गत 23 जुलाई को नई दिल्ली में भारतीय मजदूर संघ (भामस) की 70वीं वर्षगांठ पर एक भव्य समारोह आयोजित किया गया। समारोह में रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत, केन्द्रीय श्रम मंत्री डॉ. मनसुख मांडविया, भामस के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री हिरण्मय पंड्या, महामंत्री श्री रविन्द्र रोहिते, संघ के वरिष्ठ प्रचारक और भामस के पालक अधिकारी श्री भागैया सहित अनेक श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधि, समाजसेवी और जनप्रतिनिधि उपस्थित थे। समारोह को संबोधित करते हुए श्री भागवत ने कहा, “70 वर्ष बाद, भामस विश्व में एक महत्वपूर्ण, और भारत में सबसे बड़ा मजदूर संगठन बन चुका है। आज समय बदला है, व्यवहार बदला है। अब हम अपने शाश्वत मूल्यों के आधार पर एक नया मॉडल दुनिया को देने के लिए निकले हैं।’’ यहां हम श्री भागवत के उसी उद्बोधन का संपादित स्वरूप प्रकाशित कर रहे हैं
भारतीय मजदूर संघ’ के नाम से एक नया मजदूर संगठन शुरू हुआ, तब दत्तोपंत ठेंगड़ी जी बताया करते थे कि देश में पहले से ही अन्य मजदूर संगठनों के वरिष्ठ और अनुभवी कार्यकर्ता सक्रिय थे। दत्तोपंत जी उनके पास भी जाते थे, संवाद करते थे, और भारतीय मजदूर संघ के विचार और कार्यप्रणाली के बारे में विस्तार से बताते थे। उस समय हमारा संगठन बहुत छोटा था, इतना छोटा कि कुछ लोगों की कल्पना में तक में नहीं था। इसलिए किसी के मन में हमारे लिए प्रतिस्पर्धा या पूर्वाग्रह जैसी कोई भावना नहीं थी।
लेकिन जब संगठन आगे बढ़ा, बड़ा हुआ, तो स्वाभाविक रूप से कुछ लोग सतर्क हो गए। सतर्क ही नहीं हुए, बल्कि अनेक वरिष्ठों ने सुनने-समझने के बाद भी कहा-“तुम्हारा भगवा झंडा इस मैदान में नहीं लहरा सकता।” उनकी दृष्टि में इसलिए नहीं लहरा सकता था, क्योंकि हमारी विचारधारा भिन्न थी और आधुनिक इतिहास में इस विचारधारा का कहीं प्रयोग नहीं दिखता था। जब भारत की दृष्टि से हमने मजदूर आंदोलन का विचार प्रस्तुत किया, तो अनेक लोगों को यह विचार असामान्य लगा, क्योंकि वे मानते थे कि “मजदूर बनाम मालिक” की परंपरा ही संघर्ष का स्वरूप है, लेकिन हम मानते थे-“एक उद्योग-एक परिवार”, और उसी भाव से हमने संगठन की नींव रखी। उस समय लोगों ने कहा-“जो लोग मजदूरों के दुख दूर करने के लिए संघर्ष करने निकले हैं, वे अगर ‘परिवार’ की बात करेंगे, तो टिक नहीं पाएंगे।’ परंतु हम देख रहे हैं कि सैकड़ों कार्यकर्ताओं के त्याग, बलिदान और परिश्रम के परिणामस्वरूप आज 70 वर्ष बाद, हमारा संगठन विश्व का एक महत्वपूर्ण, और भारत में सबसे बड़ा मजदूर संगठन बन चुका है। इसका आत्मगौरव आपको प्राप्त हो, यह स्वाभाविक और बिल्कुल सही है। जो आनंद, उत्साह आज आपने दिखाया है, आप उसके अधिकारी हैं। लेकिन यह भी कहा गया कि आज आत्मावलोकन का अवसर भी है। वर्षभर ‘अमृत महोत्सव’ के अंतर्गत अनेक कार्यक्रम किए। अब उन कार्यक्रमों को विराम देना है, और यह सोचना है कि हम कैसे यहां तक पहुंचे? क्या कारण रहे? कौन-सी प्रेरणा थी जो हमें यहां तक लाई? इसलिए विचार करना आवश्यक है।

सफलता काे परखना, विचार करना आवश्यक
