समुद्र तल से 22,028 फुट ऊंचाई पर स्थित हिमाच्छादित कैलाश शिखर और मानसरोवर झील को भगवान सदाशिव और जगजननी माँ पार्वती का आदिधाम माना जाता है। इसीलिए सनातनधर्मी श्रद्धालु पावन धाम “कैलाश मानसरोवर” की यात्रा का सुअवसर मिलना अपने जीवन का सर्वोच्च सौभाग्य मानते हैं। पांच साल के अंतराल के बाद एक बार फिर इस दिव्यतम शिवधाम की यात्रा पुनः शुरू होने से शिवभक्तों में अपार आनंद और हर्ष है। इस सुअवसर पर प्रस्तुत हैं इस परम शिवधाम से जुड़ी विभिन्न रुचिकर जानकारियाँ-
“ॐ” पर्वत के रूप में पूजे जाते हैं महादेव
आमतौर पर देश में भगवान शिव को लिंग रूप में अधिक पूजा जाता है लेकिन कैलाश मानसरोवर में महादेव “ॐ” पर्वत के रूप में पूजे जाते हैं। इस कैलाश पर्वत की आकृति एक विशाल पिरामिड जैसी है। सनातनधर्मियों की प्रगाढ़ आस्था है कि यह पवित्रतम हिमतीर्थ उतना ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन हमारी सृष्टि है। षोडशदल कमल के आकार का यह तीर्थ सदैव बर्फ से आच्छादित रहता है। माना जाता है कि उन्हीं शिवभक्तों को इस कैलाश मानसरोवर यात्रा का सौभाग्य मिलता है जो शिवमय होना जानते हैं। मान्यता है कि षोडश दल कमल के आकार के इस हिम आच्छादित कैलाश पर्वत पर देवादिदेव महादेव शिव और आदिशक्ति माता भवानी आज भी विराजती हैं। इस अलौकिक तीर्थ पर प्रकाश और ध्वनि तरंगों का अनुपम समागम होता है।
मानसरोवर झील में बर्फ का न जमना अलौकिक चमत्कार
शिव महापुराण में कथानक है कि मानसरोवर झील की उत्पत्ति भगीरथ की तपस्या से भगवान शिव के प्रसन्न होने पर हुई थी। भगवान सदाशिव की महिमा के कारण ही इस मानसरोवर झील में हमेशा जलस्तर एक समान रहता है। उच्च हिमालयी क्षेत्र होने के बावजूद यहां बर्फ नहीं जमती, जबकि सरोवर के दूसरी ओर स्थित राक्षस ताल में बर्फ जम जाती है। मान्यता है कि यहीं से महाविष्णु के करकमलों से निकलकर मां गंगा कैलाश पर्वत की चोटी पर गिरती हैं, जहां प्रभु शिव उन्हें अपनी जटाओं में भर धरती में निर्मल धारा के रूप में प्रवाहित करते हैं। हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार जो व्यक्ति मानसरोवर झील की धरती को छू लेता है, वह ब्रह्मा के बनाए स्वर्ग में पहुंच जाता है और जो व्यक्ति झील का पानी पी लेता है, उसे भगवान शिव के बनाये स्वर्ग में जाने का अधिकार स्वत: ही मिल जाता है।
चार दिशाओं से चार प्रमुख नदियों का उद्गम
सदाशिव का यह परम धाम चार दिशाओं से चार प्रमुख नदियों ब्रह्मपुत्र, सिंधु, सतलज व करनाली का उद्गम माना जाता है। रोचक तथ्य यह है कि कैलाश की चारों दिशाओं से निकलने वाली ये चारों नदियां चार स्रोतों से निकलती हैं वे चार भिन्न भिन्न पशुओं की मुख की आकृति के हैं। पूर्व में अश्व मुख, पश्चिम में हाथी का मुख, उत्तर में सिंह का मुख और दक्षिण में मोर का मुख।
33 कोटि देवता करते हैं मानसरोवर में स्नान
शिवपुराण में कैलाश मानसरोवर की उपमा क्षीरसागर से की गयी है। स्कंद पुराण के मानस खंड में भी कैलास मानसरोवर का उल्लेख किया गया है। पुराणों में पांडवों के पर्वतारोहण के दौरान मानसरोवर क्षेत्र में जाने का भी उल्लेख मिलता है। हिंदू धर्म में भगवान शिव को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।
