सरस्वती घाटी में पुरातत्व की दृष्टि से अनेक स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। ये स्थान हैं-आदिबद्री, कुणाल, बालू, बनावली, भिरडाणा, राखीगढ़ी, शीशवाला, फरमाना, खेड़ी महम, कालीबंगा, सोथी आदि। इन स्थानों पर कृषि संबंधी अनेक पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं जिनमें कृषि तकनीक से संबंधित वस्तुएं तथा खिलौने आदि हैं। इनसे पता चलता है कि इस क्षेत्र में संस्कृति के उदय काल से ही खेती की जाती थी और अनेक प्रकार की फसलें उगाई जाती थीं।

अध्यक्ष, विद्वत परिषद, भारतीय इतिहास संकलन समिति, हरियाणा
ये प्रमाण ऋ ग्वेद में वर्णित खेती संबंधी तकनीक एवं प्रक्रियाओं से मेल खाते हैं। इससे पता चलता है कि वैदिक सभ्यता इस क्षेत्र में पूरी तरह से फैली हुई थी। वैसे भी सर्वविदित है कि सरस्वती घाटी में ही वेदों की रचना हुई थी। यहां आरंभ हुई संस्कृति, सरस्वती संस्कृति ही थी जिसका विस्तार पश्चिम में हुआ जिसे भारत विरोधी, विदेशी और साम्राज्यवादी शक्तियों ने हड़प्पा संस्कृति का नाम दिया। यह आश्चर्यजनक है कि विश्व में अनेक सभ्यताओं के नाम उनके देश के नाम पर हैं। जैसे चीन की सभ्यता, मेसोपोटामिया की सभ्यता, रोम की सभ्यता आदि परंतु भारतीय उपमहाद्वीप में इसे हड़प्पा अथवा सिंधु सभ्यता का नाम दिया गया, जबकि इ्से भारतीय सभ्यता नाम दिया जाना चाहिए था। इस नाम को बदला जाना चाहिए।
ऋग्वेद में सरस्वती
ऋग्वेद में सरस्वती का नाम लगभग 80 बार आया है। इसे प्लाक्ष्वती, वेदस्मृति तथा वेदवती भी कहा गया है। इन्हें माताओं, नदियों तथा देवियों में श्रेष्ठ, और ज्ञान एवं बुद्धि प्रदान करने वाली के रूप में जाना जाता था। सरस्वती के विषय में ऋ ग्वेद में एक प्रार्थना में हम पाते हैं- ‘सप्तधारा वाली, सिंधु और अन्य नदियों की माता, जिनमें प्रचुर जल की धारा है, वे प्रचुर आहार देने के लिए सशक्त रूप से प्रवाहित हो।’ पुनः यजुर्वेद के अनुसार, पांच प्रसिद्ध नदियां, शक्तिशाली नदी सरस्वती में मिलकर सिंधु सागर से मिलने जाती हैं। अथर्ववेद में कहा गया है कि भगवान ने सरस्वती के किनारे रहने वाले लोगों को मीठे और रसीले जौ से आशीर्वाद दिया, जहां उदार मरुत किसान बने और इंद्र कृषि के स्वामी के रूप में स्थापित हुए।

यह मंत्र संकेत करता है कि वेदकाल में सरस्वती की उर्वरा भूमि पर अनाज की खेती की जाती थी। ऋ ग्वेद (3.23.4) के अनुसार अपया, सरस्वती और दृषद्वती नदियों की भूमि पृथ्वी पर श्रेष्ठ एवं पवित्र स्थान है। भरत दुष्यंती ने यमुना, गंगा और सरस्वती के तटों पर बलि अर्पित की थी। इंद्र ने सोम तीर्थ में वृत्र को मारा, जो वैदिक काल में शर्णावत कहलाता था। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, पुरुखा उर्वशी अप्सरा से सरस्वती क्षेत्र में ही मिला था। एतरेय ब्राह्मण (2.2.19) में हम पाते हैं कि ऋ षियों ने एक बार सरस्वती के तट पर यज्ञ किया था और एलूष के पुत्र कवष को यज्ञभाग से निष्कासित कर दिया था। महर्षि वाल्मीकि ने अयोध्या से कैकेय के मार्ग पर कुरुजांगल और सरस्वती नदी का उल्लेख किया है। मनुस्मृति में ब्रह्मावर्त को सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच परिभाषित किया गया है। महाभारत में सरस्वती के अनेक संदर्भ हैं। दधीचि का आश्रम सरस्वती नदी के पार था। यह विभिन्न प्रकार के वृक्षों और लताओं से घिरा हुआ था।
