भारतीय समाज में जब कोई रचनात्मक अभिव्यक्ति कट्टरता के विरुद्ध खड़ी होती है तो उसका न केवल वैचारिक स्तर पर, बल्कि संस्थागत और कानूनी स्तर पर भी विरोध होता है। ‘उदयपुर फाइल्स’ नामक फिल्म इसी विरोध का ताजा उदाहरण है। यह फिल्म 28 जून 2022 को उदयपुर की सड़कों पर हुई उस भयावह घटना पर आधारित है, जब दो इस्लामी कट्टरपंथियों ने दर्जी कन्हैया लाल की दुकान में घुसकर उसका गला रेत दिया था। हत्या का वीडियो बनाया गया, सोशल मीडिया पर प्रसारित किया गया और इस्लाम के नाम पर इस कृत्य को उचित ठहराया गया।
इस्लामी कट्टरता, अपराध और सच्चाई की पड़ताल
फिल्म में दिखाए गए दृश्य उस कांड का पुनर्निर्माण हैं, जिसने भारत को हिला दिया था। साथ ही दिखाया गया है कि एक पोस्ट के समर्थन को हत्या की वजह कैसे बनाया गया। फिल्म में कट्टरपंथ की कार्यप्रणाली, प्रशासन की प्रतिक्रिया और जनता की भावनाएं भी प्रमुखता से सामने आती हैं। फिल्म निर्माता का दावा है कि यह केवल एक अपराध की पुनर्रचना है, किसी धर्म का चित्रण नहीं।
हिंसा पर बनी फिल्म को रोकने की कोशिश
यह फिल्म केवल एक हत्या की कहानी नहीं है, बल्कि उस मानसिकता की पड़ताल है जो विचारों को हिंसा से दबाना चाहती है। लेकिन विडंबना यह है कि इस फिल्म को रोकने के लिए वही तंत्र सक्रिय हो गया है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का रक्षक कहलाता है। जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें फिल्म को “घृणा फैलाने वाली” और “भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को नुकसान पहुंचाने वाली” बताया गया। इसी संदर्भ में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में भी अपील दाखिल की गई, जिसमें फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने का अनुरोध किया गया।
‘उदयपुर फाइल्स’
यह विरोध केवल एक फिल्म का नहीं है, बल्कि उस सत्य का है जिसे पर्दे पर दिखाया जाना असहज कर देता है। ‘उदयपुर फाइल्स’ में नूपुर शर्मा विवाद, देवबंद की कट्टरता, और कन्हैया लाल की हत्या को दिखाया गया है। विरोध करने वालों का कहना है कि यह फिल्म “मुस्लिम विरोधी” है। लेकिन निर्माता कहते हैं—यह फिल्म “आतंकवाद विरोधी” है। यह अंतर महत्वपूर्ण है। आतंकवाद का विरोध करना किसी धर्म का विरोध नहीं है। बल्कि यह उस विचारधारा का प्रतिकार है जो धर्म के नाम पर हिंसा को जायज ठहराती है।
नूपुर शर्मा का बयान, जिसने इस पूरे घटनाक्रम को जन्म दिया, एक टीवी डिबेट में दिया गया था। उन्होंने पैगंबर मोहम्मद की पत्नी आयशा की उम्र को लेकर एक ऐतिहासिक संदर्भ प्रस्तुत किया। यह बयान इस्लामी इतिहास के दस्तावेज़ों पर आधारित था, लेकिन कट्टरपंथियों ने इसे “ईशनिंदा” बताकर वैश्विक स्तर पर भारत को घेरने की कोशिश की। भारत सरकार को राजनयिक सफाई देनी पड़ी, और नूपुर शर्मा को पार्टी से निलंबित किया गया। लेकिन सवाल यह है- क्या ऐतिहासिक तथ्यों पर चर्चा करना अपराध है? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल एकतरफा होनी चाहिए?
