नौकरशाही : शासन पर भारी ‘साहब’
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देश में नौकरशाही की आन्तरिक निरंकुशता शासन पर भारी ‘साहब’

देश में नौकरशाही की आन्तरिक निरंकुशता और दोहरे चरित्र के कारण जबावदेह शासन में आ रही परेशानियों पर जनता में विमर्श खड़ा हुआ है I समय रहते व्यवस्था को सुधारने हेतु कदम उठाने होंगे

by डॉ. क्षिप्रा माथुर
Jul 24, 2025, 07:50 am IST
in भारत

लौह पुरुष कहे जाने वाले देश के प्रथम गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा भारतीय प्रशासनिक सेवाओं को ‘स्टील फ्रेम’ कहा गया था। उनका मानना था कि यह ढांचा यदि टूटा तो चारों तरफ़ अफरातफरी मच जाएगी। आज यही नौकरशाही 78 साल के लोकतन्त्र की सबसे बड़ी दुखती रग है जिसके रवैये ने, उसके ‘स्टील’ होने के भ्रम को तोड़ दिया है। राजस्थान के प्रमुख शासन सचिव स्तर के एक आला अधिकारी द्वारा अपना 80 प्रतिशत समय फिजूल के कामों में खर्च होने की बात सोशल मीडिया पर कही गई है एवं उस पोस्ट को ‘क्रन्तिकारी स्वीकारोक्ति’ माना जा रहा है। व्यवस्था में रहते हुए, उसकी कमियां देखना और समाधान करना बड़ी क्रांति होती है। किन्तु गलत के खिलाफ पहले बोलना विद्रोह होता है, गुस्ताखी कहा जाता है।

डॉ. क्षिप्रा माथुर
वरिष्ठ पत्रकार

जैसे अदालतें अपनी छुट्टियों और भत्तों पर फैसले लेने में देरी नहीं लगातीं वैसे ही अधिकारी भी अपने से जुड़ी सहूलियतें लेने में देरी नहीं लगाते। बेवजह बैठकों का अम्बार, मानव संसाधन का अपव्यय एवं विभाग संबंधी जानकारियों का जवाब देने अथवा अदालतों में पेशी के नाम पर समय की बर्बादी, रिपोर्ट्स इकट्ठी करने की लम्बी प्रक्रिया। डिजिटल के इस सुनहरे दौर में, सूचनाओं के लोकतांत्रीकरण के क्रियान्वयन का कोई ठोस रोड मैप क्यों नहीं तैयार हो पाया? कुछ वर्ष पहले, अमेरिका के एक काउंटी ऑफिस में जाना हुआ तो वहां नियुक्त शीर्ष अधिकारियों की यात्रा, टिकट, रहने, खाने समेत सारे खर्च और उनकी बैठकों में उपस्थिति आदि का सब हिसाब काउंटी के आधिकारिक पोर्टल पर सार्वजानिक किया गया था। किन्तु हमारे यहां समस्त काम-काज को अर्जी और पर्ची में फंसाकर रख दिया गया है। पारदर्शिता और जवाबदेही को बेहद पेचीदा बना दिया गया है, जिसके चक्रव्यूह में पिसना तो अंततः जनता को ही है।

नौकरशाही पर निर्भर पूरा शासन तंत्र, जनता पर नियंत्रण, जहां जन-सुनवाई, राहत और बेहतरी के सिद्धांत दिखावटी दिखाई देते हों, ऐसे में ये लोग काम के बदले अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में लिप्त दिखाई देते हैं। आवेदनों को अटकाना, टरकाना, टालना, अपने मातहतों को सरेआम फटकारना, घंटों वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग में हिसाब-किताब लेते रहना, उन्हीं सूचनाओं के उलटफेर में काबिल कर्मचारियों और अपने नीचे वालों को नचाते रहना। नौकरशाही का यह तरीका ही ‘कड़क’ अफसर होने का तमगा है। अपनी हनक और समय की बर्बादी ही कमाई है नौकरशाही की। आज तक भला विभागीय अफ़सरों से समय का हिसाब आखिर कौन ले पाया है? शीर्ष प्रशासनिक अधिकारियों की न तो उपस्थिति दर्ज होती है, न ही उनके ‘लंच’ का समय निर्धारित होता है।

