कई वर्ष पहले बांग्लादेश के अर्थशास्त्री अबुल बरकत ने बांग्लादेश के हिंदुओं को लेकर अपनी पुस्तक में कई चौंकाने वाले दावे किये थे। उन्होनें यह दावा किया था कि 1964 से 2013 के बीच, लगभग 1.13 करोड़ बांग्लादेशी हिंदू अल्पसंख्यक उत्पीड़न के कारण देश छोड़कर चले गए थे। उनके अनुसार, 2016 में हर दिन 632 हिंदू देश छोड़ रहे थे। इसके आधार पर, उन्होंने चेतावनी दी कि अगर ऐसा ही चलता रहा, तो 2046 तक बांग्लादेश में कोई हिंदू नहीं बचेगा। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में 60% हिंदुओं की ज़मीन को शत्रु संपत्ति घोषित करके ज़ब्त कर लिया गया था।
शेख हसीना की विदाई के बाद हिंदुओं पर अत्याचार
यह आँकड़े बहुत चर्चित रहे थे और अब तो उनकी यह बात सत्य ही प्रमाणित हो रही है कि बांग्लादेश में हिन्दू बचेंगे ही नहीं। जिस प्रकार से बांग्लादेश में अवामी लीग की सरकार को कथित क्रांति के बाद बदलने के बाद और शेख हसीना के देश छोड़कर जाने के बाद हिंदुओं के साथ हिंसा हो रही है, उन्हें सिस्टम से जिस प्रकार से सुनियोजित तरीके से निकाला जा रहा हैं, वह और भी भयावह है।
हिंदुओं के साथ और अवामी लीग के कार्यकर्ताओं के साथ जो हो रहा है, वह अब और विस्तारित हो गया है।
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प्रोफेसर अबुल बरकत की गिरफ्तारी और उसके मायने
अब बांग्लादेश की सरकार ने बांग्लादेश के अर्थशास्त्री अबुल बरकत को ही भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार कर लिया है। बरकत ढाका यूनिवर्सिटी में पढ़ा चुके हैं और वे पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के कार्यकाल में जनता बैंक में चेयरमैन भी रह चुके हैं। सबसे बढ़कर बरकत हिन्दू अल्पसंख्यक समुदाय के बड़े समर्थक हैं और वे कट्टर इस्लामी विचारधाराओं के विरोधी होने के साथ ही जमात ए इस्लामी का विरोध भी कई अवसरों पर कर चुके हैं। उनकी गिरफ़्तारी को लेकर तमाम प्रश्न उठ रहे हैं।
बांग्लादेश में हिंदुओं की जनसंख्या में गिरावट
सबसे पहला प्रश्न तो यही है कि हिंदुओं की बात करने वाले प्रोफेसर को इस प्रकार कैद करना क्या बढ़ती कट्टरता का प्रमाण है? प्रोफेसर बरकत ने उन कारणों पर प्रकाश डाल था जिनके कारण वर्ष 1947 में 30% हिंदुओं से घटकर 2011 में मात्र 10% हिन्दू ही बांग्लादेश में रह गए थे। उन्होनें यह तक बताया था कि हालांकि पूर्वी पाकिस्तान के समय अत्याचार पाकिस्तानी सेना कर रही थी, मगर बांग्लादेश बनने के बाद भी यह अत्याचार जारी रहे। मंदिर टूटते रहे और धर्म के आधार पर हिंदुओं का उत्पीड़न होता रहा।
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मानवाधिकार संगठनों की चुप्पी
इन सब हकीकतों को बताने वाले प्रोफेसर अब जेल में हैं और बांग्लादेश में जिस कट्टर पार्टी की वे आलोचना करते थे, अर्थात जमात की, वह इन दिनों कितनी प्रभावी है, यह किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। मगर यह और भी अफसोस की बात है कि मानवाधिकार की बात करने वाले कि भी संगठन ने प्रोफेसर बरकत की गिरफ़्तारी को लेकर अंतरिम सरकार पर प्रश्न नहीं उठाए हैं?
