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जैसलमेर के बासनपी गांव में वीरों की छतरियों का पुनर्निर्माण कर रहे लोगों पर उन्मादी मुसलमानों का हमला

जैसलमेर के बासनपी गांव में वीरों की छतरियों का पुनर्निर्माण कर रहे लोगों पर उन्मादी मुसलमानों ने किया हमला। जांच एजेंसियों का मानना है कि तब्लीगी जमात के लोग इस जिले में घोल रहे हैं कट्टरवाद का जहर

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अरुण कुमार सिंह

गत 10 जुलाई को जैसलमेर जिले का बासनपी गांव देश भर में चर्चा में रहा। वजह- इस दिन वहां ऐतिहासिक स्थलों के पुनर्निर्माण का कार्य कर रहे लोगों और उनकी सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों पर गांव के मुसलमानों ने हमला कर दिया। इसमें अनेक लोग घायल हो गए। घायलों में पुलिसकर्मी भी शामिल थे। अभी भी कुछ घायल अस्पताल में भर्ती हैं। हमलावरों में अधिकतर महिलाएं और बच्चे थे। 12 जुलाई को जैसलमेर के पुलिस अधीक्षक ने पत्रकारों को बताया कि यह उन्माद फैलाने का एक बड़ा षड्यंत्र था। मुख्य षड्यंत्रकारी हासम खान था। पुलिस ने हासम खान सहित 23 लोगों (8 पुरुष और 15 महिलाएं) को गिरफ्तार कर लिया है।

यह हमला उस समय किया गया जब ‘झुंझार धरोहर संरक्षण समिति’ के कार्यकर्ता दो रियासतकालीन वीर योद्धाओं रामचंद्र सोढ़ा एवं हदूद पालीवाल की ध्वस्त की गई छतरियों का पुनर्निर्माण करा रहे थे। बता दें कि लगभग 200 वर्ष से उस गांव में इन दोनों योद्धाओं की छतरियां थीं। 2020 में कुछ असामाजिक तत्वों ने उन छतरियों को ढहा दिया था। इसकी एफ.आई.आर. (04/2020) 27 जनवरी, 2020 को सदर पुलिस थाना, जैसलमेर में दर्ज हुई थी। इसमें सोराब खान, जामीन खान, अता मोहम्मद, रहमान खान और अन्य पर आरोप लगे थे कि इन लोगों ने उन छतरियों को तोड़ा है। जैसलमेर के अनेक लोगों ने बताया कि उस समय हिंदू समाज ने उनका विरोध किया।

सीमा जन कल्याण समिति के वरिष्ठ कार्यकर्ता अमृत दइया ने बताया कि इसके साथ ही ‘झुंझार धरोहर संरक्षण समिति’ ने 30 अगस्त, 2021, 22 नवंबर, 2022, 2023 में 2 जनवरी और 21 जून को पुनर्निर्माण करने का प्रयास किया, लेकिन बात नहीं बनी। समिति का आरोप है कि उस समय पोकरण के विधायक और राजस्थान सरकार में मंत्री रहे सालेह मोहम्मद ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उन छतरियों को नहीं बनने दिया। अब राज्य में सत्ता परिवर्तन हो गया है। इसलिए ‘झुंझार धरोहर संरक्षण समिति’ ने एक बार फिर से अपने उन योद्धाओं को सम्मान देने के लिए उनकी छतरियों के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया। 1 जुलाई को एस.डी.एम. और उप पुलिस अधीक्षक की उपस्थिति में दोनों पक्षों में वार्ता हुई।

इसमें हासम खान और बचल खान ने लिखित में छतरियों के निर्माण की सहमति दी। इसलिए 4 जुलाई को निर्माण कार्य शुरू किया गया, लेकिन मुसलमानों ने इसे रोक दिया। इसके बाद पुलिस की उपस्थिति में कार्य प्रारंभ हुआ। शांति को देखते हुए 7 जुलाई को वहां से पुलिस चली गई। इसके बाद एक बार फिर से काम रुकवा दिया गया। पुलिस ने फिर 9 जुलाई को थोड़ा बल प्रयोग कर काम चालू करवाया। लेकिन 10 जुलाई को महिलाओं और बच्चों को आगे करके पत्थरबाजी की गई। हालांकि हमले के बाद भी षड्यंत्रकारी अपने मंसूबे में सफल नहीं हुए और 13 जुलाई को छतरियों का निर्माण कार्य पूरा हो गया।

‘झुंझार धरोहर संरक्षण समिति’ के सदस्य शरद व्यास ने बताया, “1828 में जैसलमेर और बीकानेर राज्य के मध्य एक युद्ध हुआ था। यह आधुनिक इतिहास में रियासतों के मध्य हुआ अंतिम युद्ध था। इसमें जैसलमेर रियासत की विजय हुई। हालांकि उसके दो प्रमुख योद्धा रामचंद्र सिंह सोढ़ा और हदूद पालीवाल का बलिदान हो गया था। इस युद्ध की छाप आज भी जनमानस में है। कहते हैं कि बीकानेर में आज भी जब दो लोग आपस में लड़ते हैं, और एक थोड़ा कमजोर पड़ता है तो वह दूसरे से कहता है, ‘इता ही शूरवीर हो तो बासनपी में कठे ग्या ता!’ यानी इतने ही बड़े वीर हो तो बासनपी में क्या हो गया था!”

