भारतीय लोकतंत्र में नागरिकता की पहचान सदैव एक केंद्रीय प्रश्न रही है। आधार कार्ड की शुरुआत इसी संदर्भ में एक क्रांतिकारी कदम के रूप में हुई थी। एक ऐसी विशिष्ट पहचान प्रणाली के रूप में, जो प्रत्येक नागरिक को सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने तथा प्रशासनिक दक्षता बढ़ाने के लिए डिजाइन की गई थी। किंतु, हालिया आंकड़ों और घटनाओं ने आधार की विश्वसनीयता, सुरक्षा और लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर इसके प्रभाव को लेकर गंभीर प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं।
बिहार के सीमावर्ती जिलों (किशनगंज, कटिहार, अररिया और पूर्णिया) में आधार सैचुरेशन दर 120 प्रतिशत से अधिक दर्ज की गई है। सैचुरेशन का अर्थ है किसी क्षेत्र की कुल जनसंख्या की तुलना में जारी किए गए आधार कार्डों की संख्या। जब 100 व्यक्तियों पर 126 आधार कार्ड जारी हों, तो यह न केवल तकनीकी गड़बड़ी की संभावना को खारिज करता है, बल्कि सुनियोजित फर्जीवाड़े, अवैध घुसपैठ और पहचान की नकल की ओर भी संकेत करता है। प्रश्न उठता है, ये अतिरिक्त आधार कार्ड किनके हैं? क्या ये अवैध प्रवासियों को भारत की नागरिकता और लोकतांत्रिक अधिकार दिलाने का माध्यम बन रहे हैं?
नेपाल और बांग्लादेश की सीमाओं के निकट स्थित इन जिलों की भौगोलिक स्थिति इन्हें ऐतिहासिक रूप से घुसपैठ के लिए संवेदनशील बनाती है। यदि अवैध प्रवासी स्थानीय दस्तावेजों और आधार कार्ड के माध्यम से अपनी पहचान को वैधता दिला लें, तो यह न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती है, बल्कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की शुचिता के लिए भी घातक है। इस प्रक्रिया से वे केवल भौगोलिक सीमाओं का उल्लंघन नहीं करते, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद ‘नागरिकता और मताधिकार’ को भी कमजोर करते हैं।
आधार कार्ड को नागरिकता का प्रमाण मानने का भ्रम लगातार फैलाया जा रहा है, जबकि यूआईडीएआई बार-बार स्पष्ट कर चुका है कि आधार केवल पहचान का प्रमाण है, नागरिकता का नहीं। इसके बावजूद, नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध में आधार को नागरिकता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह भ्रम राजनीतिक लाभ के लिए जानबूझकर पोषित किया जाता है, जिससे वोटबैंक की राजनीति को बल मिलता है। यदि फर्जी आधार कार्डों के आधार पर मतदाता सूची में नाम जुड़ जाएं, तो चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता और लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व की वैधता ही संदिग्ध हो जाती है।
आधार की खामियों का दायरा केवल सरकारी योजनाओं के दुरुपयोग तक सीमित नहीं है। जब मतदाता सूची में फर्जी नाम शामिल हो जाते हैं, तो लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा ‘एक नागरिक, एक वोट’ ही खतरे में पड़ जाती है। यदि मताधिकार का दुरुपयोग हो, तो जन-प्रतिनिधित्व की वैधता और शासन की नैतिकता, दोनों पर आंच आती है। यह संकट केवल बिहार या सीमावर्ती जिलों तक सीमित नहीं है, बल्कि पश्चिम बंगाल के मालदा, मुर्शिदाबाद जैसे जिलों में भी यही समस्या गहराती दिखती है।
यह संकट अब केवल तकनीकी या प्रशासनिक नहीं, बल्कि मूलतः लोकतांत्रिक है। आवश्यकता है कि आधार प्रणाली का स्वतंत्र और पारदर्शी ऑडिट कराया जाए, विशेषकर उन जिलों में जहां सैचुरेशन असामान्य रूप से अधिक है। बायोमेट्रिक सत्यापन को अनिवार्य बनाया जाए और आधार को मतदाता पहचान पत्र से जोड़ने की प्रक्रिया को पारदर्शी तथा जवाबदेह बनाया जाए। इससे न केवल फर्जी पहचान की समस्या पर नियंत्रण होगा, बल्कि लोकतंत्र में नागरिकता और मताधिकार की पवित्रता भी बनी रहेगी।
तकनीक के युग में पहचान की सुरक्षा और विश्वसनीयता लोकतंत्र की नींव है। यदि पहचान ही संदिग्ध हो जाए, तो लोकतांत्रिक संस्थाओं की वैधता और भविष्य दोनों पर संकट आ सकता है। अतः आज यह आवश्यक है कि हम अपने पहचान तंत्र की विश्वसनीयता की पुनर्समीक्षा करें और यह सुनिश्चित करें कि लोकतंत्र की जड़ें फर्जी आंकड़ों और पहचान की नकल में खो न जाएं। यह केवल एक तकनीकी या प्रशासनिक प्रश्न नहीं, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक भविष्य का प्रश्न है- एक ऐसा प्रश्न, जिसका उत्तर हमें भरोसे और पारदर्शिता के साथ तलाशना ही होगा।
Leave a Comment