हाल ही में ब्रिटेन के लिवरपूल विश्वविद्यालय ने बेंगलुरु में अपना परिसर शुरू करने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और शिक्षा मंत्रालय के साथ समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। अब तक पांच प्रतिष्ठित विदेशी संस्थान देश में अपने परिसर खोलने की दिशा में कदम बढ़ा चुके हैं। इनमें ब्रिटेन का साउथम्प्टन विश्वविद्यालय गुरुग्राम में, अमेरिका का इलिनॉयस इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी मुंबई में, ऑस्ट्रेलिया की डाकिन यूनिवर्सिटी और वोलोंगोंग यूनिवर्सिटी गुजरात गिफ्ट सिटी में अपने परिसर खोलेगी।

प्रो. रसाल सिंह
प्राचार्य, रामानुजन कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय
केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने उम्मीद जताई है कि आगामी सत्रांत तक कम-से-कम 15 प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालय देश में अपने परिसर प्रारंभ कर देंगे। भारतीय उच्च शिक्षा क्षेत्र के अंतरराष्ट्रीयकरण की यह महत्वाकांक्षी परियोजना है, जो भारत की वैश्विक शैक्षणिक साझेदारी की दिशा में मील का पत्थर साबित होगी। यह भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, अन्तर्निहित अवसरों और संभावनाओं का परिणाम है। यह शैक्षणिक साझेदारी भारत को ‘नॉलेज इकॉनोमी’ बनाते हुए उसकी सॉफ्टपॉवर को भी धार देगी।
क्यू.एस. वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग-2025 में अमेरिका, ब्रिटेन, चीन जैसे देश भारत से बहुत ऊपर हैं। इसी प्रकार, द टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग-2025 में एशिया के पहले 10 विश्वविद्यालयों में चीन के पांच, हांगकांग के 2, सिंगापुर के 2 और जापान का एक विश्वविद्यालय शामिल है। इसमें भी भारत की स्थिति सम्मानजनक नहीं है। संकटग्रस्त शिक्षा तंत्र के पुनरुत्थान, उसे गुणवत्तापूर्ण, पेशेवर और प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए लंबे समय से उसके अंतरराष्ट्रीयकरण की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। इसे ध्यान में रखते हुए उच्च प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में परिसर खोलने की अनुमति दी जा रही है।
शिक्षा तंत्र में सुधार की उम्मीद
विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में प्रवेश की अनुमति देने के पीछे प्रमुख कारण छात्रों की बढ़ती संख्या है। भारतीय छात्रों के बीच अंतरराष्ट्रीय शिक्षा की भारी मांग है। 2023-24 में विदेश में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या लगभग 15 लाख थी, जो 2024-25 में करीब 18 लाख हो गई। पिछले 10 साल में यह संख्या 15-20 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ी है। भारतीय छात्रों के लिए पहली पसंद कनाडा,अमेरिका और ब्रिटेन के शिक्षण संस्थान हैं। इसके बाद फ्रांस जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के संस्थान हैं।
इतनी बड़ी संख्या में भारतीय छात्रों के विदेश जाने से देश का लगभग 40 अरब डॉलर बाहर चला जाता है, जो सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3 प्रतिशत है। विदेशी संस्थानों के आने से धन का बाह्य प्रवाह रोक कर उसे देश में ही उच्च शिक्षा निवेश किया जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था में गतिशीलता आएगी और सरकार पर बिना अतिरिक्त बोझ डाले शिक्षा तंत्र में गुणात्मक सुधार संभव हो सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में उच्च शिक्षा में सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत निवेश का लक्ष्य प्रस्तावित है। वित्तीय घाटे के अलावा देश को योग्यतम मानव प्रतिभा का भी भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है, क्योंकि विदेशों में पढ़ाई के लिए जाने वाले छात्र अक्सर वहीं काम करने और रहने का विकल्प चुनते हैं। नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव भी है। इसी संकल्पना के अनुरूप यूजीसी ने ‘भारत में विदेशी उच्च शिक्षण संस्थानों के परिसर की स्थापना और संचालन विनियम-2023’ को लागू किया है। इससे भारतीय उच्च शिक्षा के स्तर में गुणात्मक वृद्धि होगी और प्रतिभा पलायन भी काफी हद तक रुकेगा।
शर्तों पर मिली अनुमति
विदेशी विश्वविद्यालय अपने सभी परिसरों में ऑनलाइन या दूरस्थ शिक्षा के बजाय ऑफलाइन माध्यम में पूर्णकालिक कार्यक्रम प्रदान करेंगे। केवल वही संस्थान यहां अपने परिसर स्थापित कर सकेंगे, जिनकी वैश्विक रैंकिंग के शीर्ष 500 में हो या अपने गृह क्षेत्र में प्रतिष्ठित संस्थान का दर्जा प्राप्त कर रखा हो। प्रारंभिक स्वीकृति 10 वर्षों के लिए दी जाएगी। विदेशी संस्थान भारत से अर्जित धन को यहां अपने संस्थान के विकास और वृद्धि में उपयोग कर सकेंगे। यह देश के उच्च शिक्षा तंत्र की बेहतरी और विस्तार सुनिश्चित करेगा।