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प्रतिबंधित क्षेत्र में मस्जिद

जैसलमेर से लगभग 200 किलोमीटर दूर और पाकिस्तान की सीमा से करीब आठ किलोमीटर पहले मांधला नामक जगह है। यह क्षेत्र प्रतिबंधित है। सीमा सुरक्षा बल और प्रशासन की अनुमति के बिना वहां कोई जा नहीं सकता। इसके बावजूद वहां एक बड़ी मस्जिद बन गई है। जानकारों ने बताया कि 2008-09 तक उस स्थान पर एक झोंपड़ा था। बाद में उसे तोड़कर वहां एक पक्का कमरा बनाया और उस पर मीनारें लगा दी गईं। इस तरह वहां मस्जिद ‘उग’ आई। सीमा सुरक्षा बल ने इसका विरोध किया, लेकिन स्थानीय मुसलमान नेताओं ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उसे बनवा दिया। अब यहां वर्ष में दो-तीन बार उर्स भरता है, जिसमें हजारों मुसलमान भाग लेते हैं। ये लोग पहले तो बिना अनुमति जाया करते थे, लेकिन परिस्थति बदलने के बाद प्रशासन से अनुमति लेते हैं। हालांकि जितने लोगोंं को अनुमति मिलती है, उससे कई गुना ज्यादा लोग उसमें शामिल होते हैं। सीमा सुरक्षा बल के सूत्रों ने बताया कि सीमा से सटे उस क्षेत्र में इतनी बड़ी संख्या में लोगों का जमा होना सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है।

1847 में जैसलमेर के महारावल गज सिंह ने वीर योद्धा रामचंद्र सिंह सोढ़ा और हदूद पालीवाल की स्मृति में गांव के तालाब के किनारे छतरियां बनवाई थीं। यह तालाब हदूद पालीवाल द्वारा खुदवाया गया था, और छतरियां तालाब की जमीन पर स्थित हैं। यह गांव पालीवालों के उन 84 गांवों में से एक है, जहां से लोग शासन के अत्याचारों के चलते पलायन कर गए थे। वर्षों तक ये गांव वीरान ही रहे। 1985 के आसपास बासनपी गांव में प्रशासन ने मुसलमानों को बसाया। इसके बाद से ही वे लोग वहां के ऐतिहासिक स्थलों को तोड़ रहे हैं। इसी क्रम में उन लोगों ने दोनों वीरों की छतरियों को तोड़ दिया था। यही नहीं, इन लोगों ने जैसलमेर के महारावल की हजारों बीघा जमीन पर कब्जा कर लिया है। पोकरण के पत्रकार जयकृष्ण दवे के अनुसार, पहले इस गांव का नाम बासनपी था। मुसलमानों के यहां बसने के बाद इस गांव का नाम ‘बासनपीर’ कर दिया गया है।

जैसलमेर और उसके आसपास जो घटनाएं हो रही हैं, उनसे शरद व्यास जैसे लोग चितिंत हैं। वे कहते हैं, “जैसलमेर की जनसांख्यिकी तेजी से बदल रही है। ये लोग जमीन पर कब्जा कर रहे हैं। जितनी जल्दी हो, प्रशासन इन पर अंकुश लगाए, नहीं तो यह सीमांत जिला एक दिन ‘कश्मीर’ बन सकता है।”

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जैसलमेर जिले को अशांत करने वाली गतिविधियों को देखते हुए सीमा जन कल्याण समिति, राजस्थान के कार्यकर्ता भी सजग हुए हैं। 12 जुलाई को इस समिति ने जोधपुर के आई.जी. को ज्ञापन सौंपा। इसमें पुरानी कुछ घटनाओं की चर्चा करते हुए उनसे उचित कदम उठाने का आग्रह किया गया है। सीमा जागरण मंच के अखिल भारतीय सह संयोजक नींब सिंह राठौर ने बताया, “कुछ वर्ष पहले तक जैसलमेर बहुत ही सुरक्षित था। सभी वर्गों के लोग मिल-जुलकर रहते थे। कोई विवाद होने पर उसे समाज के स्तर पर ही सुलझा लिया जाता था, लेकिन जब से यहां तब्लीगी जमात के लोग आने लगे हैं समस्या बढ़ रही है।

जमात के प्रभाव में आने वाले लोग कट्टर हो रहे हैं। इस कारण यह सीमांत जिला असुरक्षित होने लगा है। जांच एजेंसियों ने भी कई बार यहां की हरकतों पर सरकार को रपट भेजी है, जिसमें तब्लीगी जमात और बढ़ते कट्टरवाद की बात खुलकर कही गई है। लोग उम्मीद कर रहे हैं कि सरकार एजेंसियों की जांच रपट को गंभीरता से लेगी और जो भी तत्व इस सीमांत जिले को अशांत करने में लगे हैं, उन्हें सजा देगी।”

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