करना केवल अज्ञान-मूलक ही नहीं, हास्यास्पद भी है। संघ के कार्य का लक्ष्य है हिंदू समाज को संगठित करना। हिंदू समाज हजारों जातियों, अनेक पंथों, भाषाओं और क्षेत्रवाद में विभक्त है। विषमताओं के रहते हुए हिंदू समाज संगठित हो ही नहीं सकता। समता और बंधुता का मंत्र लेकर ही हिंदू संगठन संभव है। संघ में समता का जो अनुभव होता है, वह भारत के और किसी संगठन में कर पाना अत्यंत कठिन है। संघ में सभी स्वयंसेवक समान भूमिका पर रहते हैं। स्वयंसेवक उसकी एकमात्र पहचान होती है। समाज पर संकट आने के बाद स्वयंसेवक किसी आदेश की राह नहीं देखता। वह संकट निवारण करने के लिए स्वयंस्फूर्ति से दौड़कर जाता है। इसके पीछे का कारण है समरसता।
लेखक सामाजिक समरसता मंच के संस्थापक सदस्य हैं। मैं मनु और संघ उनकी प्रख्यात पुस्तक है
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