भारतीय सिनेमा में साम्प्रदायिक हिंसा पर आधारित फिल्मों का इतिहास पुराना है। ‘गर्म हवा’ (1973) ने विभाजन के बाद मुस्लिम समाज की पीड़ा को दिखाया, ‘परज़ानिया’ (2005) ने गुजरात दंगों की भयावहता को उजागर किया, और ‘फाइनल सॉल्यूशन’ जैसे डॉक्यूमेंट्री ने सांप्रदायिक राजनीति पर सवाल उठाए।
‘उदयपुर फाइल्स’ इसी परंपरा में एक नया अध्याय जोड़ती है—जहां सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक दस्तावेज बन जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शार्ली हेब्दो जैसे उदाहरणों में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक असहिष्णुता के बीच टकराव देखा गया।
जब एक पोस्ट बना जानलेवा
कन्हैया लाल ने नूपुर शर्मा के समर्थन में एक पोस्ट को रीपोस्ट किया। यह पोस्ट उनके बेटे द्वारा अनजाने में साझा की गई थी। लेकिन इस रीपोस्ट को “ईशनिंदा” मानते हुए दो इस्लामिक कट्टरपंथियों—गौस मोहम्मद और रियाज़ अत्तारी—ने उनकी दुकान में घुसकर गला रेत दिया। हत्या का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट किया गया, जिसमें उन्होंने इस्लाम के नाम पर हत्या को जायज ठहराया और प्रधानमंत्री मोदी को भी धमकी दी। यह घटना केवल एक हत्या नहीं थी—यह भारत की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, नागरिक सुरक्षा और सांस्कृतिक अस्मिता पर हमला था।
फिल्म ‘उदयपुर फाइल्स’ इसी घटना को सिनेमाई रूप में प्रस्तुत करती है। इसमें अभिनेता विजय राज ने कन्हैया लाल की भूमिका निभाई है। फिल्म के निर्देशक भरत श्रीनेत और निर्माता अमित जानी हैं। फिल्म में रजनीश दुग्गल, प्रीति झंगियानी, कमलेश सावंत जैसे कलाकारों ने भी अहम भूमिकाएँ निभाई हैं। सेंसर बोर्ड ने 150 से अधिक कट्स के बाद फिल्म को प्रमाणित किया, जिससे स्पष्ट है कि संवेदनशीलता का ध्यान रखा गया है। फिर भी दिल्ली हाईकोर्ट ने फिल्म की रिलीज़ पर अस्थायी रोक लगा दी है।
उदयपुर फाइल्स’ पर विवाद
फिल्म के ट्रेलर के रिलीज होते ही जमीयत उलेमा-ए-हिंद, समाजवादी पार्टी और अन्य संगठनों ने इसे सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने वाला बताया। जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी की याचिका में कहा गया है कि फिल्म से “सांप्रदायिक तनाव” बढ़ सकता है, “भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि” को नुकसान हो सकता है, और “गंगा-जमुनी तहज़ीब” को खतरा है। लेकिन यह तर्क तब खोखला लगता है जब फिल्म सत्य घटना पर आधारित है, सेंसर बोर्ड ने आपत्तिजनक दृश्य हटाए हैं। विरोध का असली कारण यह है कि फिल्म उस कट्टरता को उजागर करती है जिसे मौलाना लोग छुपाना चाहते हैं।
याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि फिल्म मुस्लिम समुदाय को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत करती है। वहीं इसके बरक्स निर्माता पक्ष का कहना है कि यह एक सच्ची घटना पर आधारित है और इसका उद्देश्य समाज में जागरूकता लाना है, न कि किसी समुदाय को बदनाम करना।
‘उदयपुर फाइल्स’ पर रोक की कोशिश
इस्लामिक जिहादी मानसिकता का उद्देश्य है—ग़ैर-मुस्लिमों को दबाना, डराना और खत्म करना। यह कुरान की व्याख्या को हथियार बनाकर आतंक को वैध ठहराती है। चाहे वह तालिबान हो, ISIS हो या PFI—इनका लक्ष्य है भारत जैसे बहुलतावादी राष्ट्र को धार्मिक कट्टरता में झोंक देना। कन्हैया लाल की हत्या, कमलेश तिवारी की हत्या, और अब ‘उदयपुर फाइल्स’ पर रोक की कोशिश—यह सब उसी मानसिकता की अभिव्यक्ति है जो बहस नहीं चाहती, केवल भय चाहती है।
न्याय की प्रतीक्षा में नंगे पैर चल रहे कन्हैया लाल के बेटे यश साहू
यह भी विडंबना है कि कन्हैया लाल के बेटे यश साहू तीन साल से न्याय की प्रतीक्षा में नंगे पैर चल रहे हैं। उन्होंने कहा है कि जब तक उनके पिता को न्याय नहीं मिलेगा, वे जूते नहीं पहनेंगे। वहीं, फिल्म की रिलीज पर कुछ ही दिनों में दिल्ली हाईकोर्ट ने अंतरिम रोक लगा दी और सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की वैधानिक समिति के निर्णय तक प्रतीक्षा करने का निर्देश दे दिया। यह न्याय नहीं, बल्कि पीड़ित की आवाज को दबाने का प्रयास है।