सिटिजन-चार्टर और सुशासन

शासकीय ‘जेनेरिक’ काम में समय की बर्बादी की दुहाई देने वाले इस प्रमुख शासन सचिव की बात का दूसरा पक्ष यह भी है कि समय की बर्बादी को रोकने के लिए प्रशासन को जिम्मेदार और जवाबदेह बनाने का कोई सुझाव कभी किसी को रास नहीं आया। सुविधाओं के भोग के बाद, व्यवस्था की खामियों का ठीकरा नेताओं पर फोड़कर, जन-संवाद और जनहित के सारे कागज तोड़-मरोड़ दिए जाते हैं। साल 1997 में ‘सिटीजन चार्टर’ इसी उम्मीद से लाया गया था कि जनता की जरूरतें एवं अधिकार केंद्र में रहें। उसके काम समय पर हों, और बिना किसी बिचौलिये के हों। वर्ष 2018 में भारत सरकार ने दस ऐसे क्षेत्रों की पहचान की, जहां विषय के विशेषज्ञ और उत्कृष्ट लोगों को शीर्ष प्रशासनिक कमान दी जाए। इसे ‘लेटरल एंट्री’ कहा गया, जिसके नतीजे देखने को मिलने लगे थे। लेकिन ये बात प्रशासनिक सेवा के अफसरों को रास नहीं आई।

निर्भीक नौकरशाह : टी.एन.शेषन

देश के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन की लिखी किताब ‘थ्रू द ब्रोकन ग्लास’ में कई ऐसे किस्से दर्ज हैं। योजना आयोग में अपनी नियुक्ति के दौरान, तय मियाद खत्म होने के बाद भी घंटों जारी बैठकों पर उन्होंने जिस अंदाज में एतराज जताया, वह हर किसी के बस का तो नहीं। अपने केबिन से घड़ी निकालकर शेषन ने एक नोट आयोग के सचिव को लिख भेजा कि ‘जहां कुछ काम समय पर नहीं होता वहां घड़ी की ज़रूरत ही नहीं।’ इसके बाद वहां लगा कैलेंडर भी इसी तर्क पर हटवा दिया। वहां बिताए वक्त के बाद, शेषन ने कहा कि भारत सरकार के जितने ‘नाकारा संस्थान’ हैं उनमें ‘योजना आयोग’ शीर्ष पर है। सेवा के शुरुआती दौर में जब पब्लिक ट्रांसपोर्ट विभाग की कमान उनके हाथ आई तो लाइसेंस लेकर स्वयं बस ड्राइवर भी बने और कंडक्टर भी, जिससे कि सही समझ से कड़े फैसले ले सकें।

समस्या है तो समाधान भी है

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेत्तृत्व वाली भारत सरकार ने वर्ष 2015 में ‘प्रगति’ नाम की एक व्यवस्था बनाई जिससे कि सक्रिय शासन एवं समयबद्ध क्रियान्वयन सुनिश्चित हो सके, इस त्रिस्तरीय व्यवस्था में प्रधानमंत्री कार्यालय, केंद्रीय सचिव और राज्यों के मुख्य सचिव शामिल किए गए। परिणामतः करीब 340 परियोजनाएं ‘प्रगति’ के माध्यम से ही आगे बढ़ सकीं । प्रशासन को और गतिशील बनाने के लिए प्रधानमंत्री ‘गतिशक्ति’ भी वर्ष 2021 में अमल में आई, जिसके कारण निर्माण कार्यों में जल्द फैसले लेने एवं रुकावटें दूर करने में सहायता मिली। गुजरात के सुशासन मॉडल में ‘डैशबोर्ड’ से काम की प्रगति की निगरानी बड़ा हिस्सा था। जल शक्ति मंत्रालय ने भी ‘जल जीवन मिशन’ के लिए यही व्यवस्था अपनाई थी, जो कारगर रही। सभी केंद्रीय मंत्रालयों की घोषणाओं और कामकाज की ‘ई-समीक्षा’ भी शासन प्रक्रिया का हिस्सा है, जिससे अधिकारियों पर काम को समय से पूरा करने का दबाव बना है। संख्या में कमी होने की वजह बताने वाली नौकरशाही को ‘डोमेन-विशेषज्ञ’ बनने के लिए तो गहन प्रशिक्षण और कड़े अनुभव की जरूरत है।

