आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को पुरी में निकलने वाली जगन्नाथ स्वामी की रथयात्रा दक्षिण भारत ही नहीं वरन देशभर के सबसे बड़े धार्मिक उत्सवों में से एक है। इस रथयात्रा उत्सव में आस्था का जो अद्भुत वैभव देखने को मिलता है, उसका कोई सानी नहीं है। ऐसा विराट लोकोत्सव दुनिया में कहीं और आयोजित नहीं होता। इसीलिए यह रथयात्रा सदियों से न केवल भारत अपितु विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु पूरी आस्था से इस रथयात्रा में शामिल होते हैं। यह रथयात्रा उत्सव देश-दुनिया के सनातनी श्रद्धालुओं का ऐसा अनूठा सामुदायिक पर्व है, जिसमें जगतपालक जगन्नाथ महाप्रभु अपने भाई-बहन के साथ स्वयं मंदिर से बाहर निकलकर भक्तों से मिलने उनके बीच आते हैं और अपने आशीर्वाद से सबको कृतार्थ कर यह संदेश देते हैं कि ईश्वर की नजर में सभी समान हैं; न कोई छोटा है न बड़ा, न कोई अमीर है और न गरीब। स्कंद पुराण में जगन्नाथपुरी को नीलांचल धाम, श्री क्षेत्र, पुरुषोत्तम क्षेत्र व शंख क्षेत्र के नाम से भी संबोधित इस दिव्य तीर्थ नगरी के स्वामी को परात्पर परम ब्रह्म कहा गया है।
जगन्नाथ पुरी को भूलोक के ‘बैकुंठ’ की संज्ञा देते हुए शास्त्रज्ञ कहते हैं कि जो व्यक्ति इस रथयात्रा में शामिल होकर जगन्नाथ जी का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा मंदिर तक जाता है और जिसे इन रथों को खींचने का सौभाग्य मिलता है; वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है।
रोचक पौराणिक कथानक
ब्रह्म पुराण में वर्णित पौराणिक कथानक के अनुसार सतयुग में दक्षिण भारत की अवंती नगरी में इन्द्रद्युम्न नाम के भगवान विष्णु के परम भक्त चक्रवर्ती सम्राट थे। एक बार अश्वमेघ यज्ञ करने के बाद वे सोचने लगा कि मैं कौन सा उपाय करूं जिससे मुझे अपने आराध्य के पुरुषोत्तम स्वरूप के दर्शन हो जाएं। चिंता में डूबे राजा को रात्रि में स्वप्न में निर्देश हुआ कि उत्कल प्रांत के समुद्री तट पर एक दारू का वृक्ष है, उसे काटकर लाओ और उस काष्ठ से देव विग्रह का निर्माण करवाकर मन्दिर में स्थापित करो। राजा नियत स्थान से काष्ठ तो ले आये लेकिन विग्रह निर्माण के लिए कोई भी सक्षम कारीगर नहीं मिलने से दुखी हो उठे। तभी दैवयोग से देवशिल्पी विश्वकर्मा एक वृद्ध शिल्पकार का वेष बनाकर उनके पास गये और सशर्त विग्रह बनाने को तैयार हो गये। शर्त थी कि राजा 21 दिन तक इस निर्माण कार्य की पूर्ण गोपनीयता बनाये रखेंगे। विग्रह निर्माण प्रारंभ होता है लेकिन राजा इन्द्रद्युम्न की पत्नी रानी गुंडिचा अपनी उत्सुकता पर नियंत्रण नहीं रख पातीं और 15वें दिन छुपकर विग्रह निर्माण देखने चली जाती हैं किन्तु ऐसा होते ही शिल्पकार विग्रह अधूरे छोड़ अंतर्ध्यान हो जाते हैं। रानी गुंडिचा को इस गलती पर भारी पछतावा होता है और राजा से क्षमा-याचना करती हैं। तभी आकाशवाणी होती है कि इन अधूरे विग्रहों को ही मन्दिर में स्थापित करें।
तब राजा इंद्रद्युम्न एक भव्य मन्दिर बनवाकर तपस्या द्वारा प्रजापति ब्रह्मा को प्रसन्न कर उनसे भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा के अपूर्ण काष्ठ विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा मंदिर में कराते हैं। तब से आज तक ये अधोभागहीन काष्ठ विग्रह ही जगन्नाथ पुरी में पूजे जाते हैं। आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से आयोजित होने वाले दस दिवसीय रथयात्रा महा महोत्सव में इन्हीं अधूरे देव विग्रहों शोभायात्रा निकाली जाती है।
