हल्दीघाटी के संकरे रास्ते से गुजरते चेतक पर सवार महाराणा प्रताप
भारत में राजाओं को वंश के आधार पर मोटे रूप में दो भागों में बांटा गया है, सूर्यवंशी और चंद्रवंशी। पुराणादि ग्रंथों में भी राजवंशों का यही विभाजन मिलता है। इन दोनों राजवंशों में सूर्यवंशी राजाओं की महत्ता अधिक रही है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम इसी सूर्यवंश में अवतरित हुए। श्रीराम के पुत्र लव से मेवाड़ के राजवंश की उत्पत्ति मानी जाती है। लव के वंश में अंतिम राजा सुमति हुए। सुमति की 41वीं पीढ़ी में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में कनकसेन (प्रहस्त) राजा बने। कनकसेन की 24वीं पीढ़ी में विक्रम संवत् 625 (568 ई.) में गुहिल नामक प्रसिद्ध राजा हुए। इन्हीं गुहिल के नाम से मेवाड़ का राजवंश सूर्यवंश के साथ-साथ गुहिल या गुहिलोत राजवंश भी कहा जाने लगा।
724 ई. में इस राजवंश के महापराक्रमी राजा कालभोज अर्थात् बप्पा हुए। ‘रावल’ इनकी उपाधि थी। गुहिल वंश के वंशज सीसोदा गांव में भी रहते थे। सिसोदा के स्वामी हमीर सिंह विक्रम संवत् 1383 (1326 ई.) में जब चित्तौड़गढ़ की राजगद्दी पर आरूढ़ हुए तब से सीसोदा गांव की पहचान के आधार पर मेवाड़ के राजा सिसोदिया कहलाए और ‘रावल’ के स्थान पर ‘महाराणा’ की उपाधि से प्रसिद्ध हुए। महाराणा हमीर सिंह के बाद क्रमशः खेता, लाखा, मोकल, कुंभा, उदयकर्ण, रायमल, सांगा, रतन सिंह, विक्रमादित्य, बनवीर और उदय सिंह मेवाड़ के महाराणा बने। इन्हीं उदय सिंह के यहां (1537-72 ई.) प्रताप सिंह पैदा हुए, जिन्हें बाद में महाराणा की उपाधि मिली।
वैसे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के ज्येष्ठ पुत्र लव और कनिष्ठ पुत्र कुश थे। लव को श्रीराम ने उत्तर कोशल और कुश को दक्षिण कोशल का राजपाट सौंपा था। लव के वंशजों में वर्तमान मेवाड़ का गुहिलोत राजवंश और कुश के वंशजों में आमेर के कच्छवाहा आते हैं। वाल्मीकि रामायण में पृष्ठ संख्या 1671 से मिले उल्लेख में लव को उत्तर कोशल और कुश को दक्षिण कोशल का राज्य उत्तराधिकार में मिलने का प्रमाण मिलता है। वहीं, कालिदास के ‘रघुवंशम्’ के अनुसार श्रीराम ने लव को शरावती और कुश को कुशावती का राज्य दिया था। शरावती को आज श्रावस्ती के नाम से जाना जाता है, जो उत्तर भारत में स्थित है, जबकि कुश का राज्य कुशावती दक्षिण कोशल में है। कुश की राजधानी कुशावती आज के छत्तीसगढ़ में थी। यह भी उल्लेख है कि कुश को अयोध्या जाने के लिए विंध्याचल को पार करना पड़ता था। इससे भी स्पष्ट होता है कि उनका राज्य दक्षिण कोशल में ही था।
श्रीराम के बड़े बेटे लव (पाटवी-पुत्र) ने लवकोट (लाहौर) बसाया था, जो अब पाकिस्तान का प्रमुख शहर है। लाहौर के किले में इनका एक मंदिर भी बना हुआ है। दक्षिण-पूर्व एशिया में लाओस और थाईलैंड के शहर लोबपुरी का संबंध भी लव से जोड़ा जाता है। एक शोधानुसार लव की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए, जो महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। शल्य मद्र जनपद के राजा थे। मद्र वर्तमान में भारत और पाकिस्तान में फैले पंजाब क्षेत्र और मुल्तान को मिलाकर बनता था। शल्य के बाद बृहत्क्षय, ऊरुक्षय, बत्सद्रोह, प्रतिव्योम, दिवाकर, सहदेव, ध्रुवाश्च, भानुरथ, प्रतीताश्व, सुप्रतीप, मरुदेव, सुनक्षत्र, किन्नराश्रव, अंतरिक्ष, सुषेण, सुमित्र, बृहद्रज, धर्म, कृतज्जय, व्रात, रणज्जय, संजय, शाक्य हुए। शाक्य के पुत्रों में से एक शुद्धोधन ने शाक्य जनपद की स्थापना की। शाक्य जनपद वर्तमान में नेपाल की तराई का क्षेत्र है।
शुद्धोधन के बाद सिद्धार्थ, राहुल, प्रसेनजित, क्षुद्रक, कुलक, सुरथ, सुमति हुए। वहीं, लव के वंश में गुहादित्य से 50 पीढ़ी पूर्व लाहौर के शासक सुमति हुए। सुमति की 41वीं पीढ़ी में प्रहस्त वल्लभी के राजा बने। प्रहस्त से नवीं पीढ़ी में गुहादित्य का जन्म होता है। इसके बाद की पीढ़ियों का वर्णन मेवाड़ के इतिहास से मिल जाता है। इन सबका स्रोत ‘सिंध का इतिहास’, ‘नीलमत पुराण’, ‘विष्णु पुराण’ के अलावा इतिहासकार डी.सी. सरकार की पुस्तक ‘गुहिल्स ऑफ किष्किंधा’ में भी मिलता है। मेवाड़ के संत बावजी चतुर सिंह जी ने अपने दार्शनिक ग्रंथ ‘चतुर चिंतामणि’ में महाराणा प्रताप को श्रीराम का वंशज और रघुवंशी लिखा है। मेवाड़ के अभिलेखों और ऐतिहासिक ग्रंथों में गुहिलोत-सिसोदिया वंश की 76 पीढ़ियों का इतिहास अंकित है।
1226 ई. में नागदा पर मामलुक तुर्क शासक इल्तुतमिश का आक्रमण हुआ। उसने नागदा में आगजनी कर उसे नष्ट कर दिया। इसके बाद 1228 में मेवाड़ के रावल जैत्र सिंह ने उससे पुनः लोहा लिया और गोगुंदा के निकट की पहाड़ियों में भूताल के निकट इल्तुतमिश को बुरी तरह से पराजित कर भागने पर मजबूर किया। राजधानी नागदा के बाद विभिन्न स्थानों पर रुकते हुए मेवाड़ के राजा रावल तेज सिंह 1258 में चित्तौड़ पहुंचे। इसके बाद चित्ताैड़ अगले 300 वर्ष तक मेवाड़ की राजधानी बना रहा। इसके बाद 1568 में मुगलों के हमले में चित्तौड़ के पतन के बाद महाराणा उदय सिंह ने उदयपुर को राजधानी बनाया।
1302-03 में चित्तौड़ पर फिर तुर्कों का हमला हुआ। इस हमले में दिल्ली के तत्कालीन शासक अलाउद्दीन ने रावल जैत्र सिंह के प्रपौत्र रतन सिंह को उनके शासन के प्रारंभ में ही घेर लिया। लेकिन छह महीने की घेराबंदी के बावजूद सफलता नहीं मिलने पर मित्रता का हाथ बढ़ाकर रावल रतन सिंह को धोखे से पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। 1303 ई. के जौहर और साके के बाद मेवाड़ के गुहिल वंश की रावल शाखा का पतन हुआ। इसके बाद इसी गुहिल वंश की सिसोदा शाखा से आए महावीर हमीर सिंह तुर्कों को चित्तौड़ से खदेड़ा व महाराणा की उपाधि धारण कर मेवाड़ का उद्धार किया।
इसी राजवंश ने चतुर्दिक विजय प्राप्त करने वाले अपराजित, धर्मरक्षक शिलादित्य बप्पा, अरबों को उनकी सीमा में नियंत्रित करने वाले खुम्माण और शासन की व्यवस्था का पुनः स्थापित करने वाले अल्लट जैसे राजाओं से धरा को समृद्ध किया। वहीं, म्लेच्छों से उद्धार करने वाले हमीर, अभिनव भरताचार्य (भरत का नया रूप) कुम्भा, रविकुल गौरव सांगा, प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप, अमर सिंह, राज सिंह जैसे पराक्रमी पुत्रों को इस धरती के रक्षण के लिए सौंपा। पद्मिनी, कर्मवती, जयमल राठौड़ और पत्ता चूंडावत की रानियों के जौहर ने यहां के शौर्य को उज्ज्वल किया। कुम्भा की माता भक्तिमती सौभाग्य देवी, भक्त शिरोमणि मीरा, महारानी अजबदे, महाराणा उदय सिंह की धाय धव माण्डोवा गांव की भगवाना की पत्नी, रणछोड़ भट्ट और कान्ह व्यास जैसे विद्वानों ने इसकी भूमि को जग-सम्मान दिलाया। वहीं मण्डन, जेता और नापा जैसे सूत्रधारों ने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का विस्तार किया।
श्रीराम के वंश की यह शाखा मार्तण्ड के समान अपने उज्ज्वल संदर्भ और इतिहास को संजोए है। यह भारत की भूमि के रक्षण के लिए उत्कट संकल्प लेकर लगातार बलिदान और उत्सर्ग के लिए तत्पर रही है। इस वंश के सत्य की संस्थापना को लेकर बप्पा रावल का देवल का अभिलेख विशेष है। यह अभिलेख 735 ई. का है। इसमें वह अरबों के सिंध विजय के दो दशक बाद उन्हें पीछे हटने पर मजबूर करने का वर्णन करते हैं। अभिलेख अप्राप्त है, लेकिन इपिग्राफी इंडिका से इसके संदर्भ मिलते हैं। इसके बाद 739 ई. का अवनीजनाश्रय पुलकेशी का ताम्रपत्र उपलब्ध है। इसमें बप्पा को अरबी सेनाओं के विरुद्ध लड़ने वाली भारतीय सेना का सेनानायक बताया गया है।
बप्पा से पहले मेवाड़ में नागदा को राजधानी बनाने वाले उनके पितामह अपराजित का अभिलेख उदयपुर के निकट कुण्डा नामक स्थान के पास कृष्णावल या किसनावट नामक स्थान पर कैटभरिपु मंदिर से प्राप्त होता है। यह 661 ई. का अभिलेख है और इसमें अपराजित की चतुर्दिक विजय का वर्णन है। महाराणा उदय सिंह द्वितीय ने कुल 20 विवाह किए और सभी रानियों से 25 पुत्र व 20 पुत्रियां हुईं। उदय सिंह का प्रथम विवाह पाली के राजा सोनगरा चौहान अखैराज रणधीरोत की पुत्री जयवंती से हुआ। प्रताप का जन्म राजस्थान के कुंभलमेर (कुंभलगढ़) में उदय सिंह की महारानी जयवंताबाई (जसकंवर) की कुक्षि से ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया (रविवार) विक्रम संवत् 1597 यानी 9 मई, 1540 ई. को सूर्योदय से 43 घड़ी, 13 पल के बाद आर्द्रा नक्षत्र और मकर लग्न में हुआ था।
प्रताप के बचपन और शिक्षा-दीक्षा के बारे में कोई निश्चित और प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती, लेकिन उनके शौर्य, शस्त्र संचालन आदि को देखते हुए लगता है कि उस काल में राजकुमारों को जो शिक्षा दी जानी चाहिए थी, वह उन्हें दी गई। यह निश्चित है कि पिता के साथ कुंभलगढ़ व चित्तौड़ में रहते हुए ही उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। वे युवावस्था तक आते-आते अश्व परीक्षा, घुड़सवारी, और गस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग में पारंगत एवं सैन्य संचालन, व्यवस्था, व्यूह रचना आदि में निपुण व सक्षम हो गए। उन्होंने युवा अवस्था में ही जो सैनिक अभियान कर सफलताएं अर्जित की थीं, वह उनके कुशल सैन्य प्रशिक्षण का प्रमाण कही जा सकती हैं। उन्होंने युवावस्था में चित्तौड़ में जंगलों में रहने वाले भीलों के साथ रहकर तीरदांजी का अभ्यास किया था। उनकी सेना में भी भील सैनिक थे।
महाराणा प्रताप कूटनीति में अद्वितीय थे। उन्होंने विश्व को कूटनीति के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत दिए, जिनकी आज सबसे ज्यादा जरूरत है। आज भारत हो या विश्व का कोई अन्य देश, पड़ोसी राज्यों के साथ संबंधों में खटास दिखाई देती है। प्रताप ने बताया कि पड़ोसी राज्यों से मजबूत संबंध बनाए जाएं ताकि जब तीसरी शक्ति आक्रमण करे तो पड़ोसी राज्य संघर्ष में सहयोग करें न कि बाधा बन कर खड़े हो जाएं। उन्होंने बताया कि पड़ोसी राज्य सदैव शत्रु नहीं होता।
प्रताप ने कभी कोई गलती नहीं की, जिससे अकबर को राजनीतिक लाभ मिले। उन्होंने अपनी सुरक्षा नीति, मनोभाव तथा विचार भी दूत पर जाहिर नहीं होने दिए भले ही वह उनका सजातीय क्यों न हो। प्रताप व्यावहारिक कूटनीतिज्ञ तथा प्राचीन राजनीतिक सिद्धांतों से परिचित थे। अकबर ने दूसरे दूतमंडल के रूप में सजातीय कुंवर मानसिंह को प्रताप के पास भेजकर दोहरी चाल चली थी। पहला, मेवाड़ अपनी वंश परंपरा पर अभिमान करता था। अत: उसे मुगलों के अधीन लाने में राजपूत से बेहतर कोई अन्य नहीं हो सकता था। दूसरा, अकबर के अधीन रह चुका राजपूत शासक ही मुगलों की अधीनता में आने का नफा-नुकसान अच्छे से बता सकता था। अकबर चाहता था कि सम्मानजनक समझौता न भी हुआ तो राजपूताना के दो राजपूत वंश में विवाद हो जाए। लेकिन अकबर की नस्लीय कूटनीति भी प्रताप के सामने विफल हो गई।
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