काम्यक वन सरस्वती नदी के तट पर स्थित था। बलराम की तीर्थयात्रा में इस नदी के तटों पर स्थित तीर्थों का अच्छा वर्णन मिलता है। उनमें से कुछ तीर्थ आज भी वैसे ही हैं। शल्य पर्व में सुरेणु-सरस्वती का उल्लेख किया गया है कि यह नदी कुरुक्षेत्र में कौरवों की तपस्या के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई, जबकि बेहवारी-सरस्वती उस क्षेत्र में इसलिए आ गई, क्योंकि महर्षि वसिष्ठ ने कठोर तपस्या की थी। वही ग्रंथ कुरुक्षेत्र की सीमाओं का उल्लेख करता है, जहां सरस्वती का भी उल्लेख किया गया है। स्कंद पुराण के अनुसार, देवताओं ने सरस्वती से पृथ्वी पर अवतार लेने का निवेदन किया और उन्होंने प्लक्ष वृक्ष में प्रकट होने की स्वीकृति दी। महर्षि मार्कंडेय द्वारा की गई कठोर तपस्या के कारण सरस्वती ने उनके आश्रम में पीपल वृक्ष में पृथ्वी पर अवतार लिया। पद्मपुराण के सृष्टिखंड में इस नदी के अवतरण का वर्णन मिलता है।
बौद्ध साहित्य में सबसे पहले स्वर्णप्रभ सूत्र में सरस्वती का संदर्भ मिलता है, जिसे प्रथम सदी ई. में लिखा गया और 417 ई. में चीनी में अनुदूति किया गया था। इसके अनुसार सरस्वती एक प्रमुख देवी बन गईं, जिन्होंने अपनी वैदिक विशेषताओं जैसे वाक्, ज्ञान, उपचार और संरक्षण को बनाए रखा। अतः ईसा की प्रथम सदी में सरस्वती देवी रूप में भी पूज्य थी। इस प्रकार वेदों, ब्राह्मणों, मनु, रामायण, महाभारत, पुराणों आदि प्राचीन ग्रंथों में सरस्वती का प्रचुर विवरण मिलता है। कालांतर में सरस्वती एक प्रमुख देवी बन गईं, जिन्होंने अपनी वैदिक विशेषताओं को बनाए रखा। ऋ ग्वेद में सरस्वती नदी के विवरण से यह भी स्पष्ट होता है कि आर्य मध्य एशिया से भारत में नहीं आए। यदि वे पश्चिम से आए होते, तो नदियों का विवरण भी पश्चिम से पूर्व क्रम में मिलता। ऋग्वेद के (10.75.5) में नदियों का जो विवरण है वह गंगा, यमुना, सरस्वती, पुरुषणी आदि है। इन नदियों का क्रम पूर्व से पश्चिम की ओर है न कि पश्चिम से पूर्व की ओर। इससे स्पष्ट है कि आर्य मध्य एशिया से नहीं आए ।
वैदिक साहित्य में कृषि
ऋ ग्वेद (1.117. 21) के अनुसार खेती करने के लिए हल द्वारा भूमि जोतने की शिक्षा सबसे पहले अश्विनी कुमारों द्वारा दी गई। उन्होंने मनु को यव बोने की कला का ज्ञान कराया था। अथर्ववेद (6.30.1) का पद पाठ इस प्रकार है- देवा:। इमम्। मधुना। संयुतम्। यवम्। सरस्वत्याम्। अधि। मणौ। अचर्कृषु:। इन्द्र:। आसीत्। सीर-पति:। शतक्रतु:। कीनाशा:। आसन्। मरुत:। सु-दानव:॥ अर्थात् सरस्वती नदी के किनारे ही देवताओं ने मधुयुक्त यव (जौ) उगाने के लिए खेत तैयार किया। इसमें इंद्र को हल का स्वामी (सीरपति) और मरुत देव कृषक बताए गए हैं। अतः सरस्वती नदी के किनारे की भूमि को अति उपजाऊ देखकर ही कृषि कार्य के लिए सर्वप्रथम उसे चुना गया। कृषि कार्य की प्रेरणा इंद्र अर्थात् राजा ने दी। अतः उसे क्षेत्रपति अथवा अधिष्ठाता तक कहा गया। उसके नियंत्रण में प्रजा जन ने जौ की खेती की। इससे ज्ञात होता है की सबसे पहले जौ की खेती आरंभ हुई। अथर्ववेद, तैत्तिरीय ब्राह्मण, पाराशर ग्रह सूत्र आदि में भी जौ का विवरण मिलता है।
