सितंबर 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए धमाके ने न केवल एक हिंसक घटना के रूप में भारतीय समाज को आहत किया, बल्कि एक ऐसा राजनीतिक-वैचारिक विवाद भी खड़ा कर दिया, जिसका उद्देश्य था आतंकवाद को एक विशेष सांस्कृतिक पहचान से जोड़ देना। ‘हिंदू आतंकवाद’ या ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे शब्दों का जन्म इसी घटना की आड़ लेकर हुआ। किन्तु आज, करीब डेढ़ दशक बाद, जब न्यायपालिका ने आरोपियों को पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में बरी कर दिया, तब यह साफ हुआ कि यह मामला केवल आतंकवाद की जांच तक सीमित नहीं था, बल्कि घृणित राजनीति और वैश्विक स्तर पर एक गढ़े गए कथानक का व्यापक षड्यंत्र था।

यह राजनीतिक स्वार्थ के चलते आतंकवाद के राजनीतिकरण का मामला है। मालेगांव केस को शुरुआत से ही राजनीतिक चश्मे से देखा गया। उस दौर में भारत सरकार और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता, जैसे पी. चिदंबरम, सुशील शिंदे और दिग्विजय सिंह ने ‘संघी आतंकवाद’ और ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे शब्द इस्तेमाल करके एक दूषित राजनीतिक विमर्श खड़ा किया। सवाल उठा कि क्या यह राजनीतिक ‘बैलेंसिंग एक्ट’ था? निःसंदेह, 2004 के बाद भारत ने अनेक आतंकवादी घटनाएं देखी हैं। दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, समझौता एक्सप्रेस विस्फोट आदि, जिनके कारण वैश्विक स्तर पर भारत पर अल्पसंख्यक विरोधी आरोपों की वर्षा हो रही थी। ऐसे में ‘हिंदू आतंकवाद’ का ‘नैरेटिव’ सुविधाजनक राजनीतिक उपकरण प्रतीत हुआ।
इसी दौर में सुरक्षा एजेंसियों, विशेषकर महाराष्ट्र एटीएस और एनआईए, पर राजनीतिक दबाव के आरोप लगे। पूर्व एनआईए अधिकारी आर.वी.एस. मणि ने खुलकर कहा कि उन पर ‘हिंदू आतंकवाद’ या ‘भगवा आतंकवाद’ की पुष्टि करने का दबाव था। सुरक्षा विशेषज्ञ ब्रह्म चेलानी के अनुसार, ‘‘भारत में ‘हिंदू आतंकवाद’ का नैरेटिव इस्लामी आतंकवाद की वैश्विक आलोचना के विरुद्ध एक रणनीतिक ढाल था।’’ यानी जांच के नाम पर राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों का राजनीतिकरण हुआ, जो लोकतांत्रिक भारत के लिए चिंताजनक था।
भारतीय न्यायपालिका ने अंततः तथ्यों के आधार पर इस राजनीतिक षड्यंत्र को उजागर किया। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के स्कूटर का प्रयोग विस्फोट में हुआ था, लेकिन अदालत को उनके विरुद्ध विस्फोटक सामग्री की जानकारी होने के कोई ठोस सबूत नहीं मिले। वहीं, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित के मामले में सेना के दस्तावेजों से यह प्रमाणित हुआ कि वे पाकिस्तान-समर्थित आतंकवादी नेटवर्क में सेना के गुप्तचर के रूप में काम कर रहे थे। बावजूद इसके, उन्हें करीब एक दशक तक जेल में रखा गया। सर्वोच्च न्यायालय ने भी 2017 में माना था कि इस मामले में ‘राजनीतिक प्रभाव की आशंका’ स्पष्ट दिखाई पड़ती है। यह भारत के संवैधानिक सिद्धांतों, विशेषकर अनुच्छेद-21 (जीवन एवं स्वतंत्रता का अधिकार) के उल्लंघन का स्पष्ट उदाहरण था।
न्यायालय का यह निर्णय केवल आरोपी व्यक्तियों के लिए न्याय और सत्य की विजय नहीं है, बल्कि यह विद्वेषी सत्ता द्वारा विरोधी विचारधारा के दमन पर नकेल भी है। इस निर्णय के आने के बाद अंतरराष्ट्रीय हिंदुत्व-विरोधी षड्यंत्र और उसकी विफलता के दोनों पन्ने एकसाथ सबके सामने खुले हैं।
मालेगांव धमाके के साथ ही वैश्विक स्तर पर ‘हिंदू आतंकवाद’ जैसे शब्दों का प्रसार पश्चिमी मीडिया संस्थानों, न्यूयॉर्क टाइम्स, बीबीसी और अमेरिकी थिंक-टैंकों, जैसे RAND Corporation और Freedom House ने किया। इस अंतरराष्ट्रीय नैरेटिव का उद्देश्य था हिन्दू राष्ट्रीयता को चरमपंथ की श्रेणी में स्थापित करना। इस दौरान हिंदू संगठनों को बार-बार Right-wing militant networks के रूप में पेश किया गया। प्रश्न यह भी है कि वे संस्थान अब न्यायालय द्वारा आरोपियों को बरी करने के बाद भी क्या अपने निष्कर्षों को पुनः देखेंगे? यदि उनका उद्देश्य सत्य है तो इन्हें आत्मनिरीक्षण करना होगा और यदि इनका उद्देश्य राजनीतिक एजेंडे का पोषण था, तो इनकी साख का और गिरना तय है।
भारतीय न्यायपालिका द्वारा सुनाए गए निर्णय ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर यह साबित कर दिया कि ‘हिंदू आतंकवाद’ की पूरी अवधारणा फर्जी साक्ष्यों, जबरन स्वीकारोक्तियों और पूर्वाग्रहों पर आधारित थी। यह एक वैचारिक युद्ध था, जो सच्चाई और न्याय के सामने टिक नहीं पाया।
यह प्रकरण वैचारिक संघर्ष में सत्य की विजय का है। आज जब मालेगांव केस में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, कर्नल पुरोहित और अन्य आरोपी सम्मानपूर्वक बरी किए जा चुके हैं, तब स्पष्ट है कि यह मामला सिर्फ एक आतंकवादी हमला नहीं था, बल्कि यह आतंकवाद के राजनीतिकरण, न्याय प्रणाली के दुरुपयोग और वैश्विक स्तर पर हिंदुत्व को बदनाम करने के व्यापक ‘नैरेटिव’ युद्ध की पराजय है।
यह मामला दिखाता है कि राजनीतिक हित, वैचारिक आग्रह और अंतरराष्ट्रीय पूर्वाग्रह कभी भी सत्य और संवैधानिक न्याय के सामने टिक नहीं सकते। मालेगांव विस्फोट के आरोपियों का बरी होना केवल न्यायिक विवेकशीलता का प्रमाण नहीं, बल्कि वैश्विक हिंदुत्व-विरोधी शक्तियों को भारत की न्याय व्यवस्था का उत्तर भी है।
अतः यह प्रकरण भारत के लिए एक चेतावनी है कि कैसे देश के भीतर राजनीतिक लाभ के लिए आतंकवाद का राजनीतिकरण किया जा सकता है, और कैसे इससे वैश्विक स्तर पर देश की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचता है। लेकिन साथ ही, यह न्याय की विजय का भी प्रतीक है, जिसने अंततः सिद्ध किया कि सच्चाई के विरुद्ध गढ़े गए ‘फर्जी नैरेटिव’ न्याय के हथौड़े की चोट पड़ते ही बिखर जाते हैं।
X@hiteshshankar
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