‘उदयपुर फाइल्स’ पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट में वुधवार को सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति सूर्यकांत की फिल्म को लेकर टिप्पणी एक पक्षीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। उनका यह कहना कि “यदि यह फिल्म रिलीज हुई तो बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो सकती है”। उनके इस वक्तव्य ने “न्यायिक दृष्टिकोण” से देखा जाए तो “संवैधानिक विवेक” को असहज स्थिति में खड़ा कर दिया है। यही कारण है मौलाना अरशद मदनी ने सुप्रीम कोर्ट की इस अंतरिम टिप्पणी को निर्णायक मानते हुए अपनी कानूनी जीत के रूप में प्रचारित किया और न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता को सरल निष्कर्षों में बदलने का कुत्सित प्रयास किया, जो न तो कानूनी रूप से सटीक है और न ही निष्पक्ष। जस्टिस सूर्यकांत वही न्यायाधीश हैं जिन्होंने नूपुर शर्मा मामले में कहा था कि “उनकी जिह्वा के कारण पूरा राष्ट्र जल रहा है।” यह दोहरा दृष्टिकोण ‘न्यायिक निष्पक्षता’ पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
क्या कहता है संविधान
जब एक फिल्म को सेंसर बोर्ड से प्रमाणन मिल चुका है, और उसमें विवादित दृश्य हटाए जा चुके हैं, तो फिर उसकी रिलीज को रोकना किस संवैधानिक आधार पर उचित है? क्या यह वैचारिक असहजता से प्रेरित निर्णय है? भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) नागरिकों को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। अनुच्छेद 19(2) में सीमित प्रतिबंध हैं—जैसे सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, या राज्य की सुरक्षा। लेकिन ‘उदयपुर फाइल्स’ के रिलीज पर रोक के मामले में कोई ठोस आधार नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि फिल्म इन प्रतिबंधों का उल्लंघन करती है। सेंसर बोर्ड ने फिल्म को प्रमाणित किया है और निर्माता पक्ष ने सभी आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए आवश्यक कट लगाए हैं। फिर भी, न्यायपालिका का रुख अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को वैचारिक असहजता के आधार पर सीमित करने की ओर संकेत करता है।
सिनेमा केवल कल्पना नहीं
‘उदयपुर फाइल्स’ केवल एक फिल्म नहीं है, यह एक दर्पण है—जो समाज को अपने घाव दिखाने का साहस करता है। यदि हम इन घावों से मुंह मोड़ते हैं, तो क्या वे स्वतः भर जाएंगे? या वे भीतर ही भीतर सड़ते रहेंगे? सिनेमा केवल कल्पना नहीं, विचार है। और विचार जब असहज होते हैं, तो समाज को सोचने पर मजबूर करते हैं। समाधान स्पष्ट है- कट्टरपंथ के विरुद्ध कठोर कानून लागू हों। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को हिंसा से डराकर नहीं दबाया जा सकता। सामाजिक संवाद को प्रोत्साहित किया जाए। सिनेमा को सेंसर नहीं, समझा जाए।
‘उदयपुर फाइल्स’ एक फिल्म नहीं, है चेतावनी
‘उदयपुर फाइल्स’ एक फिल्म नहीं, चेतावनी है। यह चेतावनी है कि अगर हम विचारों की रक्षा नहीं करेंगे, तो विचारों की हत्या होती रहेगी। यह चेतावनी है कि अगर हम कट्टरपंथ के विरुद्ध संगठित नहीं होंगे, तो हमारी संस्कृति, हमारी स्वतंत्रता और हमारा भविष्य खतरे में रहेगा। इस फिल्म को रोकना न केवल पीड़ित के साथ अन्याय है, बल्कि समाज के उस हिस्से को भी चुप कराना है जो कट्टरता के खिलाफ खड़ा होना चाहता है। यह फिल्म एक दस्तावेज़ है—सत्य का, साहस का और न्याय की मांग का। इसे देखना, समझना और उस पर विचार करना हमारी सामाजिक ज़िम्मेदारी है। यदि हम सत्य इस दस्तावेज को असहज कहकर नकारने लगें, तो लोकतंत्र केवल औपचारिक ढांचा बनकर रह जाएगा। फिल्में बंद करने से क्रूरता नहीं रुकती। वह केवल हमारी आंखों से ओझल होती है। और जब आंख और कान बंद कर दिए जाएं, तो दृश्य दिखाई नहीं देते और शोर नहीं सुनाई देता लेकिन रक्त बहता रहता है।
सामाजिक चेतना का उद्घोष है सिनेमा
जब कट्टरपंथ धर्म के नाम पर विचारों की हत्या करने लगे और समाज पीड़ित की आवाज़ को दबाने लगे, तब सिनेमा का दायित्व केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का उद्घोष बन जाता है। ‘उदयपुर फाइल्स’ ऐसी ही एक फिल्म है जो कन्हैया लाल की निर्मम हत्या की सच्चाई को परदे पर लाकर उस मानसिकता को चुनौती देती है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ईशनिंदा का आरोप लगाकर कुचलना चाहती है। विरोध की जिस श्रृंखला में मौलाना अरशद मदनी जैसे प्रभावशाली नाम अदालत और मंत्रालय तक पहुंच चुके हैं, वह दरअसल उस भय का प्रतीक है जो सच सामने आने से उपजता है। यह फिल्म एक दस्तावेज है- सत्य का, साहस का और संघर्ष का- जिसे रोकने की कोशिशें हमें उस असहिष्णुता की याद दिलाती हैं, जिसके विरुद्ध भारतीय सभ्यता सदियों से संघर्ष करती आई है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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