जौ उत्पादन तथा उसका महत्व
जौ को प्रथम अन्न होने के कारण सनातन संस्कृति में पवित्र माना जाता है तथा अनेक संस्कारों में आज भी उसका प्रयोग होता है। जौ को महत्व देने का एक कारण यह भी है कि वैदिकों को जौ के औषधीय गुणों का भी पता था। जौ में अनेक गुणों को उपस्थित होने के कारण इसे अन्न का राजा भी कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार जौ में विटामिन, लोहा, कैल्शियम, मैग्नीशियम, सेलेनियम, जिंक, कॉपर, प्रोटीन, फाइबर और एंटी आक्सीडेंट पाए जाते हैं। गेहूं और चना के साथ जौ को मिलाकर खाने की परंपरा भारत में बहुत प्राचीन है, यह संतुलित संपूर्ण खाद्य माना जाता है।

पुरातत्व विभाग ने सरस्वती नदी क्षेत्र में अनेक प्राचीन स्थलों पर कार्य किया तथा लगभग सभी स्थानों से जौ के अवशेष प्राप्त हुए। राखीगढ़ी, तिगराना, कुणाल, बनावली, बालू आदि स्थानों पर जौ की खेती होने के पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध हुए हैं। इसकी खेती के सबसे अधिक प्रमाण बनावली, जिला फतेहाबाद से मिले हैं, जहां जुते हुए खेत भी मिले हैं। बालू, जिला कैथल में 1977 से प्रो. सूरजभान तथा एक अमेरिकी पुरातत्वविद् जिम जी. सेफर ने खुदाई आरंभ की थी, जो अभी तक होती रही है। इस स्थल पर 29 खात (ट्रेंच) लगाई गई है, जिनमें ट्रेंच नंबर 1 से 5 में पूर्व हड़प्पा कालीन तथा 6 से 18 तक हड़प्पा कालीन और उत्तर हड़प्पा कालीन बस्तियां पाई गई हैं।
कुल 29 खातों में से 24 खातों में जौ के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। इसके बहुत से दाने पूरे के पूरे मिले हैं जिनकी लंबाई 3.5 मिलीमीटर से 5 मिली मीटर तथा मोटाई 2 से 2.5 मिलीमीटर तक है। इसी प्रकार बालू, जिला कैथल से जौ की खेती के प्रमाण मिले हैं। अन्य स्थलों पर भी इसी प्रकार के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। भिवानी के तिगडाना से भी नरेन्द्र परमार (2022-23) को जौ के अनेक अवशेष मिले हैं। इससे सिद्ध होता है कि सरस्वती क्षेत्र में विस्तृत रूप से यह अनाज उगाया जाता था। इन स्थानों का काल 2,600 ईस्वीं पूर्व से 1,900 ईस्वीं पूर्व तक है। अन्य प्रमाणों से पता चलता है कि 1,900 ईस्वीं पूर्व के आसपास सरस्वती नदी सूखने लगी थी। धीरे-धीरे यहां की बस्तियां उजड़ने लगीं। अनेक स्थानों पर गेहूं, धान, चना और मूंग के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं। आधुनिक परिदृश्य में भी जौ, गेहूं और चने के मिश्रित आटे की बनी रोटियां सबसे श्रेष्ठ मानी जाने लगी हैं।
बार-बार खेत जोतना
