यूरोप में जहां एक ओर शरणार्थियों के प्रति जरूरत से ज्यादा नरमाई दिखाते हुए कट्टर इस्लामी तत्वों का उपद्रव झेल रहे देश हैं तो दूसरी ओर पोलैंड जैसे देश भी हैं जहां उन्होंने ‘शरणार्थियों’ को लेकर अपनी नीतियां इतनी पुख्ता की हुई हैं कि उनका प्रवेश नहीं हुआ है और वहां लोग शांति से जी रहे हैं। नीदरलैंड में भी एक लंबे समय से गीर्ट विल्डर्स जैसे नेता समाज को आतताई शरणार्थियों के प्रति सचेत करते आ रहे हैं और चाहते हैं कि सरकार ऐसे कानून बनाए कि वे उनके देश में प्रवेश ही न कर सकें और जितने कर गए हैं वे वापस लौटें। इसी मुद्दे पर गीर्ट ने अपनी पीवीवी पार्टी की ओर से सरकार को समर्थन दिया हुआ था, लेकिन प्रधानमंत्री डिक स्कोफ इस विषय में ढीले पड़ते दिखे और कानून में आवश्यक सुधार करने में नाकाम भी। इसी बात से नाराज होकर गीर्ट ने सरकार से अपनी पार्टी का समर्थन वापस ले लिया और अल्पमत में आई सरकार के प्रधानमंत्री डिक को आखिरकार अपना इस्तीफा सौंपना पड़ा।

इसमें संदेह नहीं है कि नीदरलैंड की घरेलू राजनीति में हाल ही घटनाओं से एक बड़ा उलटफेर आया है। प्रधानमंत्री डिक स्कोफ के अपने पद से इस्तीफा देने से उपजे हालात से देश राजनीतिक अस्थिरता के दौर में बढ़ गया है। जैसा पहले बताया, इस इस्तीफे का मुख्य कारण गीर्ट विल्डर्स की पार्टी पीवीवी द्वारा गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लेना है।
गीर्ट विल्डर्स की पार्टी पीवीवी यूरोप की धुर दक्षिणपंथी पार्टियों में गिनी जाती है। उन्होंने गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला सरकार की शरणार्थी नीति को लेकर किया है। विल्डर्स ने मांग की थी कि देश की सीमाएं शरणार्थियों के लिए पूरी तरह बंद कर दी जाएं, नए शरण केन्द्रों का निर्माण रोका जाए और पहले से मौजूद ऐसे सभी केंद्रों को बंद किया जाए। सरकार ने इन मांगों को मानने से इनकार कर दिया, जिससे गठबंधन टूट गया और प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा।
बेशक, इस नए घटनाक्रम के बाद नीदरलैंड में मध्यावधि चुनाव की संभावना बढ़ गई है। वहां शायद आगामी अक्तूबर या नवंबर में चुनाव कराए जा सकते हैं। फिलहाल, एक कार्यवाहक सरकार शासन का कामकाज संभालेगी। विपक्षी दलों ने नए चुनाव की मांग तेज कर दी है, जिससे देश में राजनीतिक अनिश्चितता बढ़ गई है।

दक्षिणपंथी और कट्टर इस्लाम के प्रखर विरोधी गीर्ट लंबे समय से ‘एंटी-इमिग्रेशन’ आंदोलन के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने पहले भी कई बार शरणार्थियों और प्रवासियों के खिलाफ सख्त नीतियों की वकालत की है। इस बार भी उन्होंने सरकार पर दबाव बनाया था कि वह उनकी नीतियों को पूरी तरह लागू करे, उनके द्वारा प्रस्तुत पांच सूत्रीय मांगों पर ध्यान दे, लेकिन जब सरकार ऐसा कुछ भी करने में नाकाम रही, तो उन्होंने समर्थन वापस ले लिया।
उस देश में भी अन्य देशों में गुपचुप कार्यरत डीप स्टेट वामपंथी और ‘उदारवादी’ तत्वों को भड़काकर शरणार्थियों के प्रति रहम दिखाने की मांग उछलवाती रही है, आंदोलन और प्रदर्शन कराती रही है, लेकिन आम नागरिकों का यही मानना है कि वे अपने यहां फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी जैसा माहौल नहीं चाहते जहां सड़कों पर जबरन नमाज पढ़ी जाती है, दुकानें लूटी—जलाई जाती हैं, जगह जगह मस्जिद मदरसे बना लिए गए हैं, शरिया लागू करने की मांग जोर पकड़ रही है।
ऐसे माहौल में अगर नीदरलैंड में मध्यावधि चुनाव होते हैं, तो पीवीवी पार्टी कुछ सीटें गंवा सकती है, लेकिन फिर भी सबसे बड़ी पार्टी बनी रह सकती है। दूसरी ओर, पीपुल्स पार्टी आफ फ्रीडम एंड डेमोक्रेसी और कुछ वामपंथी झुकाव वाली पार्टियां फायदा उठा सकती हैं। हालांकि, नीदरलैंड की राजनीति में कोई भी पार्टी अकेले बहुमत हासिल नहीं कर पाती, इसलिए गठबंधन सरकार बनानी ही पड़ती है।
नीदरलैंड में सरकार का गिरना यूरोप के उन देशों को शायद समस्या की विकरालता का नजारा कराए कि ‘शरणार्थी’ नीति जैसे मुद्दे कितने संवेदनशील हो सकते हैं और कैसे वे नागरिकों की संवेदनाओं को उभारकर सरकारों को अस्थिर कर सकते हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि नीदरलैंड में आगामी चुनावों में जनता कट्टर इस्लामी तत्वों के खतरे के प्रति सचेत होकर गीर्ट विल्डर्स जैसे राष्ट्रीय सोच के नेता को समर्थन देती है या डीप स्टेट के प्रायोजित ‘नरमदिली’ और ‘मानवता’ के शोर में संभावित खतरे की तरफ से आंख मोड़ लेती है।
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