अंदरूनी खींचतान और नौकरशाही

नौकरी के अंतिम चरण में नौकरी जाने, ओहदे की हनक और आगामी किसी लाभ की नियुक्ति की चाहत के कारण नौकरशाहों में विषाद और लालच एक साथ उपजता है। विषाद का कारण यह कि बहुत कुछ उनके मन अनुसार नहीं हो पाता एवं लालच इस बात का कि आगामी नियुक्ति ऐसी रहें जहां कुछ टटोलने और बटोरने को रहे। कुर्सी जाने से पहले, कहीं किसी आयोग, समिति, संस्था में कोई सुभीता सा ठिकाना मिल जाए, यह भी नजर रहती है। इसी व्यवस्था में गिनती के ऐसे अधिकारी भी हैं, जो काजल की कोठरी में भी नवाचारों और उसूलों की गठरी खोल कर बैठे हैं, मगर उनमें से ज्यादातर दर-बदर हैं।

पूर्व चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन जैसे कद्दावर अधिकारी को भी शुरुआती नियुक्ति के समय, तमिलनाडु के मुख्य सचिव ने एक ही दिन में चार अलग-अलग ‘पोस्टिंग ऑर्डर्स’ थमाकर अपने साथ के ही अधिकारी के आदेश को नहीं मानने का सबक सिखाया था। ऐसी विभागीय प्रताड़ना भी प्रशासनिक स्वभाव में रच-बस गई है, जिसका ख़ामियाजा आखिरकार सरकार और पूरा समाज भुगतता है।

अंग्रेजियत छोड़ प्राथमिकता हो जनकल्याण

जिस भ्रष्ट और नाकारा तंत्र को श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ और विजय तेंदुलकर के नाटक ‘घासीराम कोतवाल’ जैसे उत्कृष्ट लेखन और मंचन से उघाड़ा गया, वह मुखौटा बदल-बदलकर वहीं खड़ा है। सरकारी पैसों की लूट, अपराधियों और अफसरों की साठ-गांठ, और जनता को दोयम दर्जे का नागरिक मानने की मानसिकता ज्यों की त्यों रहती है। एक बात और अखरती है कि प्रशासनिक सेवा की पहली सीढ़ी पर ‘कलेक्टर’ का पद होता है। ये ब्रिटिश राज के नौकर थे, जिनका काम ही ‘कर वसूली’और सबको ‘काबू’ में करना था। आज उनकी भूमिका बिल्कुल अलग है, जिसमें कुछ वसूलने का नहीं, जन-कल्याण का काम मूल है। अब तक मौजूद ऐसे (कलेक्टर) पदनाम भी औपनिवेशिक काल के अवशेष हैं, जिनसे छुटकारा पाना चाहिए। आज के अफसरों को, सरकार की योजनाओं को ठीक से लागू करने और जनता की परेशानियां दूर करने के साथ-साथ भारत की तरक्की के रास्ते भी खोलने हैं। इसके लिए, जरूरी है कि हर कार्य के केंद्र में सामाजिक न्याय, उत्कृष्टता और समयबद्धता रहे।

सुरक्षित-विकसित भारत

देश के रक्षा मंत्रालय में प्रमुख सलाहकार रहे लेफ्टिनेंट जनरल विनोद खंडारे ने अपने एक पॉडकास्ट में देश के संसाधनों की बर्बादी के लिए ‘कमजोर गवर्नेंस’ एवं कानूनों की अवहेलना तथा कमतरी आदि जिक्र किया है। उनका कहना है कि सुरक्षित और आत्मनिर्भर भारत के लिए ऐसे नौकरशाह चाहिए जो ‘विकसित भारत’ के लक्ष्यों के लिए समर्पित हों। रक्षा मंत्रालय के उच्च अधिकारियों के साथ उनका अनुभव रहा कि उन्हें कभी इंतज़ार नहीं करवाया गया और उनके दिए सुझावों पर बढ़-चढ़कर काम भी हुआ। नौकरशाही से अपेक्षा की गयी है कि वह मात्र प्रबंधक नहीं अपितु भारत के विकास को गति देने वाली बने, तो ज्यादा अच्छा है।

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