केरल में 10वीं कक्षा की सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में एक नया अध्याय जोड़ा गया है। पाठ्यक्रम में यह बदलाव राज्यपाल के साथ राज्य सरकार के बीच टकराव और भारतमाता विवाद की पृष्ठभूमि में आया है, जिससे यह न केवल शैक्षिक बल्कि राजनीतिक बहस का भी विषय बन गया है।
सामाजिक विज्ञान की इस पाठ्यपुस्तक के दूसरे खंड में ‘लोकतंत्र : एक भारतीय अनुभव’ शीर्षक के अंतर्गत नए अध्याय में राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों और कर्तव्यों के बारे में बताया गया है। साथ ही, इस अध्याय में भारतीय लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियां, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चुनावी बॉण्ड को समाप्त करने वाले फैसले और ‘रिसॉर्ट राजनीति’ ‘Resort politics’ जैसे विषयों को भी शामिल किया गया है। हालांकि अन्य कक्षाओं, जैसे-दूसरी, चौथी, छठी, आठवीं और 10वीं की पाठ्यपुस्तकों में भी नई विषय-वस्तु शामिल करने की मंजूरी दी गई है, लेकिन सबसे अधिक विवाद 10वीं कक्षा की पुस्तकों में बदलाव को लेकर है।
दरअसल, पिछले दिनों राज्य पाठ्यचर्या संचालन समिति की बैठक हुई और निहित स्वार्थ वाले लोगों ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए 10वीं कक्षा की सामाजिक अध्ययन पाठ्य पुस्तक में विवादास्पद परिवर्तन करके राजनीतिक एजेंडा चलाने का प्रयास किया। राष्ट्रीय शिक्षक संघ (एनटीयू) के राज्य महासचिव टी. अनूपकुमार ने इसका विरोध किया। उनके अनुसार, पाठ्यपुस्तक में कुछ ऐसे बदलाव किए गए हैं, जिनसे विद्यार्थियों में कुछ राजनीतिक दलों के प्रति नफरत पैदा होने की प्रबल संभावना है। उदाहरण के लिए चुनावी बॉण्ड। राज्य के शिक्षा मंत्री वी. शिवनकुट्टी ने पिछले महीने कहा था कि राज्यपाल के अधिकारों के बारे में नए अध्याय पाठ्यक्रम में शामिल किए जाएंगे। लेकिन इसमें ‘रिसॉर्ट पॉलिटिक्स’ Resort politics को भी शामिल कर लिया गया, जिसका केरल की राजनीति में कोई महत्व नहीं है।
10वीं की पाठ्यपुस्तक में कुछ ऐसे बदलाव किए गए हैं, जिनसे विद्यार्थियों में कुछ राजनीतिक दलों के प्रति नफरत पैदा होने की प्रबल संभावना है। उदाहरण के लिए चुनावी बॉण्ड। इसमें ‘रिसॉर्ट पॉलिटिक्स’ को भी शामिल कर लिया गया, जिसका केरल की राजनीति में कोई महत्व नहीं है
कहा जा रहा है कि शिवनकुट्टी के निर्देश पर इन विषयों को पाठ्यक्रम समिति में चर्चा किए बिना ही पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। एनटीयू के महासचिव के बताया कि उनका संगठन राज्यपाल, जो एक संवैधानिक पद है, पर दिए गए अध्यायों का स्वागत करता है। यदि सरकार विद्यार्थियों को आपातकाल की 50वीं बरसी के दौरान संविधान का अध्ययन करने का अवसर देती है, जो लोकतंत्र के सबसे काले दिनों की याद दिलाता है, तो इसका स्वागत किया जाएगा। लेकिन सत्तारूढ़ माकपा अपने राजनीतिक उद्देश्यों के चलते यदि पाठ्यक्रम में अवांछित और अप्रासंगिक अध्याय जोड़ रही है, तो हम उससे सहमत नहीं हैं।
लोकतंत्र विरोधी प्रवृत्तियों का कानूनी और लोकतांत्रिक तरीके से विरोध किया जाएगा, क्योंकि सस्ते राजनीतिक मुद्दों को ‘महान भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली, संपूर्ण विश्व के लिए एक आदेश’ शीर्षक के अंतर्गत शामिल किया गया है। पाठ्यपुस्तकों में बदलावों पर चर्चा पाठ्यक्रम समिति द्वारा की जानी चाहिए, न कि संचालन समिति द्वारा।
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बता दें कि हाल के महीनों में केरल के राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर और राज्य सरकार के बीच कई मुद्दों पर टकराव हुआ है, खासकर राजभवन में भारत माता की तस्वीर लगाने को लेकर। यह विवाद राजभवन में 5 जून को पर्यावरण दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में भारतमाता का चित्र लगाने पर शुरू हुआ था। तस्वीर में भारतमाता को भगवा वस्त्र और ध्वज के साथ दर्शाया गया था। इस पर सत्तारूढ़ वामपंथी गठबंधन (एलडीएफ) खासकर, माकपा और उसके सहयोगियों ने कड़ा विरोध जताया। राज्य के कृषि मंत्री और सीपीआई नेता पी. प्रसाद ने राज्यपाल से तस्वीर हटाने को कहा और कार्यक्रम का बहिष्कार किया। माकपा के राज्य सचिव एम.वी. गोविंदन ने तो यहां तक कहा कि ‘भारतमाता’ ‘Bharat Mata’ की अवधारणा संविधान में नहीं है। वामपंथी ट्रेड यूनियन ने राजभवन के बाहर प्रदर्शन किया और आरोप लगाया कि राज्यपाल संविधान का उल्लंघन कर रहे हैं। लेकिन राज्यपाल ने कहा कि भारत माता की छवि राष्ट्र का प्रतीक है और इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता।
