आपातकाल@50 : थाने बन गए थे यातना शिविर
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आपातकाल@50-हिटलर-गांधी : थाने बन गए थे यातना शिविर

आपातकाल में पुलिस थानों को यातना शिविर बना दिया गया था। बिना वारंट किसी को भी गिरफ्तार कर यातनाएं दी जाती थीं। पीड़ित किसी न्यायालय में नहीं जा सकता था। यह सब श्रीमती गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए किया था

by रामबहादुर राय
Jun 28, 2025, 02:12 pm IST
in भारत, विश्लेषण, संघ
आपातकाल के  दाैरान इंदिरा गांधी के साथ संजय गांधी। संजय ही आपातकाल को नियंत्रित किया करते थे।

आपातकाल के दाैरान इंदिरा गांधी के साथ संजय गांधी। संजय ही आपातकाल को नियंत्रित किया करते थे।

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आपातकाल में 25 जून, 1975 की रात से ही गिरफ्तारियां शुरू हो गई थीं। बड़े नेताओं की गिरफ्तारी उसी रात हो गई थी, लेकिन आपातकाल की आधिकारिक घोषणा 26 जून की सुबह हुई। इसका एक तकनीकी कारण था। 25 जून की रात को इसे घोषित नहीं किया जा सका, क्योंकि संवैधानिक दृष्टि से इसकी विधिवत घोषणा के लिए राष्ट्रपति की अनुमति और मंत्रिमंडल की स्वीकृति आवश्यक थी। राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद की अनुमति 25 जून की रात को जबरन ले ली गई थी। प्रधानमंत्री निवास, जो अब इंदिरा गांधी मेमोरियल म्यूजियम है, से यह काम हुआ। फिर 1, अकबर रोड स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई, जहां इंदिरा गांधी ने मंत्रियों को सूचित किया, ‘’मैं आपातकाल लगाने जा रही हूं।’’

सरकार ने कहा कि जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने पुलिस को भड़काया, इसलिए आपातकाल लगाया गया। लेकिन सचाई यह नहीं थी। 12 जून, 1975 को इंदिरा गांधी के लिए तीन बड़ी घटनाएं हुईं-एक, सुबह 6 बजे डी.पी. धर का निधन हुआ। दूसरा, 10 बजे इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनका चुनाव अवैध घोषित कर दिया। तीसरा, शाम को गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई।

अब जब न्यायालय ने उनकी लोकसभा सदस्यता अमान्य कर दी, तो उनके सामने दो रास्ते थे—या तो सर्वोच्च न्यायालय जाएं और राहत लें, या लोकतांत्रिक मर्यादा निभाते हुए कांग्रेस संसदीय दल को इस्तीफा सौंपें। लेकिन उन्होंने तीसरा रास्ता चुना-तानाशाही का। सिद्धार्थ शंकर राय ने उन्हें सुझाव दिया कि आपातकाल की घोषणा पर राष्ट्रपति से रात में हस्ताक्षर करवा लें, अगली सुबह मंत्रिमंडल से अनुमोदन लेकर इसे घोषित कर दिया जाए। इंदिरा गांधी ने उसी फार्मूले पर काम किया। उन्होंने प्रधानमंत्री पद पर बने रहने के लिए इस देश पर आपातकाल थोपा।

जेपी और विपक्षी नेता कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि इंदिरा गांधी लोकतंत्र को कुचलने की हद तक जा सकती हैं। जब आजकल लोग छोटी-छोटी बातों पर कहते हैं कि ‘आपातकाल जैसे हालात बन रहे हैं’, तो वे यह नहीं जानते कि असली आपातकाल क्या होता है।
आपातकाल में हर नागरिक-नेता हो या विद्यार्थी, पत्रकार हो या अफसर—सदमे में चला गया। कोई विद्रोह नहीं हुआ था, कोई हिंसा नहीं थी, लेकिन रातों-रात अखबारों के टेलीफ़ोन कनेक्शन काट दिए गए, बिजली काट दी गई, प्रिंटिंग रोक दी गई। ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के संपादक बी.जी. वर्गीज जब रात 2:30 बजे उठे तो उन्हें पता चला कि आपातकाल लग गया है और बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया है। उन्होंने आपातकाल का विशेष अंक छापने की कोशिश की, लेकिन मशीन बंद कर दी गई। ‘मदरलैंड’ अखबार के कुछ पन्ने छपे भी, लेकिन बाद में उसके प्रेस को सील कर दिया गया। उसके संपादक के.आर. मलकानी को गिरफ्तार कर लिया गया। जेपी को गांधी शांति प्रतिष्ठान से रात 12:30 बजे गिरफ्तार किया गया। जब वहां के सचिव राधाकृष्णन ने कहा कि जेपी को जगाने दीजिए, वो अस्वस्थ हैं, तो पुलिस ने कहा, ‘नहीं, हमें अभी अरेस्ट करना है।’

