Malegaon Blast Case: “सत्य कभी बूढ़ा नहीं होता। बल्कि सत्य जितना पुराना होता है, उतनी ही उसमें न्याय पाने की ललक बढ़ती है। सत्य की उम्र जितनी बढ़ती है, वह उतना ही अमर, उतना ही युवा होता जाता है।”
यह केवल एक न्यायिक निर्णय नहीं है, यह भारत की आत्मा, उसके धर्म, उसके साधु-संतों और उसकी सांस्कृतिक चेतना की पुनर्प्रतिष्ठा है। महाराष्ट्र के मालेगांव बम धमाका (2008) केस में एनआईए की विशेष अदालत ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित, और उनके साथ जुड़े 5 अन्य राष्ट्रभक्तों को 17 वर्षों बाद बाइज्जत बरी कर दिया है। यह केवल एक साध्वी की जीत नहीं है। यह उस असली भारत की जीत है, जिसे वर्षों तक “हिंदू आतंकवाद” जैसे एक राजनीतिक षड्यंत्र में फँसाकर कलंकित करने की कोशिश की गई थी।
कांग्रेस ने गढ़ा भगवा आतंकवाद का नरैटिव
इसमें कोई संदेह नहीं कि 29 सितंबर 2008 को मालेगांव में हुए बम धमाके, जिनमें 6 निर्दोष नागरिक मारे गए, एक दर्दनाक आतंकी घटना थी। लेकिन इससे भी भयावह था वह झूठा नैरेटिव जिसे कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार के संरक्षण में गढ़ा गया- “भगवा आतंकवाद”। क्या भगवा, जो तप, त्याग और साधना का प्रतीक है — वह आतंक का रंग हो सकता है? क्या सनातन धर्म, जिसने ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का उद्घोष किया, वह आतंक फैला सकता है? परंतु राजनीति की प्रयोगशाला में कांग्रेस ने इस रंग को कलंकित करने का पूरा षड्यंत्र रचा।
इस केस में जिन लोगों को आरोपी बनाया गया, वे थे- साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित, रमेश उपाध्याय, अजय राहिरकर, समीर कुलकर्णी, सुधाकर चतुर्वेदी, सुधाकरधर द्विवेदी। इन पर ऐसे आरोप लगाए गए, जिनके समर्थन में कोई ठोस सबूत नहीं थे, ना फिंगरप्रिंट, ना कॉल डिटेल्स, और ना ही कोई आत्मस्वीकृति। फिर भी, इन्हें 9 वर्षों तक जेल में रखा गया, मानसिक और शारीरिक यातनाएं दी गईं, उनकी छवि सार्वजनिक रूप से ध्वस्त की गई। यह केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि संन्यास और संतत्व की सार्वजनिक हत्या थी।
वोटबैंक के लिए पुलिस और एजेंसियों पर बनाया दबाव
लेकिन वोटबैंक की राजनीति में आंखों पर पट्टी बाँध ली गई। पुलिस और जांच एजेंसियों पर दबाव बनाया गया। साध्वी प्रज्ञा, जो एक राष्ट्रभक्त संन्यासिनी थीं, को हथकड़ियों में जकड़कर जेल में डाल दिया गया। वह पीड़ा, वह यातना, वह अपमान; सब कुछ एक राजनीतिक नैरेटिव को पुष्ट करने के लिए था।
साध्वी प्रज्ञा को दी शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना
साध्वी प्रज्ञा पर झूठे केस लगाए गए। उन्हें शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना दी गई। उनके साथ जो अमानवीय व्यवहार हुआ, वह किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्म की बात है। एक साध्वी को, जो तपस्विनी जीवन जी रही थीं, आतंकवादी घोषित किया गया — केवल इसलिए कि वह भगवा वस्त्र धारण करती थीं?