हमारा त्रैवार्षिक अधिवेशन होता है। मैं जब नागपुर शहर का प्रचारक था, तो एक अधिवेशन नागपुर में भी हुआ था, 1980 के दशक में। उस अधिवेशन में डॉक्टर म गो भुकरे अतिथि के नाते उद्घाटन वक्ता थे। उनका भाषण समाप्त हुआ, फिर दत्तोपंत जी का भाषण हुआ। मैं उस अधिवेशन में व्यवस्थापक था। उद्घाटन कार्यक्रम में रहना, व्यवस्था देखना, फिर अपने काम पर निकल जाना, यही जिम्मेदारी थी। अपने भाषण में दत्तोपंत जी ने कहा-“डॉक्टर भुकरे जी ने जो विषय रखा, वह हमारी पद्धति से भिन्न है। लेकिन हमारी मजबूरी है, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था यही है। और इसी के भीतर से हमें बढ़ना होगा। बाद में हम अपने विचारों के प्रयोग कर पाएंगे।”
अभी भारत ने आई.एल.ओ. में सबको साथ लेकर कार्य किया। हम दूर से देखकर अनुभव करते हैं कि भारत ने सही दिशा में प्रयास किया है। लेकिन इतने वर्ष तक जो हमने अपनी ‘चौकोर कुटिया में गोल कीलें ठोंककर’ जो कठिन प्रयास किए, वे कितने सफल हुए, क्या सही रहा, यह सब देखना, परखना और विचार करना आज आवश्यक हो गया है।
व्यवस्था अपने स्वभाव को बनाती है, जैसे विचार स्वभाव को बनाते हैं। हमारा विचार स्पष्ट है-“श्रम”। हम श्रम का महत्व मानते हैं। हम धर्म की बात करते हैं। पूजा-पाठ वाले धर्म की नहीं, बल्कि वह धर्म जो समाज को जोड़ता है, सबको सुख देता है, सबको उन्नत करता है। शास्त्र कहते हैं, धर्म के चार पांव हैं-सत्य, करुणा, शुचिता और तप (परिश्रम)। बाकी तीन तत्व-सत्य, करुणा और शुचिता-तप के बिना नहीं प्राप्त होते। यह देश परिश्रम को जीवन का मूलमंत्र मानने वाला रहा है और आज भी है। समय बदला है, व्यवहार बदला है। अब हम उसी व्यवहार को फिर से स्थापित करने के लिए अपने शाश्वत मूल्यों के आधार पर एक नया मॉडल दुनिया को देने के लिए निकले हैं।
हमारा विचार शाश्वत है। आज समय बदला है, लेकिन हम शाश्वत विचार के आधार पर, और दुनिया के अन्य अनुभवों को जोड़कर, युगानुकूल समाधान देने का प्रयास कर रहे हैं। आजकल कबड्डी मैच भी नई पद्दति से होते हैं, जैसे ही झगड़ा होता है, दोनों दल आमने-सामने आते हैं, रेफरी सीटी बजाकर सबको फिर से खेल में भेज देता है। यह ‘पद्धति ’ का प्रभाव है। हमारे कार्यक्रम भी आज की पद्धति से हो रहे हैं, लेकिन हमारा विचार हमारा अलग है। इसलिए उसका ध्यान रखना आवश्यक है। संतुलन बनाकर चलना पड़ेगा। और यह संतुलन एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को सिखाती है। आज हमारे मजदूर संगठन में तीसरी-चौथी पीढ़ी कार्यरत है। पहली पीढ़ी ने इसे चलाया, दूसरी ने इसे बढ़ाया। अब तीसरी-चौथी पीढ़ी को यह ‘भाव’ देना पड़ेगा। इसके लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता है। हम काम कर रहे हैं, क्योंकि हमारे मन में संवेदना है। मजदूरों का दुःख, समाज का दुःख है। और समाज को दुःखी देखना हमारे लिए असहनीय है। यही हमारी प्रेरणा है।

समर्पण का भाव
इससे लाभ होता है, और लाभ देखकर लोग जुड़ते हैं। लेकिन क्या वे केवल लाभार्थी बनते हैं? या देयार्थी भी बनते हैं? यह सोचना होगा। जब दत्तोपंत जी राज्यसभा में गए, तब पूजनीय गुरुजी से मिलने पहुंचे। गुरुजी ने पूछा-“आप संसद में मजदूरों का प्रतिनिधित्व किस दृष्टिकोण से करेंगे?” दत्तोपंत जी बोले, “जैसे एक मां को अपने पुत्र की चिंता होती है, मेरा वैसा ही लगाव, वैसा ही समर्पण मजदूरों के लिए रहेगा।” गुरुजी ने कहा-“अगर यह भाव है तो मार्ग सही है। नहीं है तो सब अभिनय है।”