जेपी को चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल में ‘आइसोलेशन वॉर्ड’ में रखा गया। वहां उनके साथ न सेवक था, न परिवार को खबर थी। जेपी सदमे में चले गए। उन्होंने अपनी पहली जेल डायरी 23 जुलाई, 1975 को लिखी। इसमें उन्होंने लिखा, ‘‘मेरी दुनिया उजड़ गई है। मुझे इंदिरा गांधी से यह अपेक्षा नहीं थी।’’

अगर डीसीपी देवसायम वहां न होते तो जेपी को शायद जान से मारने की साजिश भी सफल हो सकती थी। टी.एन. चतुर्वेदी उस समय गृह सचिव थे। उन्होंने देवसायम की सूचना पर जेपी को चंडीगढ़ से मुंबई के जसलोक अस्पताल हेलिकॉप्टर से भिजवाया, जिससे उनकी जान बची। लेकिन तब तक जेपी की किडनी खराब हो चुकी थी। वे अगले 4 साल तक डायलिसिस पर रहे और 8 अक्तूबर, 1979 को उनका निधन हुआ।

जेपी अकेले नहीं थे। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मधु दंडवते, श्यामनंदन मिश्र सहित सैकड़ों नेता बिना आरोप और बिना वारंट के गिरफ्तार कर लिए गए। उस समय पुलिस को यह निर्देश था कि संजय गांधी के निर्देशों पर सब कुछ करना है। थाने यातना शिविरों में बदल चुके थे। मीसा (MISA – Maintenance of Internal Security Act) एक ऐसा हथियार बना, जिसे आपातकाल में संशोधित कर यह सुनिश्चित कर दिया गया कि बंदियों को अदालत में चुनौती देने का अधिकार न रहे। 42वां संविधान संशोधन, जिसमें कहा गया कि प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, इस काल की एक और विधायी हिंसा थी। आपातकाल के दौरान संविधान की मूल प्रस्तावना में ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेकुलर’ शब्द जोड़े गए। संजय गांधी, जिन्हें न कोई संवैधानिक पद प्राप्त था, न कोई वैधानिक अधिकार, वे पूरे शासनतंत्र के नियंत्रक बन बैठे थे।

उनकी स्वेच्छाचारिता इतनी बढ़ गई थी कि उन्होंने अपनी ही मां इंदिरा गांधी को थप्पड़ तक मार दिया था, यह बात अनेक विश्वसनीय स्रोतों में दर्ज है। फिर भी इंदिरा गांधी ने उन्हें दंडित नहीं किया, बल्कि उन्हें संरक्षण दिया। कई मुख्यमंत्री तो यह तक कहते पाए गए— ‘हमने बछड़ा पाल लिया है, गाय पीछे-पीछे आ जाएगी।’

बछड़ा और गाय उस समय कांग्रेस का चुनाव-चिह्न था। भारत, जिसे महात्मा गांधी और स्वतंत्रता सेनानियों ने लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में कल्पना की थी, इंदिरा गांधी ने उसमें तानाशाही का काला अध्याय जोड़ा। आपातकाल भारत के इतिहास की चेतावनी है कि जब सत्ता केवल व्यक्ति की इच्छा पर आधारित हो जाए, तो संविधान, संस्थाएं और स्वतंत्रता तीनों खतरे में पड़ जाते हैं।
(तृप्ति श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित)

Topics: लोकतांत्रिक गणराज्यपाञ्चजन्य विशेषराष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल लगाने के आदेश पर हस्ताक्षरहिटलर-गांधीइंदिरा गांधीआपातकाललोकतंत्र‘मदरलैंड’जयप्रकाश नारायण
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