ऋ ग्वेद में खेतों की अच्छी तरह जुताई और बुआई करने तथा खेतों को तैयार करने के लिए बार-बार जोतने के निर्देश मिलते हैं जिससे अधिक अन्न आसानी से उत्पन्न किया जा सके। कुछ विद्वानों के अनुसार ऋ ग्वेद में उल्लिखित पंचकृष्टि का अर्थ भी भूमि को पांच बार जोतना होता है। यजुर्वेद (12.68) के अनुसार भी भूमि को परिष्कृत करने के पश्चात ही बीज बोना चाहिए। इसके लिए हल का प्रयोग किया जाता था। वेदों में हल के लिए अनेक शब्द मिलते हैं जैसे सीर, वृक, सील तथा लांगल आदि। अथर्ववेद के अनुसार हल द्वारा जुताई के लिए खींची गई रेखा को सीता कहा जाता था। इंद्र से सीता को जल से भरने की प्रार्थना की गई है। ऐतरेय ब्राह्मण से भी हमें निर्देश मिलता है कि अच्छी तरह से जुता हुआ खेत अच्छी फसल देता है। पुरातत्वविदों को सरस्वती नदी के क्षेत्र में बसे बनावली से जुते हुए खेत प्राप्त हुए हैं। यह जुताई वेदों के कथनानुसार ही की गई होगी। बनावली के प्राक हड़प्पा काल में एक ही खेत में दो फसलें होने के प्रमाण मिले हैं। जोते हुए खेत में सीधी पंक्ति लगभग 30 सेंटीमीटर की दूरी पर है, जबकि उन्हें काटने वाली पंक्तियों की आपसी दूरी 190 सेंटीमीटर के आसपास है। हल का निर्माण उदुम्बर अथवा खादिर की कठोर लकड़ी से होता था।
हल चलाने की विधि
वैदिक ऋ चाओं में हल चलाने की विधि का विवरण भी आता है। ॠग्वेद (3.53.57) के अनुसार हल में एक मोटा बांस बांधा जाता था जिसे ईषा कहते थे। इसके ऊपर जुआ (युग) रखा जाता था जिसमें राशियों से बैलों को बांधा जाता था। सरस्वती-सिंधु क्षेत्र से हल के नमूने, जो मिट्टी के बने हुए हैं तथा युग आदि उपकरण प्राप्त हुए हैं। अनेक स्थानों से जुए से जोड़े हुए बैल गाड़ियों के खिलौने मिलते हैं।
अन्न का भंडारण
वैदिक काल में लोगों को अन्न भंडार में खाद्यान्नों को सुरक्षित रखना ज्ञात था। ऋ ग्वेद (10.68.3) में ‘स्थिवि’ शब्द का प्रयोग मिलता है जिसका अर्थ अन्न का भंडारण होता है। इन भंडारों में सुरक्षित रखे गए अन्न का प्रयोग अगले मौसम में बीजों को सुरक्षित रखने तथा अतिरिक्त उत्पादन को खाने के लिए सुरक्षित करने के लिए किया जाता था। वेदों में ‘उर्दार’ और ‘कृदार’ शब्दों का प्रयोग भी अन्न भंडारण या भंडार के अर्थ में किया गया है। जैसे-‘ताम् ऊदरं न प्रणता यवेना’ जैसे जौ से भरा भंडार, ‘समिद्धो अंजन कृदरं मतिनाम्’ जैसे भंडार या प्रार्थना को सजाना, आदि। सरस्वती सिंधु संस्कृति में भी हम अनाज भंडार पाते हैं। उदाहरण के लिए राखीगढ़ी में 5,000 वर्ष पूर्व का एक अन्न भंडार मिला है।
यह अन्न भंडार कच्ची ईंटों से बना है और इसका फर्श मिट्टी से लिपा हुआ है। इसमें सात आयताकार या वर्गाकार कक्ष हैं। अन्न भंडार की दीवार के निचले हिस्से पर चूने और गली हुई घास के महत्वपूर्ण निशान पाए गए हैं, जो इस बात का संकेत देते हैं कि यह अनाज का भंडार भी हो सकता है, जहां कीटनाशक के रूप में चूने और नमी को रोकने के लिए घास का उपयोग किया जाता था। आकार को देखते हुए, यह एक सार्वजनिक अन्न भंडार प्रतीत होता है। इससे पहले हडप्पा में अन्नागार पाया गया था।
इस विवरण से स्पष्ट है कि सरस्वती नदी का उल्लेख वेदों सहित समस्त प्राचीन ग्रंथों में सम्मानजनक ढंग से किया गया है। यह एक विस्तृत नदी थी तथा भारतीय सभ्यता का आधार थी। अतः सभ्यता का प्रकाश सरस्वती से आरंभ हुआ और यह पश्चिम की ओर बढ़ता चला गया। अब समय आ गया है कि हम इस तथ्य को स्वीकार करें कि वैदिक सभ्यता ही सरस्वती-सिंधु सभ्यता थी।
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