शोएब चौधरी का इंटरव्यू और चेतावनी
प्रोफेसर अबुल बरकत की गिरफ़्तारी से पहले बांग्लादेश के एक पत्रकार सलाहउद्दीन शोएब चौधरी का एक इंटरव्यू भी चर्चा में रहा था। उन्होनें भी बांग्लादेश में बढ़ रही कट्टरता पर बात की थी। इंडिया टुडे के साथ बातचीत में शोएब चौधरी ने कहा था कि यूनुस दरअसल बांग्लादेश को एक मजहबी मुल्क बनाना चाहते हैं। उन्होनें जमात-चार मोनाई के नेता और यूनुस के एक प्रमुख सहयोगी मुफ्ती सैयद मुहम्मद फैजुल करीम के सार्वजनिक बयानों पर प्रकाश डाला, जिन्होंने चौधरी के अनुसार “सार्वजनिक रूप से मीडिया से कहा कि वे बांग्लादेश को एक और अफगानिस्तान में बदलने के लिए तैयार हैं।”
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बांग्लादेश में खिलाफत की ओर बढ़ते कदम
शोएब चौधरी ने newsghana.com पर भी एक लेख लिखा था। जिसमें उन्होनें लिखा था कि बांग्लादेश खिलाफत की ओर कदम बढ़ा रहा है और इसमें मोहम्मद यूनुस की बहुत बड़ी भूमिका है। शोएब ने नोबेल पुरस्कार विजेता यूनुस द्वारा सार्वजनिक रूप से हिफाजत ए इस्लाम के एक पोस्टर को साझा करने की घटना पर हैरानी जताई थी और उन्होनें कहा था कि यह बहुत चौंकाने आला है कि वे 2013 में शपला छत्तर में कानून लागू करने के लिए की गई कार्यवाही को “शपला हत्याकांड” कहकर संबोधित किया था।
हिफाज़त-ए-इस्लाम की कट्टर मांगें
दरअसल वर्ष 2013 में हिफाजत ए इस्लाम ने ढाका के केन्द्रीय वाणिज्यिक जिले को घेर कर 13 मांग पूरी करने का आंदोलन किया था और ये तेरह मांगे स्वभाव से बहुत कट्टर थीं। इनमें से मुख्य मांगे थीं-
- बेअदबी को लेकर कानून बनाना जिसमें मृत्युदंड का प्रावधान हो (पाकिस्तान की तरह),
- तथाकथित “नास्तिक ब्लॉगर्स” पर कठोर दंड लगाना,
- पुरुषों और महिलाओं के खुले मेलजोल पर प्रतिबंध लगाना और मोमबत्ती-जागरण सहित “विदेशी संस्कृतियों” को हतोत्साहित करना,
- देश की प्रगतिशील महिला शिक्षा नीति को रद्द करके प्राथमिक से उच्चतर माध्यमिक स्तर तक इस्लामी शिक्षा को अनिवार्य बनाना,
- अहमदिया मुस्लिम समुदाय को गैर-मुस्लिम घोषित करना,
- मूर्तियों के निर्माण पर प्रतिबंध लगाना,
- “इस्लामोफोबिक” समझी जाने वाली किसी भी मीडिया सामग्री पर सेंसरशिप लगाना।
इन मांगों के विरोध में जब सरकार ने कदम उठाए थे तो उसे अब मोहम्मद यूनुस हत्याकांड का नाम दे रहे हैं। जबकि मोहम्मद यूनुस के समर्थन से पहले हिफाजत ए इस्लाम अपनी पुरानी मांगे फिर से दोहरा चुका है।
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बांग्लादेश में जैसी घटनाएं हो रही हैं, उनसे यह तो स्पष्ट होता ही है कि कहीं न कहीं हिफाजत ए इस्लाम की इन मांगों के सामने आत्मसमर्पण कर चुकी है। हिफाजत ने एक वक्तव्य में कहा था कि
“”इस देश में, हम अक्सर देखते हैं कि निजी स्वार्थों को साधने के लिए नास्तिकता, स्वतंत्र विचार और प्रगतिवाद की आड़ में मुसलमानों का अपमान किया जाता है। इसे रोकना सरकार की ज़िम्मेदारी है।”
भारत विरोध और हिंदुओं पर हमले
हालांकि यह भी सत्य है कि इस संगठन को वर्ष 2018 में तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना का भी साथ और समर्थन मिला था। मगर वर 2021 में जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश के दौरे पर थे, तो हिफाजत ने ही विरोध किया था और साथ ही पूरे देश में हिंदुओं को निशाना बनाते हुए हिंसक प्रदर्शन किये थे।
बांग्लादेश की पहचान का संकट
बांग्लादेश में जो कुछ भी हो रहा है, उससे यह प्रमाणित हो रहा है कि बांग्लादेश मजहबी पहचान नहीं बल्कि अपनी पूर्वी पाकिस्तान की पहचान पाने के लिए शीघ्रता से आतुर है और देखना यह होगा कि यह अपनी बांग्ला पहचान को कब तक समाप्त कर उसी पहचान को हासिल कर लेगा, जिससे टूटकर उसने बांग्ला पहचान और अस्मिता के आधार पर नई पहचान पाई थी।
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