पृथ्वी पर मुख्यतः पांच प्रमुख महासागर हैं, प्रशांत महासागर, हिन्द महासागर, अटलांटिक महासागर, उत्तरी ध्रुव महासागर और दक्षिणी ध्रुव महासागर। ये सभी महासागर न केवल धरती के पारिस्थितिक संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं बल्कि मानव जीवन के लिए अनेक प्रकार की सेवाएं भी प्रदान करते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश आज ये सभी महासागर गंभीर प्रदूषण की चपेट में आ चुके हैं। हर साल 8 जून को ‘विश्व महासागरीय दिवस’ मनाया जाता है, जिससे मानव जीवन में समुद्रों की अहमियत, महासागरों की साफ-सफाई और उनकी सुरक्षा के प्रति जन-जागरूकता फैलाई जा सके। इस वर्ष विश्व महासागरीय दिवस का विषय है ‘वंडर: सस्टेनिंग व्हाट सस्टेन्स अस’ अर्थात् ‘उस चमत्कार को बनाए रखना, जो हमें बनाए रखता है’।
यह विषय न केवल महासागरों की विलक्षण सुंदरता और उसमें बसे विविध जैविक जीवन को उजागर करता है, बल्कि इस गहन संदेश को भी सामने लाता है कि महासागर हमारे जीवन और पृथ्वी की जलवायु प्रणाली के आधार हैं। ऐसे में यह दिवस हमें चेतावनी देता है कि अब समय आ गया है कि हम महासागरों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाएं क्योंकि यही वह चमत्कार हैं, जो पृथ्वी को जीवित रखते हैं।
महासागर न केवल 70 प्रतिशतः पृथ्वी को आच्छादित करते हैं बल्कि वे ऑक्सीजन, भोजन, जलवायु संतुलन और जैव विविधता के स्रोत भी हैं। हालांकि, दुनियाभर के महासागर बढ़ते मानवीय क्रियाकलापों के कारण बुरी तरह प्रदूषित हो रहे हैं। जलवायु परिवर्तन, प्लास्टिक प्रदूषण, समुद्री जीवों का संकट और बेतरतीब शोषण आज महासागरों को गहरे संकट में डाल रहा है। पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार, औसतन हर मिनट एक ट्रक प्लास्टिक कचरा समुद्रों में फेंका जा रहा है। इसके अलावा, भारी मात्रा में सीवेज, औद्योगिक रसायन और जहरीले तत्व भी समुद्रों में पहुंच रहे हैं। अरबों टन प्लास्टिक कचरा हर साल महासागरों में समा जाता है, जो न तो आसानी से विघटित होता है और न ही पूरी तरह समाप्त होता है। यह वर्षों तक समुद्र में पड़ा रहकर समुद्री जीवन और पारिस्थितिकी को बुरी तरह प्रभावित करता है।
समुद्रों में समाते इन प्लास्टिक कणों और रासायनिक तत्वों का समुद्री वनस्पतियों और जीव-जंतुओं पर बेहद घातक असर पड़ता है। महासागरों का तापमान बढ़ रहा है, जल का पीएच मान घट रहा है, पोषक तत्वों की आपूर्ति प्रभावित हो रही है और ऑक्सीजन की कमी भी स्पष्ट रूप से दर्ज की जा रही है। इन सभी प्रभावों का सीधा असर समुद्री पारिस्थितिकी पर पड़ता है। भारतीय उपमहाद्वीप से भी हर वर्ष करोड़ों टन भारी धातुएं और लवणीय तत्व हिन्द महासागर में प्रवाहित हो जाते हैं। समुद्रों में सबसे ज्यादा खतरा प्लास्टिक कचरे से है, जिसे समुद्री जीव भोजन समझकर निगल जाते हैं। कई बार व्हेल, समुद्री कछुए और डॉल्फिन जैसे जीव मछली पकड़ने वाले जाल या अन्य प्लास्टिक अपशिष्ट को खा लेते हैं, जिससे उनकी मौत हो जाती है। अनेक अध्ययनों से पता चला है कि प्लास्टिक में मौजूद विषैले रसायन समुद्री जीवों के शरीर में चले जाते हैं। इन मछलियों और समुद्री जीवों को दुनिया भर में लगभग 3 अरब लोग भोजन के रूप में उपयोग करते हैं। इस प्रकार यह प्रदूषण मानव स्वास्थ्य को भी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है।