दुनिया में बहुत लोग सेवा इसलिए करते हैं ताकि मान-सम्मान मिले। कोई भय से, कोई अहंकार तृप्त करने के लिए सेवा करता है। लेकिन टिकाऊ काम वही होता है जिसके पीछे संवेदना और प्रामाणिकता हो। प्रेरणा यही है। अब जब भारत में ‘एक उद्योग-एक परिवार’ की कल्पना को हमने स्थापित किया है तो यहीं नहीं रुकना है। जब तक “मजदूरों को एक करना है” विचार स्थापित नहीं होता, तब तक कार्य रुकना नहीं चाहिए। परिस्थितियां बदलती हैं। जैसे बदलती परिस्थिति में मनस्थिति नहीं बदलनी चाहिए, वैसे ही कार्यपद्धति को परिस्थिति के अनुसार नया स्वरूप देना पड़ता है। पहले कई समस्याएं नहीं थीं, अब वे हैं। असंगठित क्षेत्र की समस्याएं बढ़ी हैं। घर में काम करने वाले, छोटे मजदूर, घरेलू सहायक आदि भी शोषण का शिकार होते हैं। उनके लिए भी कार्य करना पड़ेगा। यह क्षेत्र बहुत बड़ा है और विविध है। हर परिस्थिति के लिए अलग कार्यपद्धति बनानी पड़ेगी।
‘समाज के प्रति उत्तरदायित्व निभा रहा भामस’
भारतीय मजदूर संघ (भामस) के 70वीं वर्षगांठ के समारोह में संगठन के अध्यक्ष हिरण्मय पंड्या द्वारा व्यक्त विचार
भारतीय मजूदर संघ केवल वेतन, भत्ते और पदोन्नति के लिए संघर्ष नहीं करता, बल्कि समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को भी गंभीरता से निभाता है। संगठन पंच परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्ध है, जो हैं पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समरसता, स्वदेशी आंदोलन, कुटुंब प्रबोधन और नागरिक कर्तव्य। इन विषयों पर अगस्त 2024 से जनवरी 2025 तक देशभर में जागरूकता अभियान चलाया गया, जिसमें जिला स्तर पर व्याख्यानमालाएं, महिला एवं युवा सम्मेलन और श्रमिक संपर्क कार्यक्रम शामिल रहे।
संगठन की स्थापना 23 जुलाई 1955 को भोपाल में राष्ट्रहित, उद्योगहित और मजदूर हित के आधार पर हुई थी, और आज यह देश का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन बन चुका है। संगठन ने पिछले सात दशकों में शून्य से शिखर तक का सफर तय किया है। डिजिटल प्लेटफॉर्म और कार्यकर्ता डेटा एप्लिकेशन लॉन्च कर संगठनात्मक संवाद को आधुनिक रूप देने की दिशा में कदम उठाए गए हैं।
धर्म का अंग है परिश्रम
आज तकनीक बढ़ रही है। ज्ञान बढ़ रहा है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती, लेकिन अगर ज्ञान का प्रयोग करने वालों के पास दिशा नहीं है, तो वह विनाश का कारण भी बन सकता है। तकनीक के आने से रोजगार घटेंगे या बढ़ेंगे? परिश्रम की प्रतिष्ठा कम हो रही है। पहले लोग पैदल चलते थे, अब छोटी गाड़ी के बिना नहीं चलते। जीवन में परिश्रम की क्षमता कम हो रही है तो परिश्रम की प्रतिष्ठा भी घटेगी। और परिश्रम धर्म का अंग है। धर्म की प्रतिष्ठा चाहिए तो श्रम की प्रतिष्ठा आवश्यक है। हम सबसे बड़ा संगठन हैं। दुनिया हमें देख रही है। इसलिए हमें ऐसा संगठन खड़ा करना है जो श्रमिकहित, उद्योगहित और देशहित के साथ विश्वहित का माध्यम बने।
