म्यांमार में 2021 के सैन्य तख्तापलट के बाद से देश गहरे राजनीतिक संकट और गृहयुद्ध की तपिश झेल रहा है। फौज की जुंटा सरकार और विभिन्न जातीय सशस्त्र समूहों के बीच जारी संघर्ष ने न केवल वहां के नागरिकों का जीवन नारकीय बनाया हुआ है, बल्कि देश की प्राकृतिक संपदाओं, विशेषकर दुर्लभ खनिज तत्वों की खदानों को भी वैश्विक भू-राजनीतिक उठापटक का केंद्र बना दिया है। विश्व में बढ़ती अस्थिरता और तनाव के बीच विस्तारवादी चीन वहां गुपचुप अपना एजेंडा चलाए हुए है और एक ओर जुंटा सरकार तो दूसरी ओर विद्रोही गुटों को अपने समर्थन के झांसे से भरमाए हुए। बीजिंग का एकमात्र उद्देश्य म्यांमार की खनिज संपदा की लूटमार ही दिखता है, क्योंकि गृहयुद्ध में उलझी जुंटा सरकार का ध्यान फिलहाल दूसरे महत्वपूर्ण मोर्चों पर अटका है। चीन वहां से दुर्लभ खनिज निकालकर ले जाना चाहता है।
म्यांमार के उत्तरी और पूर्वी हिस्सों, विशेषकर काचिन और शान राज्यों में, दुर्लभ खनिजों की प्रचुरता है। इनमें डाइसप्रोसियम और टर्बियम जैसे भारी दुर्लभ तत्व शामिल हैं, जो इलेक्ट्रिक वाहनों, पवन चक्कियों, मिसाइलों और दूसरे हाई-टेक उपकरणों में उपयोग होते हैं। 2021 के तख्तापलट के बाद से इन क्षेत्रों में सैन्य और विद्रोही समूहों के बीच संघर्ष तेज होता गया है, जिससे खनन के काम पर नियंत्रण को लेकर मारामारी भी बढ़ी है।
चीन वैश्विक दुर्लभ खनिज प्रसंस्करण का लगभग 90 प्रतिशत नियंत्रित करता है, वह म्यांमार से भारी मात्रा में कच्चे दुर्लभ खनिज आयात करता है। 2023 में चीन के कुल दुर्लभ खनिज आयात का लगभग 57 प्रतिशत हिस्सा म्यांमार से ही आया था। लेकिन काचिन राज्य में विद्रोही समूहों द्वारा खनन क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने के बाद चीन की आपूर्ति श्रृंखला बाधित हुई है। इसके जवाब में चीन ने वहां के शान राज्य में नई खदानें खोदनी शुरू कर दी हैं, जहां चीन समर्थित विद्रोही गुटों द्वारा सुरक्षा प्रदान की जा रही है।

इन खदानों में खनन का पर्यावरण के साथ ही स्थानीय समुदायों पर भी विनाशकारी प्रभाव पड़ा है। चिंता की बात है कि अमोनियम सल्फेट और ऑक्सेलिक एसिड जैसे रसायनों के उपयोग से जल स्रोत प्रदूषित हो गए हैं, इससे स्थानीय लोगों में त्वचा संबंधी रोग, सांस लेने की दिक्कतें और गर्भपात जैसी स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ गई हैं। पारंपरिक कृषि और पशुपालन लगभग समाप्त ही हो चुके हैं। इतना ही नहीं, खदान क्षेत्रों में नशाखोरी, मानव तस्करी और हिंसा की घटनाओं में बढ़ोतरी देखने में आ रही है।
जैसा पहले बताया, म्यांमार में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए चीन दोहरी रणनीति अपना रहा है—एक ओर वह जुंटा सरकार का समर्थन करता दिखाई देता है, तो दूसरी ओर वह विद्रोही समूहों के साथ भी वार्ता का सेतु बनाए रखे है। इसका उद्देश्य खनिज आपूर्ति को स्थिर बनाए रखना और अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ चल रही व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में बढ़त बनाए रखना है। चीन पहले भी जापान (2010) और अमेरिका (2025) के खिलाफ दुर्लभ खनिजों के निर्यात को रणनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर चुका है।
चीन की इस रणनीति से भारत सहित कई देशों की चिंता बढ़ गई है। भारत में बन रहे इलेक्ट्रिक वाहनों और इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग के लिए चीन से दुर्लभ खनिज लिए जाते हैं। चीन द्वारा निर्यात पर नियंत्रण से भारत की उत्पादन श्रृंखला पर उलटा असर पड़ना भी स्वाभाविक है। इससे आत्मनिर्भरता की आवश्यकता और घरेलू खनिज संसाधनों के विकास की मांग तेज हो गई है।
स्पष्ट है कि म्यांमार का गृहयुद्ध अब केवल एक आंतरिक संघर्ष नहीं रह गया है, बल्कि यह वैश्विक भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का गढ़ बन चुका है। दुर्लभ खनिजों की दौड़ में चीन की आक्रामक रणनीति, म्यांमार की अस्थिरता और पर्यावरण का विनाश एक जटिल संकट को जन्म दे रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, इस स्थिति में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को न केवल मानवीय संकट पर ध्यान देने की जरूरत है, बल्कि पारदर्शी और टिकाऊ खनन नीतियों को भी बढ़ावा देना समय की मांग है। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन स्थानीय समुदायों के हित में हो इसकी चिंता करनी होगी। इससे केवल वैश्विक शक्तियां लाभ उठाती रहें तो यह किसी के लिए उचित नहीं होगा।
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