रथयात्रा की अनूठी तैयारियां
दस दिवसीय रथयात्रा महोत्सव की तैयारियां अक्षय तृतीया के दिन से “वनजगा” महोत्सव से प्रारंभ होती हैं। लकड़ियाँ चुनने का कार्य इसके पूर्व बसन्त पंचमी से शुरू होता है। दो माह तक चलने वाले रथों का निर्माण कार्य धार्मिक अनुष्ठान के साथ शुरू होता है। दारू वृक्ष की लकड़ी से बनने वाले इन रथों में धातु का कोई भी कील या काँटा नहीं लगता। इन रथों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी के परंपरागत कारीगर ही बनाते हैं। रथों का आकार, संख्या व किस रथ में कितनी लकड़ी लगेगी, यह सब पहले से निर्धारित रहता है। जगन्नाथ का 45 फीट ऊँचा रथ “नंदीघोष” 16 पहियों का, बलभद्र जी का 44 फीट ऊँचा रथ रथ “तालध्वज” 14 पहियों का और सुभद्रा का 43 फीट ऊँचा रथ “देवदलन” 12 पहियों का होता है। इन रथों को सजाने में 1090 मीटर कपड़ा लगता है। जगन्नाथ के रथ को लाल व पीले वस्त्रों से, बलभद्र जी के रथ को नीले से और सुभद्रा के रथ को काले वस्त्रों से मढ़ा जाता है। इन रथों को खींचने वाली रस्सी को “स्वर्णचूड़ा” कहते हैं।
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को रथयात्रा प्रारंभ होने से पूर्व इन रथों को “सिंहद्वार” पर लाया जाता है। देव विग्रहों को स्नान करवा कर नये वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर भोग लगाने के बाद रथों में रखा जाता है। इसे “पहोन्द्रि महोत्सव” कहते हैं। रथों के चलने से पूर्व पुरी के राजा एक पालकी में आकर इन देव विग्रहों का पूजन करते हैं। इसे “छर पहनरा” कहते हैं। पूजा-अर्चना के बाद ढोल, नगाड़ों, तुरही तथा शंखध्वनि के बीच सुमधुर भक्तिगीतों के साथ इस यात्रा का शुभारम्भ होता है। ये तीनों भाई-बहन मंदिर से निकलकरअपने अपने विराट रथों पर सवार होकर भक्तों के बीच जाते हैं। जगन्नाथ मंदिर से गुंडीचा मंदिर और फिर जगन्नाथ मंदिर तक वापसी की यह यात्रा एकादशी तिथि को सम्पन्न होती है।
रथ यात्रा का दिव्य तत्वदर्शन
श्रीमद्भागवत महापुराण में इस महायात्रा का अत्यंत सारगर्भित तत्वदर्शन वर्णित है। इस शास्त्रीय विवेचन के मुताबिक लोकपालक का यह अनूठा रथ मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार; इन चार पायों के संतुलित समन्वय पर टिका है। इस रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। वस्तुतः यह रथयात्रा शरीर और आत्मा के मिलन की द्योतक है। यद्यपि प्रत्येक जीवधारी के शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उसे माया संचालित करती है। सनातन हिंदू धर्म के इस विलक्षण तत्वदर्शन का सशक्त प्रमाण है जगत पालक की यह अद्भुत रथयात्रा।
जगन्नाथ स्वामी की अद्भुत रसोई
जगन्नाथजी की रसोई दुनिया की सबसे निराली रसोई है जिसका भोजन कभी भी नहीं घटता। रथयात्रा के अवसर पर श्रद्धालुओं को जो भोज दिया जाता है, उसे “महाप्रसाद” कहते हैं। इस अनूठी रसोई में पूरा भोजन प्रसाद मिट्टी के पात्रों में चूल्हों पर बनाया जाता है। प्रसाद बनाने के लिए लकड़ी के चूल्हे पर काष्ठ निर्मित सात पात्र एक-दूसरे के ऊपर रखे जाते हैं। इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है। यहां चार सौ रसोइए भोजन बनाते हैं। रथयात्रा के महाप्रसाद में अरहर की दाल, चावल, साग, दही व खीर जैसे व्यंजन होते हैं, जिसका एक भाग प्रभु का अर्पित करने के बाद इसे कदली पत्रों पर रखकर भक्तों को परोसा जाता है। इस रसोई से प्रतिदिन लगभग 25,000 भक्त प्रसाद ग्रहण करते हैं जबकि रथयात्रा दौरान यह संख्या लाखों में पहुंच जाती है। इस रसोई की एक अन्य सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यहां जात-पात का कोई भेदभाव नहीं है। ब्राह्मण व छोटी जाति के लोग एक साथ भोजन करते हैं।