अदालत का फैसला
एनआईए अदालत ने अपने फैसले में कहा कि जांच एजेंसियां कोई ठोस प्रमाण पेश नहीं कर सकीं। कर्नल पुरोहित के घर में बम या विस्फोटक का कोई साक्ष्य नहीं मिला। अभिनव भारत संगठन की फंडिंग और आतंकी गतिविधियों के बीच कोई संबंध नहीं सिद्ध हुआ। फिंगरप्रिंट, मोबाइल डेटा और कॉल रिकॉर्ड; किसी भी प्रकार की वैज्ञानिक जांच नहीं की गई। इससे स्पष्ट होता है कि यह एक पूर्वनियोजित राजनीतिक साजिश थी — जिसमें राष्ट्रभक्तों को केवल भगवा पहनने की कीमत चुकानी पड़ी।
परंतु आज इस बात का संतोष है कि यह केवल साध्वी की नहीं, भारत की जीत है। यह न्यायिक निर्णय उस भारत की जीत है जो धर्म को हथियार नहीं, जीवन का मार्ग मानता है। यह उन लाखों युवाओं की जीत है जो आज गर्व से कह सकते हैं —
“हम भगवा पहनते हैं, और हम राष्ट्रभक्त हैं”
परंतु अब प्रश्न उठता है कि क्या अब राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी देश से माफ़ी माँगेंगे? क्या उन पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को शर्म आएगी, जिन्होंने बिना तथ्यों के लोगों को आतंकवादी घोषित किया? क्या “सेक्युलरिज़्म” के नाम पर हिन्दू प्रतीकों को गाली देने वाले अब आत्मचिंतन करेंगे? क्या राजनीतिक विरोध का स्तर इतना गिर जाएगा कि अपने ही देश के संतों को आतंकवादी घोषित कर दिया जाए? क्या सत्ता के लिए सत्य को कुचला जा सकता है? क्या यह लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप था? क्या पूरे देश के सामने इनकी नैतिक जवाबदेही नहीं बनती? कांग्रेस को अब देश से माफ़ी माँगनी चाहिए — केवल साध्वी प्रज्ञा से नहीं, बल्कि उन करोड़ों हिंदुओं से जिन्हें पिछले एक दशक में गुनहगार बना दिया गया।
17 वर्ष तक सत्य हुआ अपमानित
वास्तव में इन 17 वर्षों में केवल आरोपी नहीं बल्कि सत्य का अपमान हुआ। इन वर्षों में साध्वी प्रज्ञा की मानसिक और सामाजिक हत्या हुई। कर्नल पुरोहित जैसे वीर सैनिक, जिन्होंने भारत की सेवा की, उन्हें देशद्रोही कहा गया। वह समय कौन लौटाएगा? वह प्रतिष्ठा कौन लौटाएगा? वह मानसिक आघात कौन भरेगा? यह केवल कानूनी मुकदमा नहीं था यह आत्मा का अपमान था। उनकी पीड़ा, उनका मौन रोदन — सत्ता के गलियारों में अनसुना रहा। लेकिन राष्ट्र ने देखा। भारत की जनता ने महसूस किया कि कैसे एक संतत्व को राजनीति की गंदी चालों में घसीटा गया।
आज जब अदालत ने कहा- “कोई अपराध सिद्ध नहीं होता”,
तब पूरा भारत यह कह उठा – “सत्य कभी हारता नहीं। सत्य भगवा होता है।”
साहस, तपस्या और सत्य का है रंग
आज यह सिद्ध हो गया कि साहस, तपस्या और सत्य का रंग है। साध्वी प्रज्ञा की आज़ादी उस अनगिनत पीड़ाओं की गवाही है जो उन्होंने देश के लिए सहीं। यह सत्य की, साधना की, और सनातन की विजय है। अब यह क्षण एक नये सांस्कृतिक पुनर्जागरण का है। यह राष्ट्र पुनः कह रहा है; जब-जब धर्म पर आघात होगा, तब-तब कोई प्रज्ञा खड़ी होगी और वह झुकेगी नहीं। आज सत्य की विजय हुई है। आज सनातन की मर्यादा पुनः स्थापित हुई है। और आज सेक्युलर राजनीति का सांप्रदायिक चेहरा उजागर हो गया है।
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