मान्यता है कि कैलास पर्वत के रास्ते 33 कोटि देवता आते हैं और सरोवर में स्नान करते हैं, इसलिए सरोवर का जल सदैव स्थिर रहता है और हर घंटे रंग बदलता है। कालिदास रचित “मेघदूत” में भी मानसरोवर यात्रा का उल्लेख किया गया है। भोलेनाथ का यह निराला धाम भारत की आध्यात्मिक-सांस्कृतिक धरोहर के साथ दैविक ऊर्जा का अमृत-कलश माना जाता है।
जलक्रीड़ा करते हैं राजहंस
15,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह मानसरोवर झील 54 मी तक विस्तार लिए हुए शिव के चरणों को आज भी प्रक्षालित कर रही है। श्रद्धालु कहते हैं, झील के समीप जलक्रीड़ा करते राजहंसों की कतार देख प्रतीत होता है कि मानो सदाशिव ने इस पवित्र सरोवर की स्वच्छता का दायित्व इन नन्हें सिपाहियों पर सौंप रखा हो। इस मानसरोवर की परिक्रमा के बाद स्नान से तन-मन की मलिनता नष्ट हो मानवीय चेतना परम चेतना से जुड़ जाती है। शायद इसी अवस्था के लिए शून्य से शिखर तक पहुंचने वाली अवस्था की बात कही गयी हो।
गौरीकुण्ड में स्न्नान करती हैं माँ पार्वती
गगन तले स्वत: निर्मित उत्तुंग शैल-शिखर पर एक शिवलिंग आकृति, शीर्ष पर शोभायमान श्वेत कमल सदृश तुषार किरीट। उत्तर दिशा की ओर उन्मत्त भाल कैलास पर चूड़ामणि स्वरूप दीर्घ शैल अत्यन्त आकर्षक दृष्टिगोचर होता है। यहां से 15 किलोमीटर की उतराई पर स्थित गौरीकुण्ड के बारे में किंवदन्ती है कि यहाँ आज भी माँ पार्वती प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करने आती हैं। यहां का जल नीला एवं अत्यन्त पवित्र है। अकस्मात उठती हुई विशाल गुम्बदाकार शिव जटा सदृश कैलास के शरीर से निकलती जलधाराएं लोगों को भक्ति रस में सराबोर कर देती हैं।
विभिन्न धर्म संस्कृतियों में कैलाश मानसरोवर की महिमा
शिव का यह परम धाम चार हिंदू ही नहीं, तिब्बती धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म का भी प्रमुख आध्यात्मिक केंद्र माना जाता है। देश के जाने माने इतिहासकार डॉ. दानपाल सिंह के अनुसार विभिन्न धर्म-संस्कृतियों में कैलाश मानसरोवर का बहुत महत्व है। जहाँ एक और सनातनधर्मी हिंदुओं के लिए यह देवाधिदेव महादेव का पवित्र निवास है; वहीं बौद्ध धर्म में कैलाश पर्वत को ‘कांग रिनपोछे’ यानी ‘बर्फ के अनमोल रत्न’ के रूप में पूजा जाता है और ज्ञान और निर्वाण की प्राप्ति से जुड़ा एक पवित्र स्थल माना जाता है। बौद्ध धर्म में कैलाश पर्वत को ‘मेरु पर्वत’ के नाम से भी जाना जाता है। यह तीर्थ जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ से जुड़ा होने के कारण आध्यात्मिक जागृति और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति के स्थान के रूप में विशेष महत्व रखता है। इस दिव्य धाम में दाराचीन से 45 किलोमीटर की दूरी पर अष्टापद नाम महातीर्थ है, जिसे जैन धर्म के प्रवर्तक आदिनाथ का कैवल्य स्थान ( मोक्ष प्राप्ति) माना जाता है। चारों ओर अमृतमयी जलधारा कैलास को निहारते आदिनाथ! अद्भुत प्रेम-वैराग्य का संगम स्थल माना जाता है यह अष्टापद। दाराचीन से 15 किलोमीटर की दूरी पर यमद्वार स्थित है। इसी तरह तिब्बती बौद्ध धर्म में कैलाश पर्वत को ब्रह्मांड के केंद्र के रूप में एक विशेष स्थान प्राप्त है। तिब्बत क्षेत्र के बौद्ध धर्मावलम्बी इस स्थल को स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का पुल मानते हैं, इस विश्वास के पीछे उनकी यह मान्यता है कि यह वह बिंदु है जहां से दिव्य आध्यात्मिक ऊर्जा सतत प्रवाहित होती रहती है।