जगन्नाथ पुरी में भोजन करते हैं श्रीहरि
शास्त्रों में वर्णित है कि चार धामों की यात्रा करने वाले श्रद्धालु पहले बद्री नारायण, फिर द्वारका उसके बाद पुरुषोत्तम धाम जगन्नाथ पुरी व अंत में रामेश्वरम जाते हैं। मान्यता है कि जगन्नाथ जी बद्रीनाथ में स्नान करते हैं, द्वारका में श्रंगार, जगन्नाथ पुरी में भोजन करने के बाद रामेश्वरम में शयन करते हैं। श्री जगन्नाथ मंदिर में एक प्राचीन वट वृक्ष भी दर्शनीय है, साथ ही एक सरोवर भी है, जिसे श्वेत गंगा नाम से जाना जाता है। समुद्र में स्नान करने के बाद तीर्थयात्री इस सरोवर में डुबकी लगाते हैं। इसी के निकट नरेंद्र सरोवर है। मान्यता है कि श्री जगन्नाथ जी यहां स्वयं जलक्रीड़ा करते हैं। यहां पर पूर्वाभिमुख जो अरुण स्तंभ है, उसके बारे में कहा जाता है कि पहले यह अरुण स्तंभ संभवत: कोणार्क मंदिर में था, कालांतर में इसे पुरी लाया गया। इस अरुण स्तंभ व सिंहद्वार होकर आगे बढ़ने पर परिसर को घेरे हुए जो प्राचीर है उसे ‘’मेघनाद प्राचीर’’ कहा जाता है। इस अति ऊंची प्राचीर के कारण ही समुद्र का गर्जन यहां सुनाई नहीं देता है।
दिव्य-भव्य है श्रीमंदिर का हर कोना
भारत की सात प्राचीनतम नगरियों में शुमार जगन्नाथ पुरी का हर कोना अलौकिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। समुद्र तट से सात फर्लांग दूर जगन्नाथ के विशाल मंदिर के भीतर चार खण्ड हैं- प्रथम “भोग मंदिर”, जिसमें भगवान को भोग लगाया जाता है। द्वितीय “रंग मंदिर”, जिसमें सांस्कृतिक नृत्य-गान आदि होते हैं। तृतीय “सभामण्डप”, जिसमें दर्शकगण (तीर्थ यात्री) बैठते हैं। चौथा “अंतराल” है जो जगन्नाथ मंदिर के 192 फुट ऊंचे गुंबद और ध्वज से आच्छन्न है। यह मंदिर भूतल से 20 फुट ऊंची एक छोटी सी पहाड़ी “नीलगिरि” पर स्थित है। अन्तराल के प्रत्येक तरफ एक बड़ा द्वार है, इनमें पूर्व का द्वार सबसे बड़ा और भव्य है। प्रवेश द्वार पर एक विशाल सिंह की आकृति है, इसीलिए इस द्वार को “सिंह द्वार” भी कहा जाता है। यह मंदिर 20 फीट ऊंची दीवार के परकोटे के भीतर स्थित है, जिसमें अनेक छोटे-छोटे मंदिर है। मुख्य मंदिर के अलावा एक परंपरागत डयोढ़ी, पवित्र देवस्थान या गर्भगृह, प्रार्थना करने का हॉल और अनेक स्तंभों वाला एक नृत्य हॉल है।
श्रीमंदिर के अनोखे चमत्कार
चार लाख वर्गफुट में क्षेत्र में फैले और लगभग 214 फुट ऊंचे दुनिया के भव्यतम मंदिरों में शुमार इस मंदिर मुख्य गुंबद की छाया कभी भी धरती पर नहीं पड़ती। श्रीमंदिर के ऊपर स्थापित भव्य लाल ध्वज सदैव हवा की विपरीत दिशा में लहराता है। किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा। मंदिर के ऊपर गुंबद के आस पास अब तक कोई पक्षी उड़ता हुआ नहीं देखा गया। इसके ऊपर से विमान भी नहीं उड़ पाता। इस दिव्य तीर्थ की आकृति एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह है जिसे सागर का पवित्र जल सतत धोता रहता है। आश्चर्य की बात है कि समुद्र की घोर गर्जना मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम रखते ही सुनायी पड़ना बिल्कुल बंद हो जाती है। मायापति के इस जागृत तीर्थ से जुड़े ये चमत्कारी तथ्य वर्तमान के धुर वैज्ञानिक युग में भी लोगों को दांतों तले उंगलियां दबाने को विवश कर देते हैं।
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