26 जनवरी को दिल्ली में हिंसा भड़काने के लिए झूठ फैलाते पकड़े गए राजदीप सरदेसाई की इंडिया टुडे-आजतक समूह में ससम्मान वापसी हो गई है। चैनल पर कार्रवाई न हो, इसलिए प्रबंधन ने उन्हें एक माह के लिए हटा दिया था। जब वे वापस न्यूजरूम में पहुंचे तो चैनल के मालिकों व पत्रकारों ने ताली बजाकर उनका स्वागत किया। मानो कोई बहुत बड़ी उपलब्धि पाकर लौटे हैं
सद में कांग्रेस भले ही बड़ी शक्ति नहीं रही, लेकिन लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर अभी भी उसका झंडा लहराता है। कांग्रेस के पूर्व और भावी अध्यक्ष राहुल गांधी जो कुछ भी बोलते हैं, उसे मीडिया पूरी गंभीरता से छापता और दिखाता है। मीडिया को यह भी पता है कि उनके किन कामों और बातों को छिपाना है। राहुल गांधी कहते हैं कि सरकार बनने के बाद मत्स्य पालन के लिए वह मंत्रालय बनाएंगे तो अखबार व चैनल उनके बयान को जस का तस दिखाते हैं, बिना तथ्य जांचे कि केंद्र की भाजपा सरकार यह काम पहले ही कर चुकी है। लेकिन जब वे केरल में अमेठी और उत्तर भारत के लोगों को कोसते हैं तो मीडिया उसे अधिक तूल नहीं देता, क्योंकि उसे पता है कि देश के बाकी हिस्सों में यह बयान राजनीतिक रूप से सही नहीं माना जाएगा। राहुल भले ही नासमझ हों, पर उन्हें नेता मानने वाला मीडिया का कांग्रेसी तंत्र अपनी निष्ठा पूरी चतुराई के साथ निभा रहा है।
26 जनवरी को दिल्ली में हिंसा भड़काने के लिए झूठ फैलाते पकड़े गए राजदीप सरदेसाई की इंडिया टुडे-आजतक समूह में ससम्मान वापसी हो गई है। चैनल पर कार्रवाई न हो, इसलिए प्रबंधन ने उन्हें एक माह के लिए हटा दिया था। जब वे वापस न्यूजरूम में पहुंचे तो चैनल के मालिकों व पत्रकारों ने ताली बजाकर उनका स्वागत किया। मानो कोई बहुत बड़ी उपलब्धि पाकर लौटे हैं। एनडीटीवी भले ही बदनाम हो गया, पर इंडिया-टुडे, आजतक समूह कांग्रेसी इकोसिस्टम का घातक हथियार है। इसने निष्पक्षता का भ्रम बनाए रखने की कुशलता पा रखी है। कुछ दिन शांत रहने के बाद वह मौका मिलते ही अराजकतावादी अभियान को आगे बढ़ाएंगे।
इंडिया टुडे जैसी ही स्थिति टाइम्स समूह की है। केरल में जिहादी संगठन पीएफआई ने मोपला नरसंहार की शैली में एक जुलूस निकाला। इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गणवेश पहने दो लोगों को जंजीर से बंधा दिखाया गया। नवभारत टाइम्स और इंडिया टुडे ने ‘फैक्ट चेक’ किया और पीएफआई के हवाले से ही सिद्ध कर दिया कि यह प्रदर्शन अंग्रेजी शासन के विरुद्ध था। नवभारत टाइम्स ने समाचार में ‘इस्लामिस्ट’ की तरह ‘हिंदूवादी’ के लिए ‘हिंदुइस्ट’ शब्द प्रयोग किया। हिंदू घृणा के इस शब्द का आविष्कार गूगल के अनुवाद विभाग में बैठे इस्लामिस्टों ने किया है। गूगल अनुवाद भारत में जिहादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के बड़े अस्त्र के तौर पर विकसित हो रहा है। इस पर अंग्रेजी के शब्दों का हिंदी में इस्लामी अनुवाद होता है। जैसे- ‘गुड बाय’ का हिंदी अनुवाद ‘खुदा हाफिज’। लोगों ने विरोध किया तो गूगल को उसे हटाना पड़ा। हिंदी भाषा के इस्लामीकरण का जो अभियान फिल्मों व समाचार माध्यमों से शुरू हुआ था, गूगल उसे आगे बढ़ा रहा है।
पिछले वर्ष दिल्ली में हुए हिंदू विरोधी दंगों की बरसी मीडिया ने भी मनाई। फिर से निशाने पर थे कपिल मिश्रा, जबकि न्यायालय या जांच एजेंसियों ने उन पर लगे किसी आरोप को सही नहीं माना है। हिंसा को पहले ही दिन ‘नरसंहार’ बताने वाले इंडियन एक्सप्रेस ने उन्हीं झूठे व दुराग्रहपूर्ण आरोपों के आधार पर संपादकीय लेख छापा। यह वह मीडिया है जिसके लिए सड़क खाली कराने के लिए पुलिस से कहना भी ‘भड़काऊ बयान’ होता है, पर देश तोड़ने के नारे लगाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
चीन ने स्वीकार किया कि गलवान घाटी में हुए संघर्ष में उसके सैनिक मरे थे। ‘द क्विंट’ ने लिखा, ‘चीन ने माना कि उसके 4 सैनिक शहीद हुए’, जबकि उसी घटना में बलिदान हुए भारतीय सैनिकों के लिए इसने ‘मारे गए’ शब्द प्रयोग किया था। इसी घटना के समय भारतीय सेना पर भद्दी टिप्पणी करने वाले वामपंथी अखबार ‘द टेलीग्राफ’ ने चीन की स्वीकारोक्ति पर चुप्पी साध ली। आॅल्टन्यूज नामक वामपंथी दुष्प्रचार वेबसाइट तो चीन के सैनिकों के मरने के भारतीय सेना के दावे का ही ‘फैक्ट चेक’ कर दिया था। प्रेस की स्वतंत्रता की आड़ में ऐसे ढेरों संस्थान चल रहे हैं जो चीन के स्लीपर सेल की तरह काम करते हैं। यह मात्र संयोग नहीं कि इन सभी के मालिकों, संपादकों के कांग्रेस और वामपंथी दलों से राजनीतिक संबंध हैं। केरल में चुनाव होने वाले हैं। राज्य में कोरोना वायरस से बचाव में वामपंथी सरकार की विफलता और स्वर्ण घोटाले की खबरें लगभग पूरी तरह से गायब हो चुकी हैं। दिल्ली से छपने वाले अखबारों में भी इनसे जुड़े समाचार आपको नहीं मिलेंगे। वामपंथ राजनीतिक रूप से भले ही नकारा जा चुका हो, लेकिन समाचार संस्थानों में बैठे कॉमरेड पूरी शक्ति से अपने काम में जुटे हैं।
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