यह परिवर्तन युग की आवश्यकता है। जिस परिस्थिति में हमने कार्य प्रारंभ किया उसमें हमारे पास कुछ था तो बस आत्मविश्वास। हमने शून्य से सृष्टि की है। आज दुनिया उसे देख रही है। हमारे पास समर्थन है। लेकिन अंतिम सफलता तक पहुंचना हमारी ही जिम्मेदारी है। दत्तोपंत जी ने एक बार कहा था-“हम प्रार्थना में कहते हैं, त्वदियाय कार्याय बद्धा कटीयम्, शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये।(हम आपके कार्य के लिए कमर कस चुके हैं, कृपया आशीर्वाद दें।) तो प्रश्न उठा-यदि यह भगवान का कार्य है, तो उसमें इतनी कठिनाई क्यों? उत्तर मिला-“यह भगवान का कार्य है, लेकिन भगवान तुम्हारा नौकर नहीं है। तुम्हारी इच्छा से काम करेगा, यह अपेक्षा न करो। तुम्हें निरंतर अपनी योग्यता बनाए रखनी होगी।” योग्यता के आधार पर ही भगवान साथ रहते हैं। उन्हें बांधा नहीं जा सकता।
एक विवाह प्रसंग में डॉ. हेडगेवार पान खाने लगे, उसमें चूना नहीं लगा था। सब कहते रहे, “चूना लाओ, चूना लाओ…”। लेकिन कोई लाया नहीं। काम को करने वाला चाहिए, केवल बोलने से कुछ नहीं होता। हमें अपनी योग्यता बनाए रखनी है। संगठन की प्रतिष्ठा बढ़ रही है। लेकिन उसके साथ अहंकार नहीं आना चाहिए। दत्तोपंत जी कहते थे-“स्टेटस लविंग लीडर्स और कंफर्ट लविंग वर्कर्स की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए सामूहिकता और अनामिकता बनी रहनी चाहिए। “मैं नहीं, तू ही” की भावना होनी चाहिए। परिस्थितियां बदली हैं इसलिए निरंतर आत्मावलोकन करते हुए, हर पड़ाव को पार करते हुए अपने अंतिम लक्ष्य तक अविरत बढ़ते रहना ही हमारा मार्ग होना चाहिए। नियति की इच्छा है विश्व परिवर्तन। हमारे पास कुछ नहीं था, केवल एक भाव था कि यह कार्य पवित्र है इसलिए कार्य करना है, और करते रहना है।
‘श्रमिकों के हित को ध्यान में रखकर नई तकनीकों पर विचार करना आवश्यक’
भारतीय मजूदर संघ के 70वें वर्षगांठ समारोह में केंद्रीय मंत्री डॉ. मनसुख मांडविया द्वारा व्यक्त विचार
भारतीय मजदूर संघ केवल आंदोलनों का नेतृत्व नहीं करता, बल्कि प्रेरणा भी देता है। आज यह संगठन भारत ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एक महत्वपूर्ण श्रमिक संगठन बन चुका है। संगठन की कार्य संस्कृति अनूठी है। यह भारतीय जीवनशैली के अनुरूप है, जो श्रम मंत्रालय के साथ उसकी चर्चाओं में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इसमें संदेह नहीं है कि श्रमिक ही देश की विकास यात्रा के आधार हैं। भामस इन श्रमिकों के कल्याण के लिए प्रतिबद्धता के साथ कार्य कर रहा है। हमें नई तकनीकों के प्रभाव पर भी विचार करना होगा ताकि श्रमिकों को नुकसान न हो।
भामस एकमात्र ऐसा श्रमिक संगठन है जो भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक सिद्धांतों के आधार पर काम करता है। इसकी मूल विचारधारा राष्ट्रीय है और यही कारण है कि यह देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन बना है। इस रूप में, भामस ने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) में भारतीय श्रमिकों के मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठाया है। हाल ही में संपन्न आईएलओ सम्मेलन में भामस ने भारत की सभी अन्य केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का नेतृत्व करके सुनिश्चित किया कि सभी ट्रेड यूनियन एक स्वर में बोलें। अन्य ट्रेड यूनियनों के नेताओं ने बाद में बताया कि भामस ने प्रत्येक यूनियन को आईएलओ मंच पर अपने विचार रखने की अनुमति दी।
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