इसके बाद 19 जून, 2025 को लोक शिक्षा विभाग और राजभवन द्वारा एक संयुक्त कार्यक्रम आयोजित किया गया तो मंत्री शिवनकुट्टी ने मंच से सार्वजनिक रूप से इस तस्वीर के प्रदर्शन का विरोध किया और कहा कि यह एक राजनीतिक संगठन (आरएसएस) की छवि है, जो सरकारी कार्यक्रम में नहीं होनी चाहिए। इसके बाद वे राज्यपाल से बात किए बिना कार्यक्रम छोड़कर चले गए। राजभवन ने इसे ‘प्रोटोकॉल का गंभीर उल्लंघन और राज्यपाल के संवैधानिक पद का घोर अपमान’ बताया है। राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर भी आपत्ति जताई और कहा कि मंत्री का यह व्यवहार संवैधानिक प्रमुख का अपमान है।
यह विवाद तब और बढ़ गया, जब 25 जून को आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर केरल विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल में एक कार्यक्रम आयोजित किया जाना था। विश्वविद्यालय रजिस्ट्रार ने घोषणा की कि कार्यक्रम रद्द कर दिया गया है। लेकिन राज्यपाल ने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ही कार्यक्रम को संबोधित किया। कुलाधिपति होने के नाते राज्यपाल ने कार्यक्रम रद्द करने पर विश्वविद्यालय के कुलपति से स्पष्टीकरण मांगा। इस पर कुलपति ने विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार डॉ. के.एस. अनिल कुमार से रिपोर्ट मांगी और उनकी भूमिका को संदिग्ध पाते हुए उन्हें निलंबित कर दिया। इसलिए पाठ्यक्रम में किए गए बदलावों को विवाद की अगली कड़ी के रूप में देखा जा रहा है। ये बदलाव आने वाली पीढ़ियों को गुमराह करने का जरिया बनेंगे।
भाजपा और कुछ शिक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यह बदलाव सरकार और राज्यपाल के बीच के विवाद को छात्रों तक पहुंचाने का प्रयास है, ताकि बच्चों के मन में एक खास राजनीतिक नजरिया बैठाया जा सके। कुछ लोग इसे शिक्षा के राजनीतिकरण की ओर एक और कदम मानते हैं, जहां पाठ्यपुस्तकों का उपयोग विचारधारा थोपने के लिए किया जा रहा है। वहीं, सरकार का तर्क है कि बच्चों को भारतीय शासन प्रणाली और लोकतंत्र की जटिलताओं को समझाने के लिए यह बदलाव जरूरी है। लेकिन आलोचक कहते हैं कि लोकतंत्र की शिक्षा के नाम पर वर्तमान राजनीतिक विवादों को पाठ्यक्रम में शामिल करना बच्चों की निष्पक्ष सोच को प्रभावित कर सकता है।
पाठ्यक्रम समिति का गठन विशेषज्ञों, शिक्षाविदों और विभिन्न हितधारकों के विचार-विमर्श के लिए किया जाता है, ताकि कोई भी बदलाव शैक्षिक दृष्टि से संतुलित और निष्पक्ष हो। अनुशासन समिति का मुख्य कार्य प्रशासनिक और अनुशासन संबंधी मामलों तक सीमित होता है। इस प्रक्रिया की अनदेखी को शिक्षा के राजनीतिकरण की दिशा में एक खतरनाक कदम माना जा रहा है। लोकतंत्र, संवैधानिक संकट, चुनावी बॉण्ड और ‘रिसॉर्ट राजनीति’ जैसे विषयों का चयन और प्रस्तुति विवाद का विषय हैं, क्योंकि ये हालिया राजनीतिक घटनाओं से जुड़े हैं।
भाजपा और कई शिक्षाविदों का आरोप है कि सरकार अपने और राज्यपाल के बीच विवाद को वैध दर्शाने और छात्रों के मन में एक विशेष राजनीतिक दृष्टिकोण पैदा करने के लिए यह बदलाव कर रही है। शिक्षा का राजनीतिकरण न केवल छात्रों की सोच को प्रभावित करता है, बल्कि लोकतांत्रिक समाज की बुनियाद को भी कमजोर करता है। इसलिए पाठ्यपुस्तकों में बदलाव हमेशा पारदर्शी प्रक्रिया से ही किया जाना चाहिए, ताकि शिक्षा का उद्देश्य और उसकी निष्पक्षता बनी रहे।
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