शिवत्व को स्वयं में धारण करने की महायात्रा
कैलाश मानसरोवर यात्रा का दिव्य अनुभव बताते हुए देश के विख्यात आध्यात्मिक धर्मगुरु जग्गी वसुदेव कहते हैं कि उन्होंने कैलाश पर्वत से आधी रात को कैलास पर्वत से एक दिव्य ज्योति निकलती देखी थी जो मानसरोवर में समाकर विलीन हो गयी। आदि कैलास की पैदल परिक्रमा के दौरान यहां से निकलते समय मन से मृत्यु का भय भी निकल जाता है। यहां से कैलास अत्यन्त भव्य दिखायी देता है। ऊंची-नीची पर्वत श्रेणियों की इस अति दुर्गम यात्रा में ऑक्सीजन की अत्यन्त कमी के कारण सभी श्रद्धालु सहजता से यहां नहीं पहुंच सकते। मगर भोले की कृपादृष्टि जिस पर पड़ जाए, वह साक्षात शिवालय, देवलोक में अपना स्थान पा लेता है। वे कैलास मानसरोवर के यात्रा के अनुभवों को अलौकिक और अनिर्वचनीय बताते हुए कहते हैं कि कहते हैं, “कैलाश मानसरोवर की यात्रा वस्तुत: शिव को स्वयं में महसूस करने की यात्रा है। नैसर्गिक होकर स्वयं में शिव को खोजना ही इस यात्रा का मर्म है। वे कहते हैं कि मानव का मूल रूप या मूल प्रकृति शिव है। इस यात्रा का यात्री व्यक्ति नहीं रहता, प्रकृति बन जाता है। उसे न अपने अहंकार से मतलब होता है, न किसी द्वेष से, न ही उसे किसी का मोह सताता है और न ही कोई चिंता।
उसका एकमात्र लक्ष्य होता है कैलास मानसरोवर में विराजे शिव के सन्निकट पहुंचना। शिव तक पहुंचने के लिए व्यक्ति धीरे-धीरे शिव में परिवर्तित होने लगता है। जैसे-जैसे वह प्रकृति में रमने लगता है, वैसे-वैसे उसके शिव होने की प्रक्रिया भी प्रारम्भ हो जाती है। वह लोभ, मोह, अहंकार, क्रोध आदि को छोड़ता हुआ अपने भीतर की मूल प्रकृति का बाहर की प्रकृति से तादात्म्य बैठा लेता है। मानसरोवर यात्रा के साथ ही रास्ते में अत्यधिक सुखद अनूभूति होती है। यहां तक कि मनुष्य मोह-माया से मुक्त हो जाता है। यात्रा में कैलास पर्वत की परिक्रमा का भी महत्व है। इस नैसर्गिकता में ही यात्री शिवोहम् का उद्घोष करने का पात्र बन जाता है।”
अखंड भारत की भौगोलिक सीमा में था कैलास मानसरोवर
सनातनधर्मियों की प्रगाढ़ आस्था का केंद्र कैलास मानसरोवर तीर्थ भले ही वर्तमान समय चीन अधिग्रहीत तिब्बत क्षेत्र में स्थित होने के कारण इस यात्रा का आयोजन विदेश मंत्रालय के तत्वावधान में होता है किन्तु 2500 वर्ष पूर्व यह उतुंग शिवतीर्थ अखंड भारत की भौगोलिक सीमाओं के अन्तर्गत आता था। इतिहासकार डॉ. दानपाल सिंह कहते हैं कि अखंड भारत की सीमाएँ हिमालय से लेकर दक्षिणी सागर तक फैली थीं और इनमें ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत, म्यांमार, कंबोडिया, मलेशिया, थाईलैंड और इंडोनेशिया और श्रीलंका जैसे क्षेत्र शामिल थे। 24 अक्टूबर, 1951 को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने तिब्बत को अपने अधीन कर लिया था। तभी से हमारा यह दिव्य तीर्थ चीन के अधिग्रहण में चला गया।
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