भारत में उच्च प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर खुलने से भारतीय छात्रों को कम लागत पर डिग्री,कौशल और शिक्षण अनुभव प्राप्त होगा। साथ ही, एशिया और अफ्रीका जैसे महाद्वीपों के छात्रों के लिए भारत आकर्षक और वहनीय वैश्विक गंतव्य भी बनेगा। देश में विदेशी संस्थानों के परिसर स्थापित कराने के प्रयास पहले भी हो चुके हैं। 1995 और 2007 में इसके लिए प्रस्ताव लाया गया था, लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला। इस दिशा में मोदी सरकार ने गंभीर प्रयास किए, जिसका परिणाम सामने है। इस पहल से बहु-संकृतिवाद को भी प्रोत्साहन मिलेगा और दूसरे देशों के साथ भारत के गहरे सांस्कृतिक और राजनयिक संबंध भी स्थापित करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, कुशल कार्यबल के लिए रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे, क्योंकि नए परिसरों की स्थापना के लिए कार्यबल, निर्माण-सामग्री आदि की आवश्यकता होगी। साथ ही, देश में प्रतिभाशाली प्राध्यापकों और शोधकर्ताओं को बेहतर काम करने समुचित अवसर मिलेगा।
भारत में 1000 से अधिक विश्वविद्यालय और 42,000 से अधिक महाविद्यालय हैं। विश्व का सर्वाधिक वृहत् उच्च शिक्षा तंत्र होने के बावजूद उच्च शिक्षा में भारत का सकल नामांकन अनुपात (जीआईआर) सिर्फ 27.1 प्रतिशत है, जो विश्व में सबसे कम है। भारतीय अकादमिक संस्थानों का जोर मुख्य रूप से अंक देने और डिग्री बांटने पर होता है। इसलिए अनुसंधान और विकास की अनदेखी कर दी जाती है। अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप, योग्य शिक्षकों-कर्मचारियों की कमी, संस्थानों का राजनीतिकरण और यूनियनबाजी, सीमित निवेश के कारण बुनियादी सुविधाओं और ढांचे की दुर्दशा और छात्रों का ड्रॉपआउट जैसी चुनौतियां भारतीय अकादमिक संस्थाओं के मूल्यवर्द्धन की बाधाएं हैं। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का लक्ष्य उच्च शिक्षा के माध्यम से मानव की पूर्ण क्षमता को विकसित कर राष्ट्र की प्रगति में उसकी भूमिका सुनिश्चित करना है। कॅरियर परामर्श और रोजगारपरकता भी एक क्षेत्र है, जिसमें भारतीय संस्थान अपने विदेशी समकक्षों से बहुत पीछे हैं। हमारा पाठ्यक्रम उन लोगों से चर्चाओं पर आधारित नहीं होता है जो अंततः हमारे छात्रों को रोजगार देते हैं।
शिक्षा का स्तर सुधरेगा
दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त शैक्षणिक संस्थान भविष्य की संभावनाओं को समझने के लिए लगातार व्यापार, उद्योग, समाज और सरकार के साथ जुड़े रहते हैं। नौकरियों की संख्या और कर्मचारियों की मांग में तेजी से बदलाव हो रहा है जो सीधे-सीधे शिक्षा प्रदाताओं को यह जिम्मेदारी देता है कि वे इस बदलाव का अनुमान लगाएं और छात्रों को इसके अनुरूप तैयार करें। विदेशी विश्वविद्यालयों ने अनुमान लगाने, परखने, छात्रों को तैयार करने की कला में महारत हासिल की है। विदेशी संस्थानों के आने से देश में भी सीखने के लिए ऐसे अनुकूल पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण होने की सम्भावना है, जिसका सीधा प्रभाव छात्रों के दृष्टिकोण और व्यवहार पर पड़ेगा और शिक्षा के फलागम में वृद्धि करेगा। इसके अलावा उच्च शिक्षा क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का भाव पैदा होगा। विदेशी विश्वविद्यालयों के साथ शोध परियोजनाओं, पारस्परिक सहयोग, नवाचार, प्रतिभाशाली छात्रों और शिक्षकों के लिए प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा हेतु भारतीय विश्वविद्यालय अपने मानकों में वृद्धि को प्रेरित होंगे। ऐसी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा विश्वविद्यालयों में शिक्षा के समग्र स्तर को सुधारने में मदद करेगी। इन विश्वविद्यालयों द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त कोर्स भारत में लाने से भारतीय छात्रों को विश्व स्तर पर क्रेडिट हस्तांतरण का मौका भी प्राप्त होगा।
भारत के लिए छात्र गतिशीलता और वैश्विक स्तर पर छात्रों का आदान-प्रदान नई अवधारणा नहीं है। तक्षशिला, नालंदा, वल्लभी, विक्रमशिला, शारदा, भद्रकाशी, पुष्पगिरी और उदन्तगिरी जैसे प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालय 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व में शिक्षा के वैश्वीकरण के प्रतिष्ठित उदाहरण हैं। अब, वैश्विक ब्रांडों के प्रवेश से देश में अत्याधुनिक विश्वस्तरीय परिसरों की संख्या में वृद्धि होगी। भारत फिर से उच्च शिक्षा के एक वैश्विक केंद्र के रूप में उभर सकता है और दुनिया के विभिन्न हिस्सों के छात्रों को आकर्षित कर सकता है।
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