नार्वे के पास वैज्ञानिकों को ‘किलर व्हेल’ के चर्बी ऊतकों में पीसीबी जैसे विषैले रसायनों के उच्च स्तर मिले हैं, जो कई देशों में दशकों पहले ही प्रतिबंधित किए जा चुके हैं। साथ ही ‘पीएफएएस’ नामक रसायन भी इन जीवों में पाए गए हैं, जो हार्मोन संतुलन, प्रजनन क्षमता और जीवनचक्र पर बुरा असर डालते हैं। वैज्ञानिकों ने व्हेल्स के शरीर में ‘ब्रॉमिनेटेड फ्लेम रिटार्डेंट्स’ भी खोजे हैं, जो पीढ़ियों में ट्रांसफर होकर अगली पीढ़ी तक जहरीले असर छोड़ते हैं। स्पेनिश नेशनल रिसर्च काउंसिल द्वारा किए गए एक शोध में समुद्री कछुओं के पेट और मांसपेशियों में प्लास्टिक यौगिकों के उच्च स्तर पाए गए हैं। पूर्वी स्पेन के कैटलन तट पर और बेलिएरिक द्वीपों में मृत पाए गए ‘लॉगरहेड’ प्रजाति के 44 समुद्री कछुओं के विश्लेषण में यह तथ्य सामने आए। इनके शरीर में मौजूद यौगिक हार्मोन सिस्टम, न्यूरोलॉजिकल और कैंसरजनक गतिविधियों को प्रभावित करते हैं।
नदियों से समंदर में पहुंच रहा प्लास्टिक कचरा
महासागरों में प्लास्टिक पहुंचने का सबसे बड़ा जरिया नदियां हैं। हर साल लाखों टन प्लास्टिक कचरा नदियों के जरिए समुद्रों तक पहुंचता है। ‘प्लास्टिक वेस्ट मेकर्स इंडेक्स’ रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2019 में पूरी दुनिया में 130 मिलियन मीट्रिक टन एकल उपयोग वाला प्लास्टिक कचरा उत्पन्न हुआ। इसमें से केवल 35 प्रतिशत को ही जलाया गया, 31 प्रतिशत को जमीन में दबाया गया और 19 प्रतिशत को खुले में या समुद्रों में फैंक दिया गया। ‘साइंस एडवांसेज’ जर्नल में प्रकाशित ‘ओशियन क्लीनअप’ संगठन के अनुसार समुद्रों में प्लास्टिक प्रदूषण फैलाने वाली नदियों की संख्या हजारों में है लेकिन केवल एक हजार नदियां ही 80 प्रतिशत प्लास्टिक कचरे के लिए जिम्मेदार मानी जाती हैं। इन नदियों में से अधिकांश छोटी और मध्यम आकार की ही हैं, न कि केवल विशाल नदियां, जैसा पहले माना जाता था। फिलीपींस, चीन, भारत और मलेशिया जैसी देशों की नदियां समुद्रों में प्लास्टिक पहुंचाने के मामले में अग्रणी हैं। अकेले फिलीपींस की 4800 नदियां हर साल 3.5 लाख मीट्रिक टन प्लास्टिक समुद्रों तक पहुंचाती हैं। भारत की 1100 से ज्यादा नदियां हर साल 1.25 लाख टन प्लास्टिक समुद्र में पहुंचाती हैं।
प्लास्टिक प्रदूषण के अलावा जलवायु परिवर्तन भी महासागरों के लिए खतरा बन चुका है। महासागरों का तापमान तेजी से बढ़ रहा है। इसके कारण तूफानों की तीव्रता और संख्या में वृद्धि हो रही है। अरब सागर, जो पहले अपेक्षाकृत ठंडा क्षेत्र माना जाता था, अब गर्म हो चुका है। इससे मानसून के पूर्व सत्र में लगातार पांच वर्षों तक चक्रवातों की संख्या में तेजी आई है। आईपीसीसी की जलवायु वैज्ञानिक डॉ. रोक्सी कौल के अनुसार, यह स्थिति जलवायु परिवर्तन के स्पष्ट संकेत हैं और इससे समुद्री पारिस्थितिकी और मानव जीवन दोनों को खतरा है। बहरहाल, वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों की राय में समुद्रों की निगरानी के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक कठोर उपाय अपनाने होंगे। प्लास्टिक उत्पादन, खपत और निपटान को नियंत्रित करने के लिए ठोस नीति और जन-जागरूकता अभियान चलाना बेहद जरूरी हो गया है। तभी हम आने वाली पीढ़ियों के लिए समुद्रों को सुरक्षित और स्वच्छ बना पाएंगे।
(डिस्क्लेमर: स्वतंत्र लेखन। यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं; आवश्यक नहीं कि पाञ्चजन्य